योग्य गुरु एवं योग्य विद्यार्थी के संयुक्त प्रयास से प्राप्त विद्या से विद्यार्थी का हृदय और मस्तिष्क प्रकाशित होता है। अगर प्रयत्नशील द्वारा बार-बार प्रयत्न करने पर भी असफलता ही मिले तो उसे कभी जल्दी हार नहीं मान लेनी चाहिए बल्कि ज्ञान संचयन हेतु अपनी सम्पूर्ण शक्ति और लग्नता के साथ और अधिक श्रम करना चाहिए ताकि उसमें किसी प्रकार की कोई कमी न रह जाए। 1 लोक क भ्रमण करने से विषय वस्तु को भली प्रकार समझा जाता है। 2 साहित्य एवं सद्ग्रंथ पढ़ने से विषय वस्तु का बोध होता है। 3 सुसंगत करने से विषयक ज्ञान-विज्ञान का पता चलता है। 4 अधिक से अधिक जिज्ञासा रखने से ज्ञान-विज्ञान जाना जाता है। 5 बड़ों का उचित सम्मान और उनसे विश्व व्यवहार करने से उचित मार्गदर्शन मिलता है। 6 आत्म चिन्तन करने से आत्म बोध होता है। 7 सत्य निष्ठ रहने से संसार का ज्ञान होता है। 8 लेखन-अभ्यास करने से आत्मदर्शन होता है। 9 आध्यात्मिक दृष्टि अपनाने से समस्त संसार एक परिवार दिखाई देता है। 10 प्राकृतिक दर्शन करने से मानसिक शान्ति प्राप्त होती है। 11 सामाजिक मान-मर्यादाओं की पालना करने से जीवन सुगंधित बन जाता है। 12 शैक्षणिक वातावरण बनाने से ज्ञान-विज्ञान का विस्तार होता है। 13 कलात्मक अभिनय करने से दूसरों को ज्ञान मिलता है। 14 कलात्मक प्रतियोगिताओं में भाग लेने से आत्मविश्वाश बढ़ता है। 15 दैनिक लोक घटित घटनाओं पर दृष्टि रखने से स्वयं को जागृत किया जाता है। 16 समय का सदुपयोग करने से भविष्य प्रकाशमय हो जाता है। 17 कलात्मक शिक्षण-प्रशिक्षण लेने से योग्यता में निखार आता है। 18 उच्च विचार अपनाने से जीवन मेें सुधार होता है। 19 आत्म विश्वास युक्त कठोर श्रम करने से जीवन विकास होता है। 20 मानवी उर्जा ब्रह्मचर्य का महत्व समझ लेने और उसे व्यवहार में लाने से कार्य क्षमता बढ़ती है। 21 मन में शुद्ध भाव रखने से विश्वास बढ़ता है। 22 कर्म निष्ठ रहने से अनुभव एवं कार्य कुशलता बढ़ती है। 23 दृढ़ निश्चय करने से मन में उत्साह भरता है। 24 लोक परंपराओं का निर्वहन करने से कर्तव्य पालन होता है 25 स्थानीय लोक सेवी संस्थांओं में भाग लेने से समाज सेवा करने का समय मिलता है। 26 संयुक्त रूप से राष्ट्रीय पर्व मनाने से राष्ट्र की एकता एवं अखंडता प्रदर्शित होती है। 27 मानव धर्म निभाने से संसार में अपनी पहचान बनती है। 28 प्रिय नीतिवान एवं न्याय प्रिय बनने से सबको न्याय मिलता है। 29 शांत मगर शूरवीर बनने से जीवन चुनौतियों का सामना किया जाता है। 30 निडर और धैर्यशील रहने से जीवन का हर संकट दूर होता है। 31 दुःख में भी प्रसन्न रहने से कष्ट दूर हो जाते हैं। 32 निरंतर प्रयत्नशील रहने से कार्य में सफलता मिलती है। 33 परंपरागत पैतृक व्यवसाय अपनाने से घर पर ही रोजगार मिल जाता है। 34 तर्क संगत वाद-विवाद करने से एक दूसरे की विचारधारा जानी जाती है। 35 तन, मन और धन से कार्य करने से प्रसंशकों और मित्रों की वृद्धि होती है। 36 किसी भी प्रकार का अभिमान न करने से लोकप्रियता बढ़ती है। 37 सदा सत्य परन्तु प्रिय बोलने से लोक सम्मान प्राप्त होता है। 38 अनुशासित जीवनयापन करने से भोग सुख का अधिकार मिलता है। 39 कलात्मक व्यवसायिक परिवेश बनाने से भोग सुख और यश प्राप्त होता है। 40 निःस्वार्थ भाव से सेवा करने से वास्तविक सुख व आनंद मिलता है।
क्या हिंन्दी ”हिन्द की राजभाषा“ को व्यावहारिक रूप में जन साधारण तक पहुंचाने में कोई वाधा आ रही है? अगर हां तो हम उसे दूर करने में क्या प्रयास कर रहे हैं? इस प्रश्न का उत्तर ढूंढना ज्यादा जरूरी है। मुझे भली प्रकार याद है दिनांक 21 फरवरी 2008 को मैं अपार जन समूह में लघु सचिवालय धर्मशाला की सभागार में बैठा हुआ अति प्रसन्न था। हम सब वहां पर आयोजित केन्द्रीय भू जल बोर्ड व सिंचाई एवं जन स्वास्थय कर्मचारियों की संयुक्त बैठक में भाग लेने गए हुए थे। वहां पर विद्यमान गणमान्य अधिकारियों की अध्यक्षता सिंचाई एवं जन स्वास्थय मंत्री ने की थी। सभागार में हर कोई खामोश, कार्रवाई प्रारम्भ होने की प्रतीक्षा कर रहा था। वह शुरू हुई और हमारे कान खड़े हो गए। आरम्भ में, राज्य के सिंचाई एवं जन स्वास्थय मंत्री माननीय रविन्द्र रवि और चिन्मय स्वामी आश्रम, संस्था की निदेशिका डा0 क्षमा मैत्रेय के संभाषण से भारतीयता की झलक अवश्य दिखाई दी। दोनों के भाषण हिन्दी भाषा में हुए जिनमें देश के गौरव की महक थी। मुझे पूर्ण आशा थी कि भावी कार्रवाई भी इसी प्रकार चलेगी परन्तु विलायती हवा के तीव्र झौंके से रुख बदल गया और देखते ही देखते सभागार से हिन्दी भाषा सूखे पत्ते की तरह उड़ कर अमुक दिशा में न जाने कहां खो गई। जिसका वहां किसी ने पुनः स्मरण तक नहीं किया – जो भी बोला, जिस किसीने किसी से पूछा या जिसने कहा, वह मात्र अंग्रेजी भाषा में था। उस समय मुझे ऐसा लगा मानों हम सब लघु सचिवालय धर्मशाला की सभागार में नहीं बल्कि ब्रिटिश संसद में बैठे हुए हैं और कार्रवाई देख रहे हैं, अंतर मात्र इतना था कि हमारे सामने गोरे अंग्रेज नहीं, बल्कि काले अंग्रेज – स्वदेशी अपने ही भाई थे। वो समाज को बताना चाहते थे कि वे गोरे अंग्रेजों से कहीं ज्यादा बढ़िया अंग्रेजी भाषा बोल और समझ सकते हैं। उनकी अंग्रेजी भाषा, हिन्दी भाषा से ज्यादा प्रभावशाली है। अंग्रेजी भाषा में उनका ज्ञान देश की आम जनता आसानी से समझ सकती है। मुझे तो वहां अंग्रेजी साम्राज्य की बू आ रही थी – भले ही वह भारत में कब का समाप्त हो चुका है। अंग्रेजी भाषा का ज्ञान होना बुरी बात नहीं है। उसे बोलने से पूर्व देश, स्थान और श्रोता का ध्यान रखना ज्यादा जरूरी है। वह लघु सचिवालय अपना था। वहां बैठे सब लोग अपने थे फिर भी वहां सबके सामने राज- भाषा हिन्दी की अवहेलना और अनदेखी हुई। बोलने वाले लोग हिन्दी भूल गए, जग जान गया कि सचिवालय में राजभाषा हिन्दी का कितना प्रयोग होता है और उसे कितना सम्मान दिया जाता है। ऐसा लगा मानों सचिवालय में मात्र दो महानुभावों को छोड़ कर अन्य किसी को हिन्दी या स्थानीय भाषा आती ही नहीं है। हां, वे सब पाश्चत्य शिक्षा की भट्टी में तपे हुए अंग्रेजी भाषा के अच्छे प्रवक्ता अवश्य थे। वे अंग्रेजी भाषा भूलने वाले नहीं थे क्योंकि उन्होंने गोरे अंग्रेजों द्वारा विरासत में प्रदत भाषा का परित्याग करके उसका अपमान नहीं करना था। वे हिन्दी भाषा बोल सकते थे पर उन्होंने सचिवालय में राष्ट्रीय भाषा हिन्दी का प्रयोग करके उसे सम्मानित नहीं किया, कहीं गोरे अंग्रेज उनसे नाराज हो जाते तो…! भारत या उसके किसी राज्य का, चाहे कोई लघु सचिवालय हो या बड़ा, राज्यसभा हो या लोकसभा अथवा न्यायपालिका वहां पर होने वाली सम्मानित राजभाषा हिन्दी में किसी भी जन हित की कार्रवाई, बातचीत अथवा संभाषण के अपरिवर्तित मुख्य अंश मात्र उससे संबंधित विभागीय कार्यालय या अधिकारी तक सीमित न हो कर ससम्मान राष्ट्र की विभिन्न स्थानीय भाषाओं में, उचित माध्यमों द्वारा जन साधारण वर्ग तक पहुंचने अति आवश्यक हैं। उनमें पारदर्शिता हो ताकि जन साधारण वर्ग भी उनमें सहभागीदार बन सके और सम्मान सहित जी सके। उसके द्वारा प्रदत योगदान से क्या राष्ट्र का नवनिर्माण नहीं हो सकता? उसका लोकतंत्र में सक्रिय योगदान सुनिश्चित होना चाहिए जो उसका अपना अधिकार है। इससे वह दुनियां को बता सकता है कि भारत उसका अपना देश है। वह उसकी रक्षा करने में कभी किसी से पीछे रहने वाला नहीं है।
”अब आसान न होगा पषु को आवारा छोड़ना। विभाग ने बनाई योजना। पंचायतों के नुमाइंदों को किया जा रहा जागरूक।“ जी हां, यही है दैनिक पँजाब केसरी में दिनांक 14 जून 2008 का प्रकाशित समाचार। स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात भारतीय इतिहास में वर्तमान हिमाचल सरकार ने जन हित में लगाया एक और मील का पत्थर जो पडो़सी राज्य सरकारों को अवश्य ही प्रेरणादायक सिद्ध होगा। समाचार के अनुसार – ”पशुओं को आवारा छोड़ना अब प्रदेश के किसानों को भारी पड़ सकता है।“ संबंधित विभाग द्वारा शुरू की गई मुहिम में जहां किसानों को अपने पशु आवारा छोड़ने पर जुर्माना भरना पड़ सकता है वहां दुबारा गलती करने पर उनके विरुद्ध विभाग द्वारा कड़ी कार्रवाई भी की जाएगी। विभाग ने विस्तृत योजना बना ली है। पशु का रिजिस्ट्रेशन – उसके बाएं कान पर प्रांत व जिला कोड तथा दाएं कान पर ब्लाक, पंचायत व पशु मालिक कोड सब मशीन द्वारा अंकित किए जाएंगे। इस प्रकार पशु की पूर्ण पहचान होगी और पशु मालिकों के द्वारा अपना पशु कहीं आवारा छोड़ना आसान न होगा। प्रायः देखने में आया है कि पशु मालिक दुधारु पशुओं का दूध निकाल लेने के पश्चात या जब वे दूध देना बन्द कर देते हैं तो वे उन्हें घर से बाहर निकाल देते हैं। वे आवारा होकर गांव या शहर की सड़़कों व गलियों में भटकना आरम्भ कर देेते हैं जिन्हें वहां कूड़ा-कचरा के अम्बारों पर या कूड़ादानों से गन्दगी में सने हुए लिफाफे व सड़ी-गली साग-सब्जी के छिलके खाते हुए देखा जा सकता है। आहार की तलाश में कभी-कभी उन्हें बस, ट्रक या रेल से टकरा कर अपनी जान भी गंवा देनी पड़ती है। कुछ सिर फिरे लोगों ने तो पशुओं का जीना हराम कर दिया है। वे उन्हें आए दिन आवारा छोड़ देते हैं या कसाइयों को बेच देते हैं। पशुचोरों को समय मिले तो वे पशु चुराकर उन्हें बूचड़खानों में भी पहुंचा देते हैं। उनके लिए पशुओं का कोई महत्व नही होता है जिस कारण रोजाना बूचड़खानों में हजारों की संख्या में बड़ी क्रूरता पूर्ण पशुओं को मौत के घाट उतार दिया जाता है। इससे लोगों को चमड़े की बनी वस्तुएं मिल जाती है। भारत देश में जहां श्री कृष्णजी के द्वारा गौ-प्रेम से गौ-वंश वर्धन हुआ था, देश में दूध की नदियां बही थीं वहीं आज क्रूर मानव अपनी क्रूरता वश गौ-वध करके गौ-धनाभाव कर रहा है। प्रति दिन सुबह-शाम मन्दिरों में ”गौ माता की जय हो“ कहने वाला समाज आज स्वयं ही कथनी और करनी में समानता रखने में असमर्थ है। सूरसा मां-मुख की भान्ति बढ़ रही भारतीय जन संख्या और कल-कारखानों के बढ़ रहे साम्राज्य के आगे जहां कृषि प्रधान भारत की कृषि भूमि और जंगल सिकुड़ रहे हैं वहां उसके पशु वंश के भरण-पोषण हेतु चारागाहों का भी क्षेत्र सिकुड़ता जा रहा है। इससे भारतीय परंपरागत पशु पालन व्यवस्था चरमरा गई है। भारत में चिरकाल से ही पशुओं के मल-मूत्र का कृषि उत्पाद पौष्टिक खाद के रूप में महत्वपूर्ण योगदान रहा है, के स्थान पर अधिक उत्पादन प्राप्त करने के लिए रासायनिक खादों का धड़ल्ले से प्रयोग किया जा रहा है। पौष्टिकता में भारी गिरावट आ रही है। किसान बैलों से हल जोतना भूल गए हैं। उसका स्थान ट्रैक्टरों और भारी मशीनों ने ले लिया है। इससे पशु वंश नकारा हुआ है। पशु वंश में कमीं आने के कारण पौष्टिक खाद प्रभावित हुई है। पाश्चात्य संस्कृति से प्रभावित वर्तमान भारतीय युवा वर्ग पशु प्रेम के अभाव में पशु पालन व्यवसाय छोड़ता जा रहा है। वह लिफाफा बन्द दूध खरीदना सर्व श्रेष्ठ समझता है। यह बात बुरी ही नही है बल्कि वह हनिकारक, रोग और दोष पूर्ण भी है। इससे उसे भविष्य में सदैव जागरूक रहना होगा। राष्ट्रीय परम्परागत पशु पालन व्यवसाय युवा वर्ग के लिए एक अच्छा रोजगार बन सकता है। इच्छुक, साहसी और पुरुषार्थी युवा वर्ग को संगठित होकर एवं सहकारिता अन्दोलन के साथ जुड़कर पशु पालन के व्यवसाय को स्वरोजगार बनाना होगा। बाजार से लिफाफा बन्द, महंगा उपलब्ध दूध के स्थान पर वह स्थानीय पशुशालाओं के माध्यम से ताजा शुद्ध और सस्ता दूध उत्पादन करके स्थानीय लोगों की आवश्यकता सहज में पूर्ण कर सकता है। इससे वह अच्छा आर्थिक लाभ कमा सकता है। उपरोक्त वर्तमान हिमाचल सरकार का निर्णय प्रान्त तथा राष्ट्र हित में लिया गया एक सराहनीय और प्रंशसनीय फैसला है जो युवा वर्ग द्वारा राष्ट्र का नव निर्माण करने में एक महत्व पूर्ण भूमिका निभा सकता है। इसके लिए युवा वर्ग को कल कारखानों व मशीनों पर पूर्णरूप से आश्रित न रह कर अधिक से अधिक स्वयं शरीर श्रम प्रारम्भ करना होगा। भारत में चिरकाल से श्वेत धाराएं पशुवश से प्राप्त हुई है, प्राप्त हो रही है और आगे भी प्राप्त होगी। स्मरण रहे अगर भविष्य में हमने स्वस्थ रहना है तो हमे दूध की आवश्यकता अधिक होगी। तब दूध पाने के लिए हमें मशीनों की नहीं पशुओं की आवश्यकता होगी। धरती पर पशु नही रहेंगे तो हमें दूध कहां से मिलेगा? जीवन की रक्षा पशु धन की सुरक्षा पर निहित है। कल-कारखानें और मशीनें तो हमारे लिए भोग-विलास संबंधी वस्तुओं का उत्पादन करने वाले साधन मात्र हैं। इनका हमें सदैव विवेक पूर्ण और सीमित ही उपयोग करना होगा। इसी में हमारी और भारत की भलाई है।
यह सत्य है कि हमारे देश के लोग, उनका रहन-सहन, खान-पान, आचार-व्यवहार, राष्टीय भौगोलिक स्थिति, जलवायु और उत्पादन से देश की सभ्यता और संस्कृति को बल मिलता है। उससे भारत की पहचान होती है। अगर कभी इसमें विद्यमान गुण व दोषों को समाज के सम्मुख अलिखित रूप में व्यक्त करना पड़े तो हम उस माध्यम को भाषा का नाम दे सकते हैं। सर्वसुलभ भाषा का यथार्थ ज्ञान हमारी राष्ट्रीयता की अभिव्यक्ति का संसाधन हो सकता है, चाहे वह हिन्दी ही क्यों न हो? उसका देश के प्रत्येक बच्चे से लेकर अभिभावक, गुरु, प्रशासक और राजनेता तक को भली प्रकार ज्ञान होना अति आवश्यक हैं। समय की मांग के अनुसार भारत के विभिन्न सरकारी व गैर सरकारी क्षेत्रों में हिन्दी भाषा-ज्ञान का प्रचार-प्रसार करने के लिए सरकारी या स्वयं सेवी संगठनों द्वारा जो प्रयास हो रहे हैं उनमें हिन्दी सप्ताह या हिन्दी पखवाड़ा सर्वोपरि रहा है। इससे लोगों में हिन्दी के प्रति नव चेतना जागृत हुई है। निरन्तर प्रयास जारी रखने की महती आवश्यक है। हिन्दी भाषा, अंतर्राष्ट्रीय भाषा में परिणत हो कर अंग्रेजी भाषा के कद तुल्य बने, इसमें भूतपूर्व प्रधानमन्त्री श्री अटलबिहारी वाजपयी का योगदान सराहनीय रहा है। उन्होंने संयुक्त राष्ट्र संघ के सभा मंच पर हिन्दी में भाषण देकर विश्व में हिन्दी का मान बढ़ाया है। इसे और प्रभावी बनाने के लिए अनिवार्य है कि देश के सरकारी व गैर सरकारी क्षेत्रों में हिन्दी भाषा-ज्ञान का समुचित विकास हो। लोगों में शुद्ध हिन्दी लेखन-अभ्यास रुके बिना जारी रहे। लोग आपस में प्रिय हिन्दी भाषी संबोधनों का निःसंकोच प्रयोग करें और वे जब भी आपस में वार्तालाप करें, शुद्ध हिन्दी भाषा का उच्चारण करें। हिन्दी भाषा को राजभाषा का ससम्मान स्थान दिलाने की कल्पना वर्षों पूर्व हमारे राष्ट्रीय नेताओं ने की थी। उनका सपना तभी साकार हो सकता है जब हम अपने बच्चों को अंग्रेजी के साथ-साथ हिन्दी माध्यम की पाठशालाओं में भी प्रविष्ठ करेंगे। वहां से उन्हें हिन्दी का ज्ञान दिलाएंगे। वे शुद्ध हिन्दी लिखना, पढ़ना और उच्चारण करना सीखेंगे। वे पारिवारिक रिस्तों में मिठास घोलने वाले प्रिय हिन्दी भाषी संबोधनों से जैसे माता-पिता, दादी-दादा, भाई-बहन, भाभी-भाई, बहन-जीजा, चाची-चाचा, तायी-ताया, मामी-मामा, मौसी-मौसा कह कर पुकार सकेंगे और समाज में उनसे मिलने-जुलने वाले प्रिय बन्धुओं से भी उन्हीं जैसा व्यवहार करेंगे। क्या हम प्राचीनकाल की भांति आज भी समर्थ हैं? इस ओर हम क्या प्रयास कर रहे हैं? भारत की प्राचीन सभ्यता एवं संस्कृति से प्रेरित होकर आज का कोई भी नौजवान सहर्ष कह सकता है कि हम हिन्दीभाषी लोग विभिन्न भाषी क्षेत्रों के लोगों का इसलिए सम्मान करते हैं कि हम उन्हें अधिक से अधिक जान-पहचान सकें और हमारी राष्ट्रीय एकता एवं अखण्डता पहले से कई गुणा अधिक सुदृढ़ बन सके।
किसी व्यक्ति का-अपना परिवार, परिवार का-समाज, समाज का-क्षेत्र, क्षेत्र का-राज्य, राज्य का-राष्ट्र, और राष्ट्र का-विश्व पूरक होता है। वे सब एक दूसरे पर निर्भर करते हैं। इन्हें स्वयं के निर्वहन हेतु आपस में मधुर संबंध और सामंजस्य बनाए रखना अति आवश्यक है। व्यक्ति से लेकर परिवार, समाज, क्षेत्र, राज्य और राष्ट्र को राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक, शैक्षणिक और जान-माल संबंधी रक्षा-सुरक्षा तक की विश्वसनीयता बनाए रखने की महती आवश्यकता होती है जिसमें स्वतन्त्रता, समता, और बन्धुता का समर्पण भाव विद्यमान होता है। इससे विश्व शान्ति बनती है। ”बुद्ध और उनके धम्म का भविष्य“ पुस्तक जिसके लेखक स्वयं डा0 भीमराव आम्बेडकर हैं, की भूमिका में स्पष्ट लिखा है कि 29 नवम्बर 1949 को भारतीय संविधान सभा के अध्यक्ष डा0 भीमराव आम्बेडकर ने संविधान पारित होते समय राष्ट्र को चेतावनी दी थी-”26 जनवरी 1950 को हम राजनीतिक जीवन में समान होंगे और सामाजिक तथा आर्थिक जीवन में असमान। हमें इस विषमता को जल्द से जल्द हटाना होगा, वरना उस विषमता के शिकार हुए लोग राजनैतिक प्रजातन्त्र का यह ढांचा उखाड़कर फैंक देंगे।“ अगर डा0 भीमराव आम्बेडकर के यह विचार उस समय तर्क संगत रहे हैं तो आज के परिप्रेक्ष्य में भी उनका महत्व कम नहीं है। आज हमें प्रजातन्त्र के इस ढांचे को उखाड़कर नही फैंकना है बल्कि एक सच्चे भारतीय बनकर उसे अत्याधिक भली प्रकार संवारना है। राष्ट्र को आज इसकी आवश्यकता है। इसके लिए देश के प्रतिभाशाली राजगुरुओं, धर्माचार्यों, अभिभावकों, राजनीतिज्ञों, प्रशासकों, शिक्षाविदों, अर्थ-शास्त्रियों, समाज सेवकों, डाक्टरों, इंजिनियरों, और न्यायविदों को समय-समय पर आत्म निरीक्षण करना होगा ताकि उनके कार्य और कार्य-प्रणाली की विसंगतियां दूर हो सकेें। भारत अपने आप में एक प्रभुत्व सम्पन्न लोकतान्त्रिक देश है जिसके विभिन्न क्षेत्रों में जहां छोटी-छोटी अनेकों क्षेत्रीय राजनीतिक पार्टियां हैं, वहीं उसकी राष्ट्रीय स्तर का दम भरने वाली बड़ी-बड़ी पार्टियां भी हैं। ऐसे कोई भी पार्टी जब अपने निजी स्वार्थ और जन हित विरोधी नीतियों का शिकार हो जाती है और वह जनता की अदालत में अपना विश्वासमत खो बैठती है तब उसकी सरकार अल्पमत में होती है। परिणाम स्वरूप पुनः चुनाव होता है। जनता जिस पार्टी को चाहती है, वह उसको अपना वोट देकर सफल बनाती है। इससे उसे अपनी सरकार बनाने का अवसर मिलता है। इस प्रकार अल्पमत में आने या बार-बार चुनाव होने से, चुनावों में भारी खर्च होता है। यह कर्ज देश की उस गरीब जनता को महंगाई के रूप में चुकाना पड़ता है जिसे दो वक्त खाने के लिए भर पेट खाना नही मिलता है। फिर भी विभिन्न पार्टियों के कार्यकत्र्ता और नेता उससे उसका कीमती वोट मांगते हुए दिखाई देते हैं। भूखा पेट रहने वाले लोग उन्हें अपना कीमती वोट इस आशा से दे देते हैं शायद इस बार कोई तो उनकी सुध लेगा। वैसे चुनाव जीतकर नेताओं का ईद का चांद हो जाना आम बात है। कृषि प्रधान होने पर भी देश का कृषि-बागवानी, पशुपालन, उत्पादन, निर्माण, और वाणिज्य-व्यापार का क्षेत्र-प्राकृतिक आपदाओं, वित्तीय कमियों, कुप्रबन्धन, अव्यवस्था, जन निरक्षरता, अज्ञानता, कुपोषण अयोग्यता और राजनीतिक अदूरदर्शिता पूर्ण जन विरोधी नीतियों का शिकार हो रहा है। उससे अल्प आय वाले, दैनिक वेतन भोगी और कम वेतन लेने वाले ही लोग ज्यादा प्रभावित होते हैं। उनका दुख-दर्द बांटने वाला कोई नही होता है। उनके पास प्रयाप्त धन न होने के कारण वे सांसारिक सुख-सुविधाओं से सदैव वंचित रहते हैं। उनका भरपूर लाभ मात्र धनी लोग उठाते हैं। यही कारण है कि धनी लोग और धनवान और निर्धन अति गरीब हो रहे हैं। दोनों में गहरी खाई बढ़ रही है। भारतीय समाज-पुरातन काल से-सनातन धर्म और उसकी संस्कृति से जुड़ा हुआ होने के कारण, वह राष्ट्रीय एकता एवं अखण्डता के रूप में विश्व विख्यात है। उसका विनाश करने के लिए आज तक समाज विरोधी तत्वों ने अपनी ओर से जितने भी प्रयास किए हैं, बदले में उन्होंने मुंह की खाई है। इतिहास साक्षी है कि जाति एवं धार्मिक साम्प्रदायिक शक्तियों का शिकार होने वाले लोगों का जब-जब उनकी चिकनी-चुपड़ी बातों से मोह भंग हुआ है तब-तब वे पुनः सनातन धर्म की ओर लौटे हैं। भारतीय संस्कृति के अनुसार-वर्तमान भारतीय शिक्षा प्रणाली का आरम्भ ही जन हित विरोधी था, अब जन विरोधी है और आगे वैसा तब तक रहेगा जब तक उसे पूर्णतयः जड़ से उखाड़कर नहीं फैंक नही दिया जाता। कारण, उसकी कल्पना देश का हित चाहने वाले किसी स्वदेशी शिक्षाविद हितैशी ने नहीं बल्कि ब्रिटिश साम्राज्य के हितैशी एवं ब्रिटिश राजभक्त अंग्रेज मैकाले ने की थी जो भारत से उसकी समस्त सुख-समृद्धि छीनकर ब्रिटेन की खुशहाली में बदलना चाहता था। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए ब्रिटिश शासन ने छल, बल और समर का सहारा लेकर अनेकों प्रयास किए थे जिनके अंतर्गत भारत की अपार बहुमूल्य धन-सम्पदा को ब्रिटेन पहुंचाया गया था। उनमें पंजाब के अंतिम सिख महाराजा का बहुमूल्य कोहिनूर हीरा भी था जो आज ब्रिटेन की महारानी के ताज की शोभा बढ़ा रहा है। यह भारत का दुर्भाग्य ही है कि अंग्रेज मैकाले द्वारा प्रदत और ब्रिटिश-राज की पोषक वर्तमान शिक्षा प्रणाली को आज भी हम भारतीयों ने ज्यों का त्यों ही अपनाया हुआ है जिससे देश को बेरोजगारी, निर्धनता, चरित्रहीनता और कुसंस्कारों की फलित खेती मिल रही हैै। स्नातक युवा वर्ग के जीवन की बुनियाद दिन प्रति दिन नैतिक मूल्यविहीन होकर खोखली हो रही है। इससे स्पष्ट है कि मैकाले का उद्देश्य पूर्ण हुआ है। वह भारतीय परम्परागत गुरुकुल प्रधान शिक्षा प्रणाली और भारतीय संस्कृति बदलना चाहता था। गुरुकुल शिक्षा के अभाव में आज देश का युवा वर्ग अपनी कार्य कुशलता, सामर्थ्या, सदाचार और सुसंस्कार भूल रहा है। वह मेहनत करने की अपेक्षा लघु मार्ग से अधिक से अधिक आय के स्रोत ढूंढ निकाल लेना श्रेष्ठ समझता है। वर्तमान में उसके द्वारा बात-बात पर या उच्च अभिलाषा पूर्ण न होने पर आत्म-हत्या तक कर लेना आम बात है। स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात भारतीय जनता को आशा थी कि उसे स्वशासन से सस्ता और त्वरित न्याय मिला करेगा। भविष्य में उसकी जान-माल की रक्षा-सुरक्षा सुनिश्चित होगी। पर काश! आजादी मिलने के पश्चात, देश की किसी भी छोटी या बड़ी पार्टी ने इस ओर कोई विषेष कारगर कदम नहीं उठाया है। आज देश भर में – ”देश का नव निर्माण“ करने के नारे तो खूब लगाए जा रहे हैं। गांव-गांव में पाठशालाएं खोली जा रही हैं। शहर-शहर में कालेज भी स्थापित हो रहे हैं पर अज्ञानता, हिंसा, आतंक, उग्रवाद, कुपोषण, अत्याचार के रूप में-दानवता का साम्राज्य जो यहां पराधीनता के समय विद्यमान था- स्वाधीनता मिलने के पश्चात भी तन्दूर सा दहक रहा है। जनहित का ढिंढोरा पीटने वाली पार्टियां कोई बहाना मिलते ही, बिन देरी किए उस पर अपनी-अपनी राजनीतिक चपातियां सेंकनें लगती हैं। इनसे प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष उभरते हुए ज्वलंत मुद्दे उनके घोषणा पत्रों में ग्रह-नक्षत्रों के समान दमकने लगते हैं। विभिन्न पार्टियों के द्वारा घोषणा पत्रों में जनता को अनेकों सब्ज-बाग दिखाए जाते हैं जो आगामी चुनाव में उसको अपनी ओर आकर्षित करने के ज्यादा और व्यावहारिक रूप में कम संसाधन सिद्ध होते हैं। इस प्रकार वह जो चाहें करती हैं, कर सकती हैं। सरकार में विद्यमान पार्टी को अपनी सरकार बचाने की चिन्ता रहती है। जन हित का सिर दर्द मोल लेने का उसके पास समय नहीं होता है। जनता द्वारा कोई मांग करने पर उसके आराम में खलल पड़ता है। उसे आंदोलन समझा जाता है। उसे कुचलने के लिए सुरक्षा बल अपना क्रूरता पूर्वक बल प्रयोग करता है। हिंसा भड़कती है। इससे मीडिया भी अछूता नहीं रहता है। आज देश को महती आवश्यकता है ऐसे प्रतिभावान अभिभावकों, राजनीतिज्ञों, प्रशासकों, अधिकारियों, न्यायविदों, राजगुरुओं, धर्माचार्यो, शिक्षकों, विद्यार्थिओं, श्रमिकों और समाज सेवकों की जिनकी अपने-अपने कार्य-क्षेत्रों में विद्यमान प्रशासन, वित्तव्यवस्था और कार्य प्रणाली पर अपनी मजबूत पकड़ हो। जिन्हें दोस्त और दुश्मन की भली प्रकार पहचान हो। जो राष्ट्र हित और अहित में भेद कर सकें। जो सत्य एवं असत्य का अन्तर समझ सकें ओर दोषी को निष्पक्षता पूर्ण कड़े से कड़ा दण्ड भी दिला सकें। जो जनहित की आवाज बुलंद करने में समर्थ हों और उसे व्यावहारिक रूप दे सकें। ऐसा जनहित एवं राष्ट्रीय कल्याण हेतु किया जाना अति आवश्यक है।