# मनुष्य को अब अपनी संकीर्णता की गलियों को अवश्य ही छोड़ना होगा, इसके बिना वह खुले विशाल आसमान में खग भांति न तो स्वच्छंद विचरण कर सकता है और न ही वह उसका कभी भरपूर आनन्द ले सकता है।*
# खुले आसमान में विचरण करने वाले खग की तरह खुला दिमाग ही जान सकता है कि आसमान कितना बड़ा है, वह मेढक क्या जानेगा जो कुएं में रहता है और मात्र कुएं को ही सारी दुनियां समझता है।*
मान-मर्यादा का अर्थ है दूसरों का सम्मान करना और स्वयं आत्म संयम में रहना। अगर युगों से प्रकृति धरती, सूर्य, चांद और सितारे अपनी-अपनी मान-मर्यादा की निरंतर पालना करने मे सक्षम रहे हैं तो व्यक्ति, परिवार और विश्व क्यों नहीं?
# जब-जब मनुष्य द्वारा अभिव्यिक्ति की मनमानी परिभाषा व्यक्त हुई है, तब-तब उसकी मान-मर्यादा भी नष्ट हुई है। इसलिए अभिव्यिक्ति मान-मर्यादा में ही अच्छी लगती है।*
# वह कार्य जो स्वयं से न हो, मगर उसेे कोई दूसरा सहजता से करने वाला हो, तब उसे उसके कार्य में बाधक भी नहीं बनना चाहिए। बाधा डालने से परिवार, समाज और राष्ट्र का विकास प्रभावित होता है।*