मानवता सेवा की गतिविधियाँ

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सर्वोत्तम वरदान

अनमोल वचन :-# अच्छा स्वास्थ्य एवंम अच्छी समझ जीवन में दो सर्वोत्तम वरदान है l *
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दिल प्रीतम का घर है

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महात्मा गांधी जी का कथन है कि जिस तरह हमें अपना शरीर कायम रखने के लिए भोजन जरूरी है, आत्मा की भलाई के लिए प्रार्थना कहीं उससे भी ज्यादा जरूरी है। प्रार्थना या भजन जीभ से नहीं वरन हृदय से होता है। इसलिए गूंगे , तुतले और मूढ़ भी प्रार्थना कर सकते हैं। जीभ पर अमृत - राम नाम हो और हृदय में हलाहल - दुर्भावना तो जीभ का अमृत किस काम का?
उपरोक्त विचारों से स्पष्ट   है कि प्रार्थना या भजन हृदय से किया जाता है जिससे मनुष्य  का हृदय शुद्ध होता है। ऐसा करने के लिए उसे वाह्य संसाधनों अथवा संयत्रों की कभी आवश्यकता नहीं होती है बल्कि उसे आत्मावलोकन एवं स्वाध्य करना होता है आत्म शुद्धि करनी होती है। जिस मनुष्य के  हृदय में दुर्भावना एवं अज्ञान होता है वह समाज का न तो हित चाहता है और न कभी भलाई के कार्य ही करता है।
इसी कारण आज देश  का प्रत्येक व्यक्ति, परिवार गांव और शहर पलपल ध्वनि प्रदूषण  का शिकार हो रहा है। उसकी दिन-प्रतिदिन वृद्धि हो रही है। उससे समस्त जन जीवन बुरी तरह प्रभावित हो रहा है। ध्वनि प्रदूषण  के कारण समाज में बहरापन रोग भी बढ़ रहा है। इसका उत्तरदायी कौन है?
वर्तमान में विवाह, पार्टी, घर व दुकानों में रेडियो दूरदर्शन, टेपरिकार्डर, डैक एवं मंदिर, गुरुद्वारा मस्जिद पर टंगे बड़े-बड़े स्पीकर तथा जगराता पार्टियां बे रोक-टोक ध्वनि प्रदूषण  फैला रहे हैं।
बच्चों के पढ़ने व रोगी के आराम करने के समय पर संयत्रों के उच्च स्वर सुनाई देते हैं। उनसे मनचाहा उच्च स्वरोच्चारण होता है। शायद ऐसा करने वाले भक्तजन व विद्वान लोगों को भजन कीर्तन सुनना कम और सुनाना ज्यादा अच्छा लगता होगा। क्या उससे बच्चे पढ़ाई कर पाते है? क्या इससे किसी दुःखी, पीड़ित या रोगी को पूरा आराम मिल पाता है?
स्मरण रहे कि प्रार्थना या भजन स्पीकरों या डैक से नहीं मानसिक या धीमी आवाज में ही करना श्रेष्ठ व हितकारी है। उससे किसी को दुःख या कष्ट  नहीं होता है। इसी कारण बहुत से लोग आत्मचिंतन करते हैं तथा मानसिक नाम का जाप करते हैं। उन्हें किसी को सुनाने की आवश्यकता  नहीं होती है।
रोगी, दुखियों  को कष्ट  पहुंचाना और विद्यार्थियों की पढ़ाई में बाधा डालना इंसान का नहीं शैतान का कार्य है। अगर हम मनुष्य  हैं तो हमें मनुष्यता  धारण कर मनुष्य  के साथ मनुष्य  जैसा व्यवहार आवश्य  करना चाहिए, शैतान सा नहीं।
प्रार्थना या भजन करना हो तो हृदय से करो, वह जीवनामृत है। शैतान और अज्ञानी होकर विभिन्न संयत्रों से उच्च स्वर बढ़ाकर उसे समाज के लिए विष  मत बनाओ।
समाज में ध्वनि प्रदूषण  न फैल सके, इसके लिए प्रशासन के द्वारा ध्वनि विस्तार रोधक कानून से अंकुश  लगाया जाना आवश्यक  है। हम सबको इस कार्य में योगदान करना चाहिए। किसी ने ठीक ही कहा है कि दिल एक मंदिर है। प्यार की जिसमें होती है पूजा, वह  प्रीतम का घर है।
19 अप्रैल 2009
दैनिक कष्मीर टाइम्स

भूतपूर्व सैनिकों के बुलंद हौंसले

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अभी कुछ समय पूर्व इंगलिश  व हिंदी समाचार पत्रों में प्रकाशित समाचार भूतपूर्व सैनिकों  की आगामी लोकसभा के लिए कांगड़ा क्षेत्र से चुनाव में उतरने की तैयारी से उनके हौंसले बुलंद दिखाई दे रहे हैं जो सैनिक सेवा निवृत्ति के पश्चात  भी कम नहीं हुए हैं बल्कि और अधिक बढ़े हैं। उनके द्वारा लिया गया यह निर्णय एक उचित कदम इसलिए है  कि युद्ध की समाप्ति के पश्चात  हमारा समाज उन सैनिकों की सेवाओं और कुर्बानियों को पूरी तरह भुल जाता है। वह उनकी विधवाओं की पीड़ा व उनके माता पिता के दुख में शामिल होकर उन्हें दिलासा देने तक खानापूर्ति तो करता है पर इससे आगे उनके जीवन की बुनियादी आवश्यकताओं  की हर स्थान पर उपेक्षा होती है।
सैनिक जब सेवा निवृत्त होकर निजघर पहुंचते हैं तब उनके पास जिंदगी गुजारने के लिए मात्रा उनकी पेंशन के अतिरिक्त कोई अन्य आय का स्रोत नहीं होता है जिससे कि वह अपने परिवार और रिश्ते -नाते के सुख-दुख में को समान रूप से भागीदार हो सके। वह उससे अपने बच्चों को उच्च शिक्षा नहीं दिला पाते हैं। उन्हें सैनिक स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध होते हुए भी वह उनका उपयोग नहीं कर पाते हैं क्योंकि वह गांव से बहुत दूर होती हैं। जान-माल की रक्षा करने वाले व सुरक्षा रखने वाले उनके कठोर हाथ असंगठित होने के कारण कुछ नहीं कर पाते हैं। भले ही उनका कठोर अनुशासन राष्ट्र  की उन्नति करने व उसकी एकता एवं अखंडता बनाए रखने में सहायक भी क्यों न हो। इसलिए उचित यही था के वह किसी राजनैतिक दल में शामिल हो जाते या वे अपना कोई अलग से संगठन बना लेते। उन्होंने अब संगठित होकर लोकसभा चुनाव लड़ने और अपनी अवाज को लोकसभा में पहुंचाने का निर्णय कर लिया है जो चहुं ओर स्वागत करने योग्य है और हिमाचल के पड़ोसी  राज्यों को प्रेरणा दायक भी है।
सेवानिवृत्त सैनिकों  के बुलंद हौंसले  कह रहे हैं कि –
सेना से सेवानिवृत्त हो गए तो क्या हुआ,
जिंदगी गुजारना अभी बाकी है,
देश सेवा करना अभी बाकी है।
1 फरवरी 2009
दैनिक कष्मीर टाइम्स

हम वही हैं जो……..

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हिमाचल की दैनिक पँजाब केसरी 2 फरवरी 2008 में प्रकाशित समाचार लार्ड मैकाले ने कहा था –”भाजपा नेता केदारनाथ साहनी को अमरिका में बसे अडप्पा प्रसाद से मिला पत्र – उन्होंने लार्ड मैकाले द्वारा 1835 में ब्रिटिश संसद में दिए गए वक्तव्य की नकल भेजी है जिसके अनुसार लार्ड मैकाले ने 2 फरवरी 1835 को ब्रिटिश  संसद को संबोधित करते हुए कहा था -”उन्होंने भारत में लम्बी यात्रा की तथा उनको इस दौरान देश में न तो कोई भिखारी मिला और न ही कोई चोर। उन्होंने देश  में अपार धन सम्पदा देखी है। लोगों के उच्च नैतिक चरित्र हैं तथा वे बड़े कार्यकुशल हैं। इसलिए सोचते हैं कि क्या वे ऐसे देश  को कभी जीत पाएंगे?“ लार्ड मैकाले ने यह भी व्यान दिया था – ”जब तक हम इस राष्ट्र  की रीढ़ की हड्डी जो कि उसकी अध्यात्मिक व सांस्कृतिक विरासत है, को तोड़ नहीं देते तब तक हम कामयाब नहीं होंगे।“ उन्होंने ब्रिटिश  संसद को सुझाव दिया था कि -”हमें भारत की पुरानी व परम्परागत शिक्षा प्रणाली को बदलना होगा, उसकी संस्कृति में बदलाव लाने की कोशिशें  करनी होंगी। इस तरह भारतवासी अपनी संस्कृति भूल जाएंगे तथा वे वैसा बन जाएंगे जैसा हम चाहते हैं।“
उपरोक्त विचारों से स्पष्ट  है कि ब्रिटिश  सरकार के अधिकारी लार्ड मैकाले के मन मेें भारत के प्रति दुर्भावना कूट-कूट कर भरी हुई थी। उन्हें हमारे देश  की सुख-शांति, समृद्धि और दिव्य ज्ञान फूटि कौड़ी नहीं सुहाया था। उनका भारत-भ्रमण संबंधि उद्देश्य  मात्र ब्रिटिश  सरकार के हित में भारतीय कमजोरियां ही ढूंढना और जुटाना था जो उनके हाथ नहीं लगीं। इसके विपरीत न चाहते हुए भी उन्हें भारत की प्रशंसा करनी पड़ी थी। यही नहीं, वह जो उस समय भारत में घुसपैठ, आतंक के जनक और आयोजक थे, अपनी वास्तविकता को भी अधिक देर तक नहीं छुपा सके। उन्होंने सुखी-समृद्ध भारतीय उप-महाद्वीप को हर प्रकार से लूटने, क्षीण-हीन और धनाभाव ग्रस्त करने का संकल्प ले लिया और उसे साकार करने हेतु साम, दाम, दण्ड, भेद नीतियों का भरपूर उपयोग भी किया। इससे भारतीय श्रमिकों के हाथों का कार्य छीन लिया गया। देश  का विदेशी  व्यापार-ढांचा तहस-नहस हो गया। इस प्रकार ब्रिटिश  साम्राज्य की खुशहाली के लिए जो एक वार लहर चली तो वह फिर नहीं रुकी। भारतीय जनता जो अपने निजी जीवन, परिवार, समाज, राष्ट्र  और विश्व  हित की कामना करती थी, को असुरक्षित, असहाय तथा ज्ञान हीन करने के पश्चात  उसे पहले तरह-तरह से आतंकित किया गया फिर उससे ब्रिटिश  साम्राज्य हित की सेवाएं ली जाने लगीं। जो ऐसा नहीं करते थे या उसका विरोध करते थे, उन्हें देश  का गद्दार घोषित  करके फांसी पर लटका दिया जाता था या फिर गोलियों से भून दिया जाता था। यही नहीं उन्होंने देश  की परम्परागत प्राचीन भारतीय शिक्षा प्रणाली ही बदल दी जिससे कि भारत का कर्मठ, सदाचारी, संस्कारवान और साहसी युवावर्ग तैयार होता था, बदले में पाश्चात्य  संस्कृति पर आधारित नाम मात्र के काले अंग्रेज तैयार होने लगे। सस्ते बाबू प्राप्त करना उनकी आवश्यकता  थी, पूरी होने लगी। इन अंग्रेजों का अब भारत में एक बहुत बड़ा समुदाय बन चुका है जो न तो पूर्ण रूप से भारतीय रह गया है और न अंग्रेज ही बन सका है। हां, वे दिन प्रति दिन अपने आचार- व्यवहार, रहन-सहन, खान-पान, भाषा , पहनावा और यहां तक कि निजी संस्कारों को भूलता जा रहा है। वह अभागा बन रहा है – अव्यवसायी, निर्धन, चरित्रहीन और असंस्कारी।
भारत को स्वाधीन हुए साठ वर्ष  व्यतीत हो चुके हैं परन्तु देश  में लौह पुरुष  के अभाव में आज तक भारत, भारतीय समाज, उसके परिवार और कोई जन साधारण लार्ड मैकाले के ठोस संकल्प की पाश  से मुक्त नहीं हो सका है। उससे मुक्ति दिलाने वाला हमारे बीच में आज कोई लौह पुरुष  नहीं है। भारत को आज फिर से श्रमशील, सदाचारी, संस्कारवान और समर्थ युवावर्ग की महती आवश्यकता है। यह कार्य परम्परागत भारतीय शिक्षा प्रणाली ही कर सकती है, लार्ड मैकाले द्वारा प्रदत पाश्चात्य  शिक्षा प्रणाली कदाचित नहीं।
भारत की प्रांतीय सरकारों को केन्द्रीय सरकार से मिलकर एक सशक्त राष्ट्रीय  शिक्षा प्रणाली की संरचना करनी चाहिए जो पाश्चात्य  शिक्षा प्रणाली से मुक्ति के लिए राष्ट्रीय  एकता और अखण्डता सुनिश्चित  कर सके। क्या हमारा अपना, अपने परिवार, समाज और राष्ट्र  के प्रति यह भी कर्तव्य नहीं है? है तो सावधान देशवासियो! संगठित हो जाओ और काट डालो पापाश्चात्य  शिक्षा प्रणाली की उन समस्त बेड़ियों को जिन्होंने हमें सदियों से बंधक बना रखा है। लार्ड मैकाले द्वारा प्रदत शिक्षा प्रणाली हम सबको परोस रही है अव्यवसाय, निर्धनता, चरित्र हीनता और असंस्कार। मत भूलो! लार्ड मैकाले ने सत्य ही कहा था -”भारत में उन्हें कोई भी भिखारी या चोर नहीं मिला है।“ आओ हम आगे बढ़ें और अपनी खोई हुई परम्परागत भारतीय शिक्षा प्रणाली का अनुसरण करके भारत को सुखी और समृद्ध बनाएं। इस पाश्चात्य शिक्षा प्रणाली में ऐसा कोई दम नही है कि वह हमारी हस्ति मिटा दे या वह हमें अपने सत्य मार्ग से विचलित कर सके। स्मरण रहे कि –
जो हमें मिटाने आए थे कभी,
मिटाते मिट गए हैं निशान उनके ही
पर हमारी नहीं मिटी है हस्ति
हम हैं वही जो थे कभी
और रहेंगे कल भी
14  दिसम्बर  2008
कश्मीर  टाइम्स

समय की मांग

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वह भी एक समय था जब देश में हर नौजवान किसी न किसी हस्त-कला एवं रोजगार से जुड़ा हुआ था। चारों ओर सुख-समृद्धि थी। देश में कृषि योग्य भूमि की कहीं कमी नहीं थी। पर ज्यों-ज्यों देश की जन संख्या बढ़ती गई त्यों-त्यों उसकी उपजाऊ धरती और पीने के पानी में भी भारी कमी होने लगी। प्रदूषण अनवरत बढ़ने लगा है। मानों समस्याओं की बाढ़ आ गई हो। इससे पहले कि यह समस्याएं अपना विकराल रूप धारण कर लें, हमें इन्हें नियन्त्रण में लाने के लिए विवेक पूर्ण कुछ प्रयास अवश्य करने होंगे।
हमने कृषि योग्य भूमि पर औद्योगिक इकाइयां या कल-कारखानों की स्थापना नहीं करनी है जिनसे कि उत्पादन प्रभावित हो। उसके लिए अनुपजाऊ बंजर भूमि निश्चित करनी है और सदैव प्रदूषण मुक्त ही उत्पादन को बढ़ावा देना है।
हमने देश में पशु-धन बढ़ाना है ताकि हमें प्रयाप्त मात्रा में देशी खाद प्राप्त हो सके। हमने रासायनिक खादों और कीट नाशक दवाइयों का कम से कम उपयोग करना है ताकि मित्र जीव जन्तुओं की भी सुरक्षा बनी रह सके और हम सभी का स्वास्थ्य ठीक रहे।
घर के दुधारू पशुओं को कहीं खुला और सड़क पर नहीं छोड़ेंगे और न ही उन्हें कभी कसाइयों को बेचेंगे। अगर किसी कारणवश हम स्वयं उनका पालन-पोषण न कर सकें तो हम उन्हें स्थानीय सहकारी संस्थाओं द्वारा संचालित पशुशालाओं को ही देंगे ताकि वहां उनका भली प्रकार से पालन-पोषण हो सके और हमें मनचाहा ताजा व शुद्ध दूध, घी, पनीर, पौष्टिक खाद और अन्य जीवनोपयोगी वस्तुएं मिल सकें।
हमने नहाने, कपड़े धोने और साफ-सफाई के लिए भूजल स्रोतों – हैंडपंप, नलकूप, बावड़ियों और कुओं का स्वयं कभी प्रयोग नही करना है और न ही किसी को करने देना है बल्कि टंकी, तालाब, नदी या नाले के स्वच्छ रोग-किटाणु रहित पानी का प्रयोग करना है और दूसरों को करने के लिए प्रेरित करना है। सिंचाई के लिए हम विभिन्न विकल्पों द्वारा जल संचयन करेंगे और खेती सींचने के लिए वैज्ञानिक विधियों द्वारा फव्वारों को माध्यम बनाएंगें। हमने भूजल स्रोतों का अंधाधुंध दोहन नही करना है। भूजल हम सबका जीवन आधार होने के साथ-साथ सुरक्षित जल भण्डार भी है। वह हमारे लिए दीर्घकालिक रोग मुक्त और संचित पेय जल-स्रोत है जो हमने मात्र पीने के लिए प्रयोग करना है।
स्थानीय वर्षा जल-संचयन के लिए तालाब, पोखर, जोहड़ और चैकडैम अच्छे विकल्प हैं। इनसे जीव-जन्तुओं को पीने का पानी मिलता है। हम स्थानीय लोग मिलकर इनका नव निर्माण करेंगे। तथा पुराने स्रोतों का जीर्णोद्वार करके इन्हें उपयोगी बनाएंगे ताकि ज्यादा से ज्यादा वर्षा जल-संचयन हो सके और संचाई कार्य वाधित न हो सके।
हम समस्त भूजल स्रोतों की पहचान करके उन्हें संरक्षित करने हेतु उनके आस-पास अधिक से अधिक पेड़-पौधे लगाएंगे। इससे भू संरक्षण होगा। इनसे जीवों के प्राण रक्षार्थ प्राण वायु तथा जल की मात्रा में वृद्धि होगी और जीव-जन्तुओं के पालन-पोषण हेतु चारा तथा पानी पर्याप्त मात्रा में प्राप्त होगा।
हमने आवासीय कालोनी, मुहल्लों को साफ सुथरा व रोग मुक्त रखने के लिए घरेलू व सार्वजनिक शौचालयों को सीवरेज व्यवस्था के अंतर्गत लाकर मल निकासी तन्त्र प्रणाली को विकसित करना है और मल को तुरंत खाद में भी परिणत करना है ताकि गंदगी युक्त पानी के रिसाव से स्थानीय भूजल स्रोत – हैंडपंप, नलकूप, बावड़ियों और कुओं का शुध्द पेयजल कभी दूषित न हो सके। वह हम सबके लिए सदैव उपयोगी बना रहे।
हम घर पर स्वयं शुद्ध और ताजा भोजन बना कर खाएंगे। डिब्बा-लिफाफा बन्द या पहले से तैयार भोजन अथवा जंक-फूड का प्रयोग नहीं करेंगे ताकि हम स्वस्थ रह सकें और हमारी आय का मासिक बजट भी संतुलित बना रहे।
युवावर्ग बेरोजगार नहीं रहेगा। वह धार्मिक व सामाजिक दृष्टि से रोजगार के विकल्पों की तलाश करेगा और उन्हें व्यावहारिक रूप मेें लाएगा। योग्य इच्छुक बेरोजगार युवावर्ग के लिए हस्तकला, ग्रामाद्योग, वाणिज्य-व्यापार, कृषि उत्पादन, वागवानी, पशुपालन ऐसे अनेकों रोजगार संबंधी विकल्प हैं जिनसे वह घर पर रहकर स्वरोजगार से जुड़ जाएगा। उसे सरकारी या गैर सरकारी नौकरी तलाशने की आवश्यकता नहीं होगी।
निराश युवावर्ग सरकारी या गैर सरकारी नौकरी की तलाश नहीं करेगा बल्कि स्वरोजगार, पैतृक व्यवसाय तथा सहकारिता की ओर ध्यान देगा। इससे उसकी अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के साथ-साथ परंपरागत स्थानीय क्षेत्रीय और राष्ट्रीय कला-संस्कृति व साहित्य की नवीन संरचना, रक्षा और उसका विकास तो होगा ही – इसके साथ ही साथ उनकी अपनी पहचान भी बनेगी।
स्थानीय बेेरोजगार युवा वर्ग गांव में रह कर अधिक से अधिक हस्त कला, निर्माण, उत्पादन, कृषि-वागवानी और पशुपालन संबंधी रोजगार तलाशने और स्वरोजगार शुरू करने के लिए संबंधित विभाग से मार्गदर्शन प्राप्त करेगा ताकि उसे स्वरोजगार मिल सके और गांव छोड़कर दूर शहर न जाना पड़े।
हमने अपने परिवार में बेटा या बेटी में भेद नहीं करना है। दोनों एक ही माता-पिता की संतान है। हमनें परिवार नियोजन प्रणाली के अंतर्गत सीमित परिवार का आदर्श अपनाना है और बेटा-बेटी या दोनों का उचित पोषण करना है। उन्हें उच्च शिक्षा देने के साथ-साथ उच्च संस्कार भी देने हैं ताकि भारतीय संस्कृति की रक्षा हो सके।
यह सब कार्य तब तक मात्र किसी सरकार के द्वारा भली प्रकार से आयोजित या संचालित नही किए जा सकते और वह कारगर भी प्रमाणित नही होे सकते हैं, जब तक जनसाधारण के द्वारा इन्हें अपने जीवन में व्यावहारिक नही लाया जाता। अगर हम इन्हें व्यावहारिक रूप प्रदान करते हैं तो यह निश्चित है कि हम आधुनिक भारत में भी प्राचीन भारतीय परंपराओं के निर्वाहक हैं और हम अपनी संस्कृति के प्रति उत्तरदायी भी।
30 नवंबर 2008 कश्मीर टाइम्स

राष्ट्रीय समर्थ भाषा

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वह समाज और राष्ट्र गूंगा है जिसकी न तो कोई अपनी भाषा है और न लिपि। अगर भाषा आत्मा है तो यह कहना आतिशयोक्ति नहीं होगी कि भाषा से किसी व्यक्ति, परिवार, समाज और राष्ट्र की अभिव्यक्ति होती हैं।
विश्व में व्यक्ति, परिवार, समाज और राष्ट्र का भौतिक विकास और आध्यात्मिक उन्नति के लिए स्थानीय, क्षेत्रीय, प्रांतीय, राष्ट्रीय और अंतराष्ट्रीय भाषाओं का सम्मान तथा उनसे प्राप्त ज्ञान की सतत वृद्धि करने में ही सबका हित है।
राष्ट्र की विभिन्न भाषाओ का सम्मान करने से राष्ट्रीय भाषा का सूर्य स्वयं ही दीप्तमान हो जाता है। राष्ट्रीय भाषा स्वच्छन्द विचरने वाली वह सुगंध युक्त पवन है जिसे आज तक किसी चार दीवारी में कैद करने का कोई भी महत्वाकांक्षी प्रयास सफल नहीं हुआ है।
स्थानीय, क्षेत्रीय, प्रांतीय भाषाओँ के नाम पर भेद-भाव, वाद-विवाद और टकराव की मनोवृत्तियां महत्वाकांक्षा की जनक रहीं हैं जिससे कभी राष्ट्र हित नहीं हुआ है। विभिन्न मनोवृत्तियां महत्वाकांक्षा उत्पन्न होने से पैदा होती हैं और उसके मिटते ही वह स्वयं नष्ट हो जाती हैं।
संस्कृत व हिन्दी भाषाओं ने सदाचार, सत्य, न्याय, नीति, सदव्यवहार और सुसंस्कार संवर्धन करने के हर क्षेत्र में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। कई सदियां बीत जाने के पश्चात ही कोई एक भाषा राष्ट्रीय सम्पर्क भाषा और फिर वह राष्ट्र की सर्व सम्मानित राजभाषा बन पाती है। भारत में कभी सर्वसुलभ बोली और समझी जाने वाली संस्कृत भाषा देश की वैदिक भाषा थी जिसमें अनेकों महान ग्रंथों की रचनाएं हुई हैं। संस्कृत भाषा को कई भाषाओं की जननी माना जाता है। इस समय हिन्दी भारत की राष्ट्रीय सम्पर्क भाषा होने के साथ-साथ राजभाषा भी है। हमें उस पर गर्व है। भारत में हिन्दी भाषा अति सरल बोली, लिखी, पढ़ी, समझी और समझाई जा सकने वाली मृदु भाषा है। आशा है कि इसे एक न एक दिन संयुक्त राष्ट्र मंच पर उचित सम्मान अवश्य मिलेगा। भारत के भूतपूर्व प्रधान मंत्री श्री अटल बिहारी वाजपयी जी, संयुक्त राष्ट्र मंच पर अपने सर्वप्रथम भाषण में हिन्दी का प्रयोग करके इसका शुभारम्भ कर चुके हैं। वे राष्ट्र के महान सपूत हैं।
हिन्दी के प्रोत्साहन हेतु देश भर में अब तक हिन्दी दिवस/सप्ताह/पखवाड़ा/आयोजन के सरकारी अथवा गैर सरकारी अनेकों सराहनीय एवं प्रसंशनीय प्रयास हुए हैं। इससे आगे हमें हिन्दी दिवस/सप्ताह/पखवाड़ा/ आयोजनांे के स्थान पर हिन्दी मासिक/तिमाही/छःमाही और वार्षिक आयोजनों का आयोजन करना होगा। हिन्दी भाषा को अधिकाधिक प्रोत्साहित करने हेतु सरल सुबोध हिन्दी शब्द कोष कारगर सिद्ध हो सकते हैं जिन्हें प्रतियोगियों का साहस बढ़ाने हेतु पुरस्कार रूप में प्रदान किया जा सकता है और पुस्तकालयों में पाठकों की ज्ञानसाधनार्थ उपलब्ध करवाया जा सकता है।
सरकारी अथवा गैर सरकारी संस्थांओं के कार्यालयों में फाइलों व रजिस्टरों के नाम हिन्दी भाषा में लिखे जा सकते हैं। कार्यालयों की सब टिप्पणियां/आदेश/अनुदेश हिन्दी भाषी जारी किए जा सकते हैं। कार्यालयों में अधिकारी व कर्मचारी नाम पट्टिकाएं तथा उनके परिचय पत्र हिन्दी भाषी बनाए जा सकते हैं। कार्यालय संबंधी पत्र व्यवहार/बैठकें/संगोष्ठीयां/विचार विमर्श इत्यादि कार्य अधिक से अधिक हिन्दी भाषा में हो सकते हैं।
जन-जन की सम्पर्क भाषा हिन्दी को राजभाषा में भली प्रकार विकसित करने का प्रयास सरकारी या स्वयं सेवी संस्थांओं द्वारा मात्र खानापूर्ति के आयोजनों तक ही सीमित होकर न रह जाए। इसके लिए प्रांतीय, शहरी और ग्रामीण स्तर के बाजारों में तथा सार्वजनिक स्थलों पर जैसे स्वयं सेवी संस्थाओ, दुकानों, पाठशालाओं, विद्यालयों, विश्व विद्यालयों रेलवे स्टेशनों और वाहनों आदि के नाम, परिचय, सूचना पट्ट इत्यादि हिन्दीभाषा में लिखकर यह अवश्य ही सुनिश्चित किया जा सकता है कि भारत देश की राष्ट्रीय सम्पर्क भाषा हिन्दी है और हिन्दी ही उसकी अपनी राजभाषा है। कन्याकुमारी से कश्मीर तक और असम से सौराष्ट्र तक भारत एक अखण्ड देश है। हिन्दी भाषा अपने आप में हिन्द देश को सुसंगठित एवं अखण्डित बनाए रखने में पूर्ण सक्षम है। वह विश्व में अंग्रेजी के समकक्ष होने में हर प्रकार से समर्थ है।
23 नवंबर 2008 कश्मीर टाइम्स
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