मानवता सेवा की गतिविधियाँ

श्रेणी: आलेख (page 2 of 31)

सर्वोत्तम वरदान

अनमोल वचन :-# अच्छा स्वास्थ्य एवंम अच्छी समझ जीवन में दो सर्वोत्तम वरदान है l *
Read More

आचरण शुद्धता

अनमोल वचन :-# आचरण की शुद्धता ही व्यक्ति को प्रखर बनाती है l*
Read More

अनीति मार्ग

अनमोल वचन :-# अनीति के रास्ते पर चलने वाले का बीच राह में ही पतन हो जाता है l*
Read More

व्यक्ति परिचय

अनमोल वचन :-# दो चीजें आपका परिचय कराती हैं : आपका धैर्य, जब आपके पास कुछ भी न हो और...
Read More

प्रभु की समीपता

अनमोल वचन :-# धर्यता और विनम्रता नामक दो गुणों से व्यक्ति की ईश्वर से समीपता बनी रहती है l*
Read More

उच्च विचार

अनमोल वचन :-# दिनरात अपने मस्तिष्क को उच्चकोटि के विचारों से भरो जो फल प्राप्त होगा वह निश्चित ही अनोखा...
Read More

मुस्कराना

अनमोल वचन :-# मुस्कराना, संतुष्टता की निशानी है इसलिए सदा मुस्कराते रहो l*
Read More

प्रभु कृपा

अनमोल वचन :-# सच्चाई, सात्विकता और सरलता के बिना भगवान् की कृपा कदापि प्राप्त नहीं की जा सकती l*
Read More

जीवन महत्व

अनमोल वचन :-# आप अपने जीवन का महत्व समझकर चलो तो दूसरे भी महत्व देंगे l*
Read More

जीवन महत्व

अनमोल वचन :-# आप अपने जीवन का महत्व समझकर चलो तो दूसरे भी महत्व देंगे l*
Read More

जल संग्रहण और उसकी उपयोगिता

Author Image
आलेख – हमारा पर्यावरण मातृवन्दना जुलाई अगस्त 2020 

हर स्थान पर नहरें व समयानुकूल वर्षा न होने से एकमात्र नलकूप ही खेतों की सिंचाई करने के संसाधन होते हैं l खेतों की सिंचाई करने हेतु नलकूपों की आवश्यकता पड़ती है l उनसे सिंचाई की जाती है l आवश्यक है, भूजल दोहन नियमित और फसल की आवश्यकता अनुसार ही हो l ऐसा न होने पर भूजल का किया अधिक दोहन व्यर्थ हो जाता है l इस कारण वह आज एक बड़ी चिंता का विषय बन गया है l
वर्तमान में गाँव और शहरों के मकान, गलियां, सड़क, इत्यादि सब बड़ी तेजी से सिंमेंट पोश होते जा रहे हैं l स्थानीय संस्थाएं, संगठन, न्यास ही नहीं, देश का जन साधारण भी कुआँ, तालाब, पोखर-जोहड़ों की उपयोगिता भूल गया है l इससे स्थानीय कुओं, तालाबों, पोखर-जोहड़ों की संख्या में काफी कमी आई है l लोगों के सामने हर वर्ष देखते ही देखते वर्षाकालीन का समस्त वर्षा जल गाँव और शहरों की नालियों के माध्यम से नाला मार्ग द्वारा बाढ़ का भयानक रूप धारण करके उनसे दूर बहुत दूर यों ही व्यर्थ में बह जाता है l इस तरह धरती पर अपार वर्षाजल उपलब्ध होने पर भी बेचारी धरती हर वर्ष प्यासी की प्यासी रह जाती है l इससे भूजल पुनर्भरण की प्राचीन संस्कृति को अघात पहुंचा है l देशभर में वर्षाकालीन भूजल पुनर्भरण व्यवस्था ठीक न होने के कारण गाँव और शहरों में भूजल पुनर्भरण प्रणाली संकट ग्रस्त है l भूजल, पेयजल पर संकट गहराता जा रहा है l
घर मकान, सड़क, पुल, इंडस्ट्रियों, कारखानों तथा डैमों की वृद्धि और लोगों का निरंतर पलायन होने से उपजाऊ धरती और जंगलों का असीम क्षेत्र फल निरंतर सिकुड़ता जा रहा है l सिंचाई के जल संसाधनों में चैक डैम, नहरें, कुंएं तालाब, पोखर-जोहड़ जैसे वर्षा जल के कृत्रिम जल भंडार जो प्राचीन काल से ही परंपरागत सिंचाई के माध्यम रहे हैंSa & उन्हें गाँव और शहरों में स्थानीय लोगों द्वारा वर्षा जल चक्रीय प्रणाली के अधीन सक्रिय रखा जाता था l उनसे कृत्रिम भूजल पुनर्भरण भी होता था l जनश्रुति के अनुसार जिला कांगड़ा के अकेले शहर नूरपुर में ही कभी 365 कुंएं और तालाब तथा बावड़ियाँ अलग सक्रिय हुआ करती थीं जो अब गिनती के रह गई हैं l
यह समय की विडंबना ही है कि विकास की अंधी दौड़ के अंतर्गत देश के समस्त गाँव और शहरों में जन साधारण द्वारा परंपरागत कृत्रिम जल संसाधनों का तेजी से अंत किया जा रहा है l उनकी उपयोगिता को तिलांजली दी जा रही है l उन्हें समतल करके उनके स्थान पर आलिशान मकान, भवन ही नहीं, देवालय तक बनाये जा रहे हैं और कृत्रिम भूजल पुनर्भरण की संस्कृति दिन–प्रतिदिन विलुप्त होती जा रही है l
भविष्य में वर्षा जल संग्रहण प्रणाली से लंबे समय तक भूजल पुनर्भरण की परंपरा स्थिर रखी जा सकती है जो वन्य संपदा, जलचर, थलचर, नभचर तथा समस्त जीव जन्तुओं के लिए अत्याधिक आवश्यक है भी l इसके लिए हम मात्र कृत्रिम भूजल पुनर्भरण के संसाधनों का उपयोग करके गिरते हुए भूजल स्तर को पुनः ऊपर ला सकते हैं l
किसी घर या भवन की छत से धरती पर गिरने वाले वर्षाजल को यों ही व्यर्थ में न बहने देना, उसे घर या भवन के निकट धरातल के नीचे बनाया गया गड्ढा जो 5फुट लंबा 5फुट चौड़ा और 10फुट गहरा या उपलब्ध स्थान अथवा आवश्यकता अनुसार छोटा या बड़ा हो और जिससे कृत्रिम भूजल पुनर्भरण भी सुलभ हो, में वर्षाजल एकत्रित किया जा सकता है l
गाँव व शहर की गलियों तथा सड़कों के दोनों ओर जल बहाबदार नालियों में 4 फुट लंबाई, 3 फुट चौड़ाई और 3 फुट गहराई के गड्ढे जो भूजल पुनर्भरण में समर्थ हों, आवश्यकता अनुसार कम या अधिक दूरी पर बनाये जा सकते हैं l इनसे कृत्रिम भूजल पुनर्भरण सुलभ हो सकता है l
खेतों में जिस ओर वर्षाजल का स्थाई बहाव हो, उस जल बहाव को रोकने हेतु सामने की उंचाई वाले किनारे से खेत की मिट्टी उखाड़कर, ढलान वाले किनारे पर डालकर ऊँचा किया जा सकता है और वहां पर फलदार, पशुचारा vkSj आवश्यकतानुसार जीवनोपयोगी पेड़-पौधे लगाकर भु-क्षरण भी रोका जा सकता है l इस प्रकार दूसरी ओर नव निर्मित गहराई के कारण जल अवरोध उत्पन्न होगा l वहां वर्षाजल एकत्रित होने से कृत्रिम भूजल पुनर्भरण प्रभावी हो सकता है l
खेतों के उन भागों पर जहाँ वर्षाजल एकत्रित होता हो, वहां छोटे छोटे कुएं बनाकर उनमें वर्षाजल का संग्रहण किया जा सकता है l इससे कृत्रिम भूजल पुनर्भरण में सहायता मिल सकती है l
खेतों में जिस ओर वर्षाजल का बहाव हो, से भू-क्षरण रोकने के लिए जल बहाव वाले स्थान पर आवश्यकता अनुसार छोटे-छोटे कुएं बनाये जा सकते हैं l इनसे वर्षाजल के बहाव को रोकने में सहायता मिलेगी और उनमें संग्रहित जल से भूजल पुनर्भरण भी होगा l
चैक डैम का निर्माण कार्य ऐसे स्थान पर किया जाना उचित है जहाँ आवश्यकता अनुसार जल संचयन हो सके l उससे उपजाऊ धरती सुरक्षित रहे और संचित जल से स्थानीय फसल की आवश्यकता अनुसार जल सिंचाई भी की जा सके l यह छोटे छोटे चैक डैम सदाबहार नालों पर बनाये जा सकते हैं l इनसे बिजली पैदा करके स्थानीय बिजली की आपूर्ति करने के साथ-साथ वहां पनचक्कियां भी लगाकर उनसे आटा पिसाई की जा सकती है l इससे भविष्य में बड़े-बड़े डैमों पर हमारी निर्भरता कम होगी l एक दिन हमें इनकी आवश्यकता भी नहीं रहेगी l बरसात के दिनों में डैमों से नियंत्रित जल छोड़ने से नदियों में भयानक बाढ़ आने का भय/संकट उत्पन्न नहीं होगा और उससे हर हर वर्ष होने वाली जान-माल की तबाही भी नहीं होगी l
प्रायः देखा गया है कि नहरों के दोनों किनारे समतल होने के कारण उनका सारा जल निश्चित क्षेत्र तक तो पहुँच जाता है पर मार्ग में पड़ने वाले समस्त क्षेत्र नहरों में जल होते हुए भी प्यासे रह जाते हैं l नहरों का निर्माण करते समय उनके दोनों किनारों की दीवारों में कुछ दूरी का अंतर रखकर जल रिसाव के लिए खाली स्थान रखा जा सकता है l इससे भूजल पुनर्भरण में सहायता मिलेगी और भूजल स्तर को गिरने से भी बचाया जा सकता है l
देशभर में भूजल पुनर्भरण को प्रभावी बनाने हेतु गाँव व शहरी स्तर पर आवश्यकता अनुसार गहरे, तल के कच्चे जोहड़-पोखर और तालाबों का अधिक से अधिक नव निर्माण और पुराने जल स्रोतों का सुधार भी किया जाना अति आवश्यक है l उनमें वर्षाजल भराव के लिए, उन्हें कच्चे तल वाली छोटी नहरों अथवा नालियों द्वारा आपस में जोड़कर सदैव जल आवक-जावक प्रणाली अपनाई जा सकती है l इस माध्यम से वर्षा जल का कृत्रिम जल भंडारों में जल संचयन और उनसे भू-जल पुनर्भरण होना निश्चित है l नदियों की बहती जलधारा सबको प्रिय लगती है l उन्हें स्थाई रूप से कभी अवरुद्ध नहीं करना चाहिए l नदियों का सदा निरंतर बहते रहना अति आवश्यक है l वह सबकी जीवन दायनी है l
देशभर में एक व्यापक राष्ट्रीय कृत्रिम भूजल पुनर्भरण नीति होनी चाहिए जिसके अंतर्गत स्थानीय जन साधारण से लेकर उनसे संबंधित विभिन्न सरकारी व गैर सरकारी तथा धार्मिक संस्थाओं, संगठनों और नियासों को एक राष्ट्रीय अभियान बनाकर कार्य करना चाहिए l इससे देश में हरित, श्वेत और जल क्रान्ति लाने में सहायता मिलेगी l
जल संग्रहण किया जाना उस एटीएम के समान है जिसमें पहले धनराशि डालना अति आवश्यक है l अगर हम एटीएम से बार-बार मात्र पैसे निकलते जायेंगे, उसमें कभी धनराशि डालेंगे नहीं तो----? तो वह एक दिन खाली भी हो जायेगा l उससे हमें कुछ भी नहीं मिलेंगा l इसलिए भविष्य में भूजल दोहन करने हेतु हम सबको आज ही से भूजल पुनर्भरण के प्रति अधिक से अधिक सजग रहना चाहिए l हमें कृत्रिम भूजल भंडारों में जल संचयन और उनसे भूजल पुनर्भरण संबंधी निश्चित हर कार्य प्राथमिकता के आधार पर वर्षाकाल आरंभ होने से पूर्व समयबद्ध पूरा कर लेना चाहिए l

चेतन कौशल "नूरपुरी
"

जन मानस विरोधी कदम

Author Image
आलेख - सामाजिक चेतना मातृवन्दना नवंबर 2007 

जून 2007 अंक में पृष्ठ संख्या 8 आवरण आलेखानुसार “कुछ वर्ष पूर्व “नासा” द्वारा उपग्रह के माध्यम से प्राप्त चित्रों और सामग्रियों से यह ज्ञात हुआ है कि श्रीलंका और श्रीरामेश्वरम के बीच 48 किलोमीटर लम्बा तथा लगभग 2 किलोमीटर चौड़ा सेतु पानी में डूबा हुआ है और यह रेत तथा पत्थर का मानव निर्मित सेतु है l भगवान श्रीराम द्वारा निर्मित इस प्राचीनतम सेतु का जलयान मार्ग हेतु भारत और श्रीलंका के बीच अवरोध मानकर “सेतु समुद्रम-शिपिंग-केनल प्रोजेक्ट” को भारत सरकार ने 2500 करोड़ रूपये के अनुबंध पर तोड़ने की जिम्मेदारी सौंपी है” यह भारतीय संस्कृति की धरोहर पर होने वाला सीधा कुठाराघात ही तो है जिसे जनांदोलन द्वारा तत्काल नियंत्रित किया जाना अनिवार्य है l
जुलाई 2007 मातृवन्दना अंक के पृष्ठ संख्या 11 धरोहर आलेख “वैज्ञानिक तर्क” के अनुसार “धनुषकोटि” के समीप जलयान मार्ग के लिए वैकल्पिक मार्ग उपलब्ध हो सकता है l” इस सुझाव पर विचार किया जा सकता है परन्तु इसकी अनदेखी की जा रही है l एक तरफ भारत की विदेश नीति पड़ोसी राष्ट्र पाकिस्तान, चीन, बंगलादेश, भूटान आदि के साथ आपसी संबंध सुधारने की रही है l उन्हें सड़कों के माध्यम द्वारा आपस में जोड़कर उनमें आपसी दूरियां मिटाई जा रही हैं तो दूसरी ओर भगवान श्रीराम द्वारा निर्मित इस प्राचीनतम सेतु को तोड़ा जा रहा है l इसे वर्तमान सरकार का जन भावना विरोधी उठाया गया कदम कहा जाये तो अतिश्योक्ति नहीं होगी क्योंकि इसके साथ देश-विदेश के असंख्य श्रद्धालुओं की अपार धार्मिक आस्थाएं जुड़ी हुई हैं l इससे उन्हें आघात पहुँच रहा है l
कितना अच्छा होता ! अगर श्रीराम युग की इस बहुमूल्य धरोहर रामसेतु का एक वार जीर्णोद्वार अवश्य हो जाता l उसे नया स्वरूप प्रदान किया जाता l इसके लिए श्रीलंका और भारत सरकार मिलकर प्रयास कर सकती हैं l दोनों देशों के संबंध और अधिक प्रगाढ़ और मधुर हो सकते हैं l इस भारतीय सांस्कृतिक धरोहर की किसी भी मूल्य पर रक्षा अवश्य की जानी चाहिए l


चेतन कौशल “नूरपुरी”

लोक विकास – समस्या और समाधान

Author Image
आलेख - राष्ट्रीय भावना असहाय समाज वर्ग जनवरी जून 1996 

इस सृष्टि की संरचना कब हुई ? कहना कठिन है l सृष्टि के रचयिता ने जहाँ प्रत्येक प्राणी को जीवित रहने के लिए आहार की व्यवस्था की है, वहां मनुष्य के जीवन से संबंधित हर पक्ष के साथ एक विपरीत पहलू भी जोड़ा है l जहाँ सुख है, वहां दुःख भी है l रात है तो दिन भी है l इसी प्रकार सृष्टि में उत्थान और पतन की अपनी-अपनी कार्य शैलियाँ हैं l उत्थान की सीढ़ी चढ़कर मनुष्य आकाश की ऊँचाइयां छूने लगता तो पतन की ढलान से फिसलकर वह इतना नीचे भी गिर जाता है कि एक दिन उसे अपने आप से लज्जा आने लगती है l मनुष्य विवेकशील, धैर्यवान और प्रयत्नशील प्राणी होने के कारण अपना प्रयत्न जारी रखता है l वह गिरता अवश्य है परन्तु कड़ी मेहनत करके वह पुनः पूर्वत स्थान की प्राप्ति भी कर लेता है l कई बार वह उससे भी आगे निकल जाता है l यह उसकी अपनी लग्न और मेहनत पर निर्भर करता है l विकास प्रायः दो प्रकार के होते हैं – अध्यात्मिक तथा भौतिकी l जब वेद पथ प्रेमी साधक आंतरिक विकास करता है तो सत्य ही का विकास होता है – वह विकास जिसका कभी नाश नहीं होता है l शरीर नष्ट हो जाता है परन्तु आत्मा मरती नहीं है l अभ्यास और वैराग्य को आधार मानकर निरंतर साधना करके, साधक मायावी संसारिक बन्धनों से मुक्त अवश्य हो जाता है l

साधक भली प्रकार जानता है कि देहांत के पश्चात् उसके द्वारा संग्रहित भौतिक सम्पदा का तो धीरे-धीरे परिवर्तन होने वाला है परन्तु अपरिवर्तनशील आत्मा अपनी अमरता के कारण, अपना पूर्वत अस्तित्व बनाये रखती है l नश्वर शरीर क्षणिक मात्र है जबकि आत्मा अनश्वर, अपरिवर्तनशील और चिरस्थाई है l

जीवन यापन करने के लिए भौतिक विकास तो जरुरी है पर मानसिक प्रगति उस जीवन को आनंदमयी बनाने के लिए कहीं उससे भी ज्यादा जरुरी है l घर में सर्व सुख-सुविधाएँ विद्यमान हों पर मन अशांत हो तो वह भौतिक सुख-सुविधाएँ किस काम की ? मानसिक अप्रसन्नता के कारण ही संसार अशांति का घर दिखता है l  

भौतिक विकास में साधक जन, धन, जीव-जन्तु, बल, बुद्धि, विद्या, अन्न, पेड़-पौधे, जंगल, मकान, कल-कारखाने और मिल आदि की संरचना, उत्पादन और उनको वृद्धि करते हैं जो पूर्णतया नश्वर हैं l इनकी उत्पति धरती से होती है l धरती से उत्पन्न और धरती पर विद्यमान कोई भी वस्तु स्थिर नहीं है, परिवर्तनशील है l जो स्थिर नहीं है, वह सत्य कहाँ ? अस्थिर या असत्य वस्तु को साधक अपना कैसे कह सकता है ? उसका तो अपना वही है जो सत्य है, स्थिर है, अपरिवर्तनशील है, अमर है और कभी मिटता नहीं है l वह तो मात्र आत्मा है

सृष्टि में भौतिक विकास, मानसिक कामनाओं की देन है l उसमें निर्मित कोई भी वस्तु, चाहे वह रसोई में प्रयोग करने वाली हो या शयन कक्ष की, कार्यालय-कर्मशाला की हो या खेल-मैदान की, धरती-जल की हो या खुले आकाश की – वह मात्र मनुष्य की विभिन्न भावनाओं, विचारों, और व्यवहारिक मानसिक प्रवृत्तियों की उपज है l जन साधारण लोग उनकी ओर आकर्षित होते हैं l वे उन्हें पाकर अति प्रसन्न होते हैं l साधकों को यह शक्ति, विकास की ओर उन्मुख मानसिक प्रवृत्ति से प्राप्त होती है l

भोजन से शरीर, भक्ति-प्रेम से मन, स्वाध्यय से बुद्धि और भजन से आत्मा को बल मिलता है l इससे पराक्रम, वीर्य, विवेक और तेज वर्धन होने के साथ-साथ साधक की आयु लम्बी तो होती है पर साथ ही साथ उसके लिए लोक-परलोक का मार्ग भी प्रशस्त होता है l “जैसा खावे अन्न, वैसा होवे मन” कहावत इस कार्य को पूरा करती है l इस प्रकार विचारानुसार कर्म, कर्मानुसार निकलने वाला अच्छा – बुरा परिणाम या फल साधक की मानसिक प्रवृत्ति पर निर्भर करता है l वह जैसा चाहता और करता है – बन जाता है l  

जिस प्राणी ने मनुष्य जीवन पाया है, उसे जीवन लक्ष्य पाने के लिए प्रयत्नशील व्यक्ति को पुरुषार्थी अवश्य बनना चाहिए l उसे जीवन का विकास, साधना, मेहनत और प्रयत्न करना चाहिए l बिना पुरुषार्थ के सृष्टि में रहकर उससे कुछ भी प्राप्त कर पाना असंभव है l उसमें सभी पदार्थ हैं पर वे मात्र पुरुषार्थी के लिए, पुरुषार्थ से उत्पन्न किये जाने वाले हैं l जो जिज्ञासु पुरुषार्थ करता है, उन्हें प्राप्त कर लेता है l  

ऐसा कोई भी जिज्ञासु तब तक किसी आत्म स्वीकृत कला के प्रति समर्पित एक सफल पुरुषार्थी नहीं बन सकता, जब तक वह प्राकृतिक गुण, संस्कारानुसार दृढ़ निश्चय करके कार्य आरम्भ नहीं कर देता l पुरुषार्थी को जीवन लक्ष्य की प्राप्ति के लिए समर्पित होना अति आवश्यक है l वह जीवनोपयोगी कलाओं में से किसी को भी अपनी सामर्थ्या एवम् रुचि अनुसार चुन सकता है – भले ही वह धार्मिक हो या राजनैतिक, आर्थिक हो या शैक्षणिक, पारिवारिक हो या सामाजिक – बिना सामर्थ्या एवम् अभिरुचि के, जीवन में सफल हो पाना असम्भव है l देखने में आया है कि प्रायः पुरुषार्थी का मन उसके द्वारा किये जाने वाले कार्यों में नहीं लगता है जो उससे करवाए या किये जाते हैं l उसका ध्यान अन्य कार्यों की ओर आकृष्ट रहता है जिनमें उसकी अभिरुचि होती है l इसके पीछे उसकी आर्थिक विषमता, प्रतिकूल परिस्थितियाँ, प्रोत्साहन का आभाव और उसे समय पर उचित मार्गदर्शन न मिल पाना – विवशता होती है l इस कारण अनचाहे उसका मन अशांत, परेशान और अप्रसन्न रहता है l 

आवश्यकता है – किसी भी कलामंच या कार्यक्षेत्र के किसी कलाकार या श्रमिक को कभी मानसिक पीड़ा ना हो l अतः उससे उसकी इच्छानुसार, मनचाह कार्य लिया जाना सर्वश्रेष्ठ है l भले ही उस कला साधना अथवा कार्य से संबंधित प्रशासन द्वारा उसका कार्यक्षेत्र ही क्यों न बदली करना पड़े l ऐसा कलाकार जो अपने श्रम के प्रति समर्पित न हो, उसमे उसकी लग्न न हो, तो क्या कभी दर्शक उसे एक अच्छा कलाकार या श्रमिक कहेंगे ? क्या वह अपनी कला अथवा श्रम में सफल हो पाएगा ? क्या दर्शक उसके प्रशसंक बन पाएंगे ?

ऐसे कलाकारों या श्रमिकों से विकास का क्या अर्थ जो स्वयं ही को संतुष्ट नहीं कर सकते – समाज या राष्ट्र को संतुष्ट कौन करेगा ? कहने का तात्पर्य यह है कि वह न तो किया जाने वाला कार्य भली प्रकार कर सकते हैं और न ही उस कार्य को जिसे वह करना ही चाहते हैं l वह अपने जीवन में कुछ तो कर दिखाना चाहते हैं पर कर नहीं पाते हैं l इस प्रकार समाज ऐसे होनहार कलाकारों और श्रमिकों के नाम से वंचित और अपरिचित भी रह जाता है जिन्होंने उसे गौरवान्वित करना होता है l साधक के पास उसे जन्म से प्राप्त कोई भी प्राकृतिक अभिरुचि – प्रतिभा जो उसके गुण, संस्कार और स्वभाव से युक्त होती है – जीवन साध्य उद्देश्य को प्राप्त करने में पूर्ण सक्षम, समर्थ होती है l उसे सफलता के अंतिम बिंदु तक पंहुचाने के लिए उपयोगी और उचित संसाधनों का होना अति आवश्यक है l

कला-क्षेत्र में, कला-सम्राटों के सम्राट संगीत-सम्राट तानसेन जैसे साधक कलाकार, कला-साधना की सेवा के लिए अपने तन, मन, धन और प्राणों से समर्पित होते हैं l वह स्वयं अपनी कला-साधना को न तो किसी बाजार की वस्तु बनाते हैं और न ही बनने देते हैं l उनकी कला में स्वतः ही आकर्षण होता है l वे अपनी लग्न और कड़ी मेहनत से कला का विकास करते हैं l वे भली प्रकार जानते हैं कि विश्व में मात्र उनकी अपनी क्षेत्रीय कला विद्या, संस्कृति सभ्यता और साहित्य से राष्ट्र, क्षेत्र, गाँव, समाज, परिवार और उनकी अपनी भी पहचान होती है l तरुण साधक कला साधना में मग्न रहकर, उसकी गरिमा बनाये रखते हैं वह कला का प्रदर्शन करने से पूर्व, उसे समाज की पसंद नहीं बनाते हैं और न ही उसकी मांग की चिंता करते हैं अपितु वह साधना से समस्त समाज को अपनी कला की ओर आकर्षित करते हैं l समाज स्वयं ही उनकी कला का प्रेमी, प्रशंसक, सहयोगी और अनुयायी बनता है l इससे विकास की गाड़ी निश्चित मंजिल की ओर बढ़ती जाती है l

चेतन कौशल “नूरपुरी”

D नींद त्यागो – राष्ट्र संभालो

Author Image
आलेख – राष्ट्रीय भावना दैनिक कश्मीर टाइम्स 29.6.1996 और 6.9.1996

किसी भी राष्ट्र की पहचान उसकी अपनी सभ्यता और संस्कृति पर निर्भर करती है l कोई भी देशवासी विदेश में उसके अपने ही राष्ट्र की राष्ट्रीयता, भाषा, पहनावा, रहन-सहन, खाना, आचार- व्यवहार और स्वदेशी भावना से जाना तथा पहचाना जाता है l इसलिए राष्ट्र और उसकी राष्ट्रीयता से संबंधित स्थानीय सभ्यता–संस्कृति का महत्व स्वाभाविक ही बढ़ जाता है l किसी राष्ट्र की सभ्यता– संस्कृति उसके उच्च गुण-संस्कारों के ही कारण महान होती है l इसी आधार पर भारत विश्व भर में सोने की चिड़िया के नाम से विख्यात हुआ था l

विदेशी आक्रान्ता जिनमें तुर्क, हुण, डच, मंगोल, यूनानी, फ़्रांसिसी, पुर्तगाली, मुगल और अंग्रेज प्रमुख थे, भारत में अपने-अपने निश्चित प्रयोजन सिद्ध करने हेतु आये l उन्होंने भारत की सुख-समृद्धि को नष्ट तो किया ही, साथ हो साथ भारतीय सभ्यता-संस्कृति पर अपनी सभ्यता-संस्कृति की छाप भी लगा दी l
इसमें कोई भी संदेह नहीं है कि भारत में स्थानीय भाषा, पहनावा, रहन-सहन, योग साधना, खाना, आचार-व्यवहार जो सब वहां के वातावरण, जलवायु, प्रकृति और परंपरा पर आधारित थे, उनका अब अपना वास्तविक स्वरूप शेष बहुत कम रह गया है l वह बड़ी तेजी से साहित्य की मात्र वस्तु बनती जा रही है l
इस अभूतपूर्व परिवर्तन में आक्रान्ताओं के आतंक का भले ही बड़ा हाथ रहा हो पर उनके साथ-साथ उस समय से संबंधित देश के गद्दारों, भाड़े के विदेशी सैनिकों और सत्ता के महत्वाकांक्षी लोगों का भी कम योगदान नहीं है l स्वदेश में विदेशी आक्रान्ताओं का प्रवेश उन्हीं लोगों के माथे पर लगा कलंक है जो उस समय की विदेशी कूटनीति छल-कपट की चालों से अनभिज्ञ रहे और लालच का शिकार हुए थे l उन्होंने तो सब्जबाग ही देखे थे l इसी कारण वे निरंतर अपनों के हाथों अपने ही प्रिय बंधुओं को मौत के घाट उतारते रहे l


इस प्रकार जो व्यक्ति अपनों का प्रिय न हो सका, प्रिय न कर सका, गैर का क्या करेगा ! बात को आक्रान्ता लोग उदाहरण सहित पगपग पर परखते और सिद्ध भी करते करते थे l जब उनका स्वार्थ सिद्ध हो जाता था तो इनाम में वे उन्हें देते थे, मौत l इससे पूर्व कि उन्हें अपनी गलती का अहसास हो सके, वे अपने सामने साक्षात् मृत्यु देख उनसे अपने शेष जीवन का जीवनदान पाने की याचना भी करते थे, पर तब तक समय हाथ से निकल चुका होता था l अपार धन, सैन्य शक्ति होते हुए भी देश के महान नायक, खलनायक अपने अहंकार वश झूठे यश-मान की लालसा रखने पर स्वयं ही मिट्टी में मिलते चले गये l यह प्रवृत्ति हम में आज भी जारी है l जो कार्य हमारे पूर्वज नहीं कर पाए उन्हें अब हम पूरा कर रहे हैं l हम अपने ही हाथों अपना चेहरा बिगाड़ रहे हैं l


आज हमारा राष्ट्र भले ही स्वतंत्र है l हम स्वतंत्र देशवासी हैं फिर भी विदेशी सभ्यता-संस्कृति हमारे जनमानस पर पूर्ण रूप से प्रभावी है l हम स्वाधीन होकर भी पराधीन हैं l क्या आज विश्व में हमारी अपनी कोई पहचान है ? क्या हमारी सभ्यता-संस्कृति विदेशी सभ्यता-संस्कृति के प्रभाव से प्रभावित नहीं है ? क्या हमारा समाज विभिन्न सभ्यता-संस्कृतियों के नाम पर अल्प संख्यकों, बहुसंख्यकों में विभक्त नहीं हो रहा है ? आज हम अपने ही घर में भयभीत हैं, हम भारतीय होने, भारतीय कहलाने से डरते हैं l हम अपनी सभ्यता-संस्कृति का स्वयं उपहास उड़ाते हैं l उसे भुलाते जा रहे हैं l दूसरों की सभ्यता-संस्कृति का अन्धानुकरण करते हुए हम गर्व अनुभव करते हैं l फिर भी हमारे राष्ट्र का नाम आज भी बड़े मान-सम्मान से लिया जाता है, कारण उसकी प्राचीन प्रतिष्ठित विश्व कल्याणी भावना l उसके द्वारा सबका कल्याण चाहना l प्राचीन भारतीय सभ्यता-संस्कृतिकी उच्च प्रकाष्ठा, सबका सम्मान करना l सबके प्रति प्रेमभाव रखना l “स्वयं जियो और दूसरों को जीने दो, को व्यवहार में लाना l


परन्तु आज की भौतिकवादी अंधी दौड़ में यह सब चौपट हो गया है l हम सब अध्यात्मिक विकास की उपेक्षा करके मात्र संसारिक उन्नति के पीछे हाथ धोकर पड़ गये हैं l हम यह भी भली प्रकार जानते हैं कि अध्यात्मिक सुख दीर्घकाल तक जीवित रहता है, जबकि भौतिक सुख क्षणिक मात्र ही होता है l फिर भी हमारे मन के विकारों ने हमें अपना दास बना लिया है l हमारे जीवन का प्रत्येक पल मानव जीवन के यथार्थ ज्ञान को भूलता जा रहा है l जीवन की वास्तविकता हमारे लिए पहेली बनती जा रही है l प्राचीन भारत ने विश्व में ब्रह्मज्ञान को ही सब विद्याओं का जनक जाना और माना था l उसने हम सबको सुख और समृद्धि भी प्रदान की थी l आधुनिक काल में हमने उसकी उपयोगिता भूलकर उसे अपने दैनिक जीवन से भी अलग कर दिया है l क्या हमारा समाज इतना उन्नत हो गया है कि हमें अब ब्रह्मज्ञान की तनिक भी आवश्यकता नहीं रही है l हमने ऐसा कौन सा गूढ़ रहस्य प्राप्त कर लिया है कि जिससे हमें ब्रह्मज्ञान भी नीरस लगने लगा है ? क्या ब्रह्मज्ञान त्यागने के लिए हमें किसीने बाध्य किया है ? क्या आधुनिक शिक्षा-प्रणाली इसके लिए उत्तरदायी है ?


मानव जीवन अमूल्य है l उसकी उपयोगिता, आवश्यकता प्रकृति और परंपरा का ध्यान रखकर भारतीय आचार्यों ने अध्यात्मिक शिक्षा को हमारे समाज की मूल आवश्यकता माना था l उन्होंने उसे काल, पात्र और समय के अनुकूल बनाया था l आचार्यों द्वारा शिक्षा पात्र को भली प्रकार जाँच-परख और पहचानकर ही दी जाती थी l यह हमारे आचार्यों की दूरदर्शिता नहीं तो और क्या है ? इससे इसी लोक का नहीं परलोक का भी कल्याण हुआ है l राष्ट्र सोने की चिड़िया के नाम से विश्वभर में जाना और पहचाना गया है l
और शायद इसीलिए विदेशी आक्रान्ताओं को विकसित भारत अच्छा नहीं लगा l उन्ही के शब्दों में – “यदि राष्ट्र भारत को नष्ट करना है तो पहले उसके ज्ञान को नष्ट करो l देश को मार्गदर्शन मिलना बंद हो जायेगा l वह एक दिन अवश्य ही पराधीन होगा l” आक्रान्ताओं ने सर्व प्रथम देश की नालंदा, तक्षशिला, पल्लवी, विक्रमशिला और उन जैसे छोटे-बड़े असंख्य विद्यालय, विश्व विद्यालय अपनी घुसपैठ का निशाना बनाये l उन्होंने पहले उनमें विद्यमान महत्वपूर्ण साहित्य ग्रंथों को लूटा l जो समझ नहीं आया, उसे अग्नि में समर्पित कर दिया l आचार्यों को मौत के घाट उतार दिया l उनके द्वारा देश में फूट डालो, राज करो की नीति का आरंभ हुआ l भारतीय नायक, खलनायक आपस में लड़ने लगे l


आज हमारी राष्ट्रभक्ति, राष्ट्रीय भावना भ्रष्टतंत्र के अधीन है l हमें उसका कोई विकल्प भी नहीं दिखाई दे रहा l क्या राष्ट्रीय जन चेतना उसे मुक्ति दिला सकती है ? अगर हम सबका यही एक प्रश्न है तो कोई बताये कि कहाँ हैं हमारे राष्ट्र के निष्कामी, कर्मठ, समर्पित युवा, जन नायक, शिक्षक, अभिभावक, राजनेता, प्रशासक और सेवक ? कहाँ छुप गये हैं, वे सब डरकर ? क्या भयभीत हैं, वह किसी अनहोनी का आभास पाकर ? या मौत ही आतंकित कर रही है जो आएगी अवश्य एक दिन l फिर डरते हो क्यों मर जाने से ? मरना है, मरो शेर की तरह, देश के लिए l स्वागत नये युग का करने के लिए l आत्म निरीक्षण करो और जानो कि तुम स्वयं क्या नहीं कर सकते ? आप सबके हित में अपना भला चाहते हो तो आओ हम सब एक मंच पर सुसंगठित होकर विचार करें l रचनात्मक कार्य करने का प्रण लें ताकि हम सब अपनी विभिन्न स्वयंसेवी संस्थाओं द्वारा चलाई गई लोक कल्याणी योजनाओं का सर्वांगीण विकास करके उनसे पूरा-पूरा लाभ प्राप्त कर सकें l हम अपने इस पुनीत कार्य में तभी सफल हो सकते हैं जब हमारा जीवन उच्च संस्कारों से परिपूर्ण होगा l क्योंकि उच्च संस्कारों से ही उच्च व्यक्तित्व का निर्माण होता है l उससे जीवन के प्रत्येक कार्यक्षेत्र में विजयी होने की अजयी शक्ति मिलती है, भय समाप्त होता है l अभय को तरुण ही धारण करते हैं l इसलिए तरुण ही राष्ट्र की जन चेतना, जन शक्ति और लोक शक्ति हैं l भ्रष्टाचार का भ्रम तोड़ने वाला इंद्र का वज्र भी वही हैं l अपने देश की सभ्यता-संस्कृति के उद्दारक तरुण ही तो हैं l


आज देश को चरित्रवान नव युवाओं की परमावश्यकता है l जिससे वे प्रत्येक परिवार, गाँव, तहसील, जिला, राज्य और राष्ट्र का विकास तथा नवयुग का निर्माण करने के लिए लोक-शक्ति बन सकें l जन चेतना से जन्य लोकशक्ति ही नव युवाओं में सर्वांगीण शक्तियों का विकास कर सकती है l उन्हें जागृत करके लोक कल्याणी योजनाओं के माध्यम से जन–जन तक पहुंचा सकती है l जन साधारण लाभान्वित हो सकते हैं l भले ही यह कार्य कठिन है पर अगर युवाओं की इच्छा-शक्ति दृढ़ हो, वे अपने देश के हित प्रेम और सहयोग देने में सम्पन्न हों तो कुछ भी असंभव भी नहीं है l तरुण ही भारतीय सभ्यता-संस्कृति के रक्षक हैं l वे भारत के हैं और उन्ही के बल से भारत उनका अपना देश है l इसलिए नींद त्यागो और देखो अब भी यह भारत कितना सुंदर और शक्तिशाली है ! उसे संभालो, उसने अभी अपना विश्व स्तरीय प्राचीन भारत का खोया हुआ यश मान पुनः प्राप्त करना है l उसने फिर से अपनी प्राचीन गरिमा बनानी है l उसने अपने ज्ञानदीप से विश्व को नई रह दिखानी है l

चेतन कौशल “नूरपुरी”

धमीड़ी किला और बृजराज स्वामी जी

Author Image
आलेख – ऐतिहासिक अवलोकन मातृवंदना 2023 मार्च अप्रैल 

इब्राहीम गजनवी द्वारा ध्वस्त धमीड़ी किले में स्थित प्राचीन मंदिर के अवशेष

सन 1088 ई० की शृंखला में गजनवी ने भारत पर एक के पश्चात् एक अनेकों आक्रमण किये थे l उसने अपने आक्रमण, आतंक और लूटपाट के अंतिम अभियान में काँगड़ा मंदिर की तो अनंत संपदा को लुटा ही था l इसके साथ ही साथ धमीड़ी का प्राचीन मंदिर भी अछूता नहीं रह सका l उसने धमीड़ी के इस मन्दिर को ना केवल लुटा ही बल्कि उसे छैनियों तथा हथोड़ों से क्षतिग्रस्त भी करवाया था l


धमीड़ी किले के प्रवेश द्वार से पूर्व पहला लक्ष्मी-नारायण जी और दूसरा धर्मेश्वर महादेव जी का मंदिर दर्शनीय है l कहा जाता है कि जब धमीड़ी शहर का प्रादुर्भाव हुआ था, यह दोनों मंदिर उसी काल के विस्थापित हैं l धर्मेश्वर महादेव जी के नाम पर ही वर्तमान नूरपुर का प्राचीन नाम धमीड़ी पड़ा था l नूरपुर के लोग अब भी धर्मेश्वर महादेव जी को शहर का स्वामी मानते हैं l


इस मंदिर के बारे में एक किवदन्ती आज भी प्रचलित है – धर्मेश्वर महादेव जी के मंदिर के चारों ओर दीवारों में छोटे-छोटे झरोखे हैं l जब इस क्षेत्र में वर्षा नहीं होती थी, उस समय श्रद्धालु-भक्तों के द्वारा मंदिर से कुछ दूरी पर स्थित बड़े तलाब से पानी लाकर, मंदिर के किवाड़ बंद करके, उन छोटे-छोटे झरोखों से तब तक पानी डाला जाता था जब तक मंदिर के भीतर शिवलिंग पानी में डूब नहीं जाता था l शिवलिंग का पानी में डूब जाने के पश्चात् एक दो दिनों तक वर्षा अवश्य हो जाती थी l


किले के अंदर बृजराज स्वामी जी का मंदिर, के पास अन्य महाकाली माता जी का एक मंदिर है l स्थानीय लोगों का मानना है कि यह मंदिर उतना ही प्राचीन है जितना कि किला l माता को यहाँ के राजाओं की कुलदेवी कहा जाता है l रात के समय माता अपने क्षेत्र में दौरा करती हैं l जब वे बाहर निकलती हैं, उस समय उनके चलने और आभूषणों की खनखनाहट के स्वर किन्हीं भाग्यशाली श्रद्धालु-भक्तों को ही सुनाई देते हैं l


नूरपुर शहर में गोलू नाम का एक मिस्त्री रहता था l वह धमीड़ी के राजा जगत सिंह जी, का समकालीन था l एक बार बृजराज स्वामी मंदिर की छत जो क्षतिग्रस्त हो जाने के कारण नीचे झुक गई थी, उसे ठीक करने की जिम्मेवारी गोलू मिस्त्री की थी l उसने काले चने की आठ-दस बोरियां मंगवाई जिन्हें उसने छत के नीचे बोरी पर, बोरी रखवाकर सभी बोरियों को छत तक ऊँचा करके रखवा दिया, तद्पश्चात् उन सब बोरिओं को पानी से भिगोया गया l इससे चने फूल गए और मंदिर की छत ऊपर उठ गई l बाद में गोलू मिस्त्री ने छत ठीक कर दिया l उसी गोलू मिस्त्री के नाम पर आज नूरपुर शहर में एक गोलू मुहल्ला भी स्थित है जो सबको उसकी याद दिलाता रहता है l


भवन राज दरबार बना बृजराज स्वामी का मंदिर -
मैंने अपनी पूजनीय माता जी, से सुनी रोचक दन्त कथा जो उन्होंने मेरे नाना जी, से सुनी थी, इस प्रकार है -


“एक बार राजा जगत सिंह जी, (1619 – 46) अपने राजकीय कार्य के अंतर्गत राजस्थान के चितौड़ – उदयपुर गए थे l वहां के राजा ने पुरे राजकीय सम्मान के साथ उन्हें विश्राम करने के लिए अपने राज अतिथि गृह में, विश्राम कक्ष की व्यवस्था करवा दी l जिस कमरे में वे रात विश्राम कर रहे थे, अचानक उसके साथ ही वाले कमरे से उनके कानों में घुंघरुओं के स्वर के साथ-साथ किसी महिला के नाचने और भजन गाने की मधुर आवाज सुनाई दी l राजा को जिज्ञासा हुई, क्यों न एक बार उठकर साथ वाले कमरे में देख लिया जाये ? जब उन्होंने उठकर कमरे में देखा तो बस वे देखते ही रह गये l वे देखते हैं कि वह नाचने और गाने वाली कोई और नहीं, मीराबाई जी, श्रीकृष्ण जी के प्रेम में मग्न थी, गा रही थी l राजा जगत सिंह जी, कभी अपने कमरे में जाकर सोने का असफल प्रयत्न करते तो कभी उसे देखने का l इस तरह सुबह कब हो गई ! उन्हें कुछ पता नहीं चला l राजा जगत सिंह जी, ने सुबह देखा कि साथ वाले कमरे में जहाँ से उन्हें स्वर सुनाई दे रहा था, वहां एक मंदिर है और उस मंदिर में श्रीकृष्ण जी तथा मीराबाई जी की दो मूर्तियाँ विराजित हैं l कहा जाता है यह वही श्रीकृष्ण जी की मूर्ति है जिसकी मीराबाई जी पूजा किया करती थी और उसमें सशरीर समा गई थी l


धमीड़ी की वापसी के समय राजा जगत सिंह जी से रहा नहीं गया l उन्होंने अपने पुरोहित के माध्यम से अपने मन की बात साहस सहित, वहां के राजा के समक्ष रख दी जिसे उन्होंने सहर्ष स्वीकार कर लिया l राजा ने उन्हें भेंट स्वरूप वे दो मूर्तियाँ ही नहीं से दीं बल्कि उनके साथ एक मौलसरी का पौधा भी दिया जिसे लेकर राजा जगत सिंह जी धमीड़ी आ गए l


राजा जगत सिंह जी, का राजस्थान से धमीड़ी में आगमन हुए अभी कुछ ही समय हुआ था कि दिल्ली के मुग़ल सम्राट ने धमीड़ी पर आक्रमण करने हेतु सेना की एक टुकड़ी को किसी विशेष सेना नायक के नेतृत्व में भेज दिया l


माता जी ने आगे कहा – “वह भवन जो अब बृजराज स्वामी मंदिर है, पहले राजा जगत सिंह जी, का राज दरवार था और उन्होंने उसकी पहली मंजिल पर जहाँ अब श्रीकृष्ण जी तथा मीराबाई जी की मूर्तियाँ स्थापित हैं, वहां स्वयं बैठने की लिए राज सिंहासन स्थापित किया हुआ था l”


दूर से आई हुई थकी मुग़ल सेना धमीड़ी राज्य से कुछ कोस दूरी पर रात को विश्राम कर रही थी l रात में राजा जगत सिंह जी, को श्रीकृष्ण जी सपने में आये और उन्होंने उनसे कहा –


“मुग़ल सेना धमीड़ी राज्य पर आक्रमण करने वाली है l वह कृष्ण व मीरा की मूर्तियाँ खंडित कर दे कि उससे पूर्व तू उन दोनों को पास में बहने वाली जब्बर खड्ड में बनी अस्थाई झील में डुबो दे ताकि वह वहां सुरक्षित रह सकें l विजयी होने के पश्चात् तू उन्हें वहां से बाहर निकलवा लेना l”


युद्ध शुरू हुआ l मुग़ल सेना की एक टुकड़ी ने नूरपुर शहर पर भी आक्रमण किया तब प्रत्यक्ष दर्शियों ने देखा किले से दो सफेद घोड़ों पर दो घुड़सवार अपने हाथों में तलवारें लिए हुए निकले देखते ही देखते वे असंख्य घुड़सवारों में परिवर्तित हो गये l मुग़ल सेना को इसकी आशा नहीं थी l अपर सेना देख मुग़ल सेना की टुकड़ी के पांव उखड़ गए और वह वापिस भाग गई l युद्ध के मैदान में भी राजा की जीत हुई l राजा ने सुबह राज दरवार लगाना था कि उस रात को फिर एक बार श्रीकृष्ण जी, उन्हें सपने में आये और उन्होंने उनसे कहा –


“तू आज अपनी जीत पर इतना प्रसन्न है कि मुझे भी भूल गया l मीरा और कृष्ण की प्रतिमाओं को कौन लायेगा, जिन्हें तूने पानी में डुबो रखा है ?”


इतना सुनते ही राजा की तत्काल आँख खुल गई और इसके पश्चात् फिर उन्हें पलभर भी नींद नहीं आई l वह बड़ी व्याकुलता से भोर होने की प्रतीक्षा करने लगे l सुबह होते ही उन्होंने राज पुरोहितों को अपने पास बुलावा भेजा और उनके आने पर राजा ने उन्हें श्रीकृष्ण जी की सपने वाली सारी बात कह सुनाई l निर्णय हुआ, दोनों मूर्तियों को वापिस महल में लाया जाये l तब स्नान आदि से निवृत होकर राजा जगत सिंह जी, ने प्रजा जनों के साथ जब्बर खड्ड की ओर चलने और अस्थाई झील में से मीरा और कृष्ण की प्रतिमाओं को राज महल में लाने का आदेश दिया l


प्रतिमाओं को जब्बर खड्ड की झील से निकलवा कर पालकी में रखा गया l कहारों ने पालकी उठाई और वे राज महल की ओर चल दिए l वे अभी बड़ी मुश्किल से दस ही पग चल पाए होंगे कि अचानक उन्होंने पालकी नीचे धरती पर रख दी l तब राजा ने कहारों से पूछा –


“क्या हुआ, पालकी नीचे क्यों रख दी है ? आप आगे क्यों नहीं चल रहे ?


“ पता नहीं, पालकी अचानक भारी कैसे हो गई ? इसे उठाकर हमसे नहीं चला जा रहा l” कहारों ने कहा l


तब राज पुरोहितों सहित सभी उपस्थित जनों ने एक दूसरे का निरीक्षण करने के साथ-साथ आत्म निरीक्षण भी किया और पाया कि सभी लोग नंगे पांव चल रहे हैं, मात्र एक राजा ही ही हैं जो जूते पहने हुए थे l तब राज पुरोहित ने उनसे जूते उतारने का आग्रह किया l उनके द्वारा जूते उतारने के तुरंत पश्चात् पालकी पूर्वत भारहीन हो गई l


बृजराज स्वामी मंदिर में विराजित श्रीकृष्ण जी और मीराबाई जी की मूर्तियाँ l

राज महल में पहुँचने के पश्चात् राजा ने अपने राज सिंहासन को उसके स्थान से हटवा दिया और वहां पर श्रीकृष्ण जी तथा मीराबाई जी की मूर्तियां स्थापित करवा दी l इसके साथ ही राजा ने अपने राज दरवार को ठाकुर द्वारा भी घोषित कर दिया l


बृजराज स्वामी मंदिर के प्रांगन में लहलहाता मौलसरी का पेड़

इतना ही नहीं राजस्थान के चितौड़ – उदयपुर से श्रीकृष्ण जी तथा मीराबाई जी की मूर्तियों संग लाये हुए उस मौलसरी के पौधे को भी राजा ने मंदिर के ठीक सामने प्रांगण में लगवा दिया जो अब भी एक विशाल वृक्ष है l उन्होंने भवन के निम्न भाग की दीवारों पर श्रीकृष्ण जी की लीलाओं से संबंधित अनेकों रंगीन मनमोहक भीती चित्र भी बनवाए थे l यह प्रतिष्ठित भवन अब बृजराज स्वामी मंदिर के नाम से जाना जाता है l


माता जी आगे कहती हैं – सन 1905 ई० की बात है, तब एक बहुत बड़ा भूकंप आया था l उस भूकंप में काँगड़ा शहर में जान-मॉल की बहुत अधिक हानि हुई थी लेकिन नूरपुर शहर में किसी मकान या प्राणी को कोई खरोंच तक नहीं आई थी l हाँ बृजराज स्वामी मंदिर की पिछली दीवार में y आकार की एक मात्र दरार आई थी जिसे बाद में ठीक कर दिया गया था, वह निशान अब भी दिखाई देता है l


माता जी आगे कहती हैं – “गर्मियों का मौसम था l एक रात मंदिर का पुजारी दर्शन और एक गद्दी मंदिर की धरातल पर बातें करते-करते कब सो गए, उन्हें कुछ पता ना चला l इस बार सुबह पुजारी को उठने में कुछ देरी हो गई लेकिन गद्दी जाग चुका था l इतने में गद्दी को ऊपर वाली पहली मंजिल पर किसी व्यक्ति के खडाऊं पहने चलने का स्वर सुनाई दिया जो उनकी ओर ही बढ़ा चले आ रहा था l वह अनजाना आ ही नहीं रहा था बल्कि “हरि ओम तत्सत” मन्त्र का भी निरंतर उच्चारण कर रहा था l अब वह छत की सीढ़ियाँ उतर रहा था और उसकू खडाऊं की आवाज आ रही थी l गद्दी देखता है – स्वयं श्रीकृष्ण जी एक हाथ में लोटा, दुसरे हाथ में दातुन और कंधे पर गमछा डाले हुए नीचे चले आ रहे हैं l इसके साथ ही साथ गद्दी के तन पर एक अनजाना सा भार बढ़ने लगा l वह निरंतर बढ़ता जा रहा था और गद्दी चाहकर भी उठना तो दूर, तनिक हिल भी नहीं पा रहा था l श्रीकृष्ण जी उसके पास आकर मंदिर से दूर सामने बने कमरे की ओर जा रहे थे l जैसे जैसे वे उससे दूर होते गए, उसके साथ ही साथ उस पर वह अनजान भार भी हल्का होता चला गया l श्रीकृष्ण जी ने कमरे की कुण्डी खोली और उसके भीतर चले गये l तब तक गद्दी पूरी तरह से भारहीन हो चूका था और उसके मुंह से निकला –


“दर्शन ! उठ, आज श्रीकृष्ण जी स्वयं स्नान करने निकलें हैं, तू सोया रह l”
पुजारी हड़बड़ाता हुआ उठा –


“हरि ओम, हरि ओम, क्या कह रहे हो ?” उसके मुंह से निकला l
“हाँ-हाँ, मैं ठीक कह रहा हूँ, जो तूने सुना l तेरे ठाकुर जी स्वयं स्नान करने हेतु अभी-अभी सामने वाले कमरे में गए हैं l” गद्दी ने कहा और तब उन दोनों ने सय्या त्याग दी l

चेतन कौशल “नूरपुरी”

1 2 3 4 31