मानवता सेवा की गतिविधियाँ

श्रेणी: आलेख (page 5 of 31)

सर्वोत्तम वरदान

अनमोल वचन :-# अच्छा स्वास्थ्य एवंम अच्छी समझ जीवन में दो सर्वोत्तम वरदान है l *
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आचरण शुद्धता

अनमोल वचन :-# आचरण की शुद्धता ही व्यक्ति को प्रखर बनाती है l*
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अनीति मार्ग

अनमोल वचन :-# अनीति के रास्ते पर चलने वाले का बीच राह में ही पतन हो जाता है l*
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व्यक्ति परिचय

अनमोल वचन :-# दो चीजें आपका परिचय कराती हैं : आपका धैर्य, जब आपके पास कुछ भी न हो और...
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प्रभु की समीपता

अनमोल वचन :-# धर्यता और विनम्रता नामक दो गुणों से व्यक्ति की ईश्वर से समीपता बनी रहती है l*
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उच्च विचार

अनमोल वचन :-# दिनरात अपने मस्तिष्क को उच्चकोटि के विचारों से भरो जो फल प्राप्त होगा वह निश्चित ही अनोखा...
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मुस्कराना

अनमोल वचन :-# मुस्कराना, संतुष्टता की निशानी है इसलिए सदा मुस्कराते रहो l*
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प्रभु कृपा

अनमोल वचन :-# सच्चाई, सात्विकता और सरलता के बिना भगवान् की कृपा कदापि प्राप्त नहीं की जा सकती l*
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जीवन महत्व

अनमोल वचन :-# आप अपने जीवन का महत्व समझकर चलो तो दूसरे भी महत्व देंगे l*
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जीवन महत्व

अनमोल वचन :-# आप अपने जीवन का महत्व समझकर चलो तो दूसरे भी महत्व देंगे l*
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भारतीय शिक्षा की महक

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असहाय समाज वर्ग 1995 अक्तूबर दिसम्बर 

प्राचीन भारतीय निशुल्क शिक्षा-प्रणाली अपने आप में विशाल हृदयी होने के कारण विश्वभर में जानी और पहचानी गई थी l भारत विश्व गुरु कहलाया था l भारतीय शिक्षा गुरुकुल परम्परा पर आधारित थी जिसमें सहयोग, सहभोज, सत्संग, लोक अनुदान की पवित्र भावना सद्विचार,सत्कर्मो से विश्व का कल्याण होता था l गुरुकुल कभी किसी का शोषण नहीं, मात्र पोषण ही करते थे l तभी तो “सारी धरती गोपाल की है l“ भारत मात्र उद्घोष ही नहीं करता है, सारे विश्व को एक परिवार भी मानता है l


गुरुकुल में राजा, रंक और भिखारी सभी के होनहार बच्चों को अपने जीवन में आगे बढ़ने का एक समान सुअवसर प्राप्त होता था l उनके साथ एक समान व्यवहार होता था l गुरु व आचार्य जन शिष्यों के अँधेरे जीवन में तात्विक विषय ज्ञान-विज्ञान, ध्यान, लग्न, मेहनत, योग्यता, निपुणता, प्रतिभा और शुद्ध आचार-व्यवहार जैसे सद्गुणों का प्रकाश करके उन्हें दीप्तमान करते थे l इससे बच्चों के जीवन की नींव ठोस होती थी l उनके शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा का संतुलित विकास होता था l बच्चे विश्व-बंधु बनते थे जो गुरु व आचार्यों के आशीर्वाद और बच्चों की लग्न तथा मेहनत का ही प्रतिफल होता था l


भारतीय गुरुकुलों में शिक्षण-शुल्क प्रथा का अपना कोई भी महत्व नहीं था l गुरुकुलों में शुल्क रहित शिक्षण-प्रथा से ही गुरु तथा शिष्य का निर्वहन, साधना, समृद्धि और विकास होता था l स्वेच्छा से सामर्थ्यानुसार, बिना किसी भय के ख़ुशी-ख़ुशी से दिया जाने वाला लोक अनुदान बच्चों के जीवन का निर्माण करता था l
कोई भी प्राचीन गुरुकुल एक वह दिव्य कर्मशाला थी जहाँ बच्चों में योग्यता पनपती थी l वहां उन्हें दुःख-सुख का सामना करने का अनोखा साहस मिलता था l जीवन के हर क्षेत्र में आत्म सम्मान के साथ सर उठाकर चलने और समय पड़ने पर शेर की तरह दहाड़ करने के साथ-साथ जीने और मरने की भी एक अनोखी मस्ती प्राप्त होती थी l इन गुणों को प्रदान करता था – आचार्यों, अभिभावकों, राजनीतिज्ञों और प्रशासकों का योगदान l गुरुकुलों की गरिमा अविरल जलधारा समान प्रवाहित होती रहती थी l गुरुकुलों को अनुदान से प्राप्त अन्न, धन, वस्त्र और भूमि आदि पर मात्र गुरुकुल में कार्यरत मान्य आचार्यों का जितना स्वामित्व होता था, अध्ययनरत, अध्ययनकाल तक उस पर शिष्यों का भी उतना ही स्वामित्व रहता था l दोनों में प्रेम, सहयोग, त्याग और बलिदान की पवित्र भावना होती थी l आचार्य शिष्यों के जीवन का निर्माण करते थे , उनका मार्गदर्शन करते थे जबकि शिष्य पूर्ण ज्ञानार्जित करने के पश्चात् मात्र कर्तव्य परायण होकर अपने माता-पिता, गाँव, समाज, शहर, और राष्ट्र ही की सेवा करते थे l


भारतीय शिक्षा–क्षेत्र मात्र निःस्वार्थ सेवा-क्षेत्र रहा है जिसमें निष्कामी आचार्य तथा ज्ञान पिपासु विद्यार्थियों की महती आवश्यकता बनी रहती थी l वह तो सदैव सबके लिए ज्ञान का प्रणेता और मार्ग दर्शक ही था l आचार्य भली प्रकार जानते थे – उन्हें विद्यार्थियों को किस प्रकार का शिक्षण देने के साथ-साथ प्रशिक्षण भी देना है l
वैसे शिक्षण-प्रशिक्षण लेने की कोई आयु नहीं होती है l आवश्यकता है तो मात्र विद्यार्थी के दृढ़ निश्चय की कि वह क्या करना चाहता है, क्या कर रहा है ? वह क्या बनना चाहता है, क्या बन गया है ? वह क्या पाना चाहता है, उसने अभी तक पाया क्या है ? अगर वह अपना उद्देश्य पाने में बार-बार असफल रहा हो, उसके लिए उसे किसी प्रकार की सहायता की आवश्यकता हो, किसी शंका का समाधान ही करवाना चाहता हो तो आ जाये उसका निवारण करवाने को l गुरुकुल के आचार्यों की शरण ले l वहां उसे हर समस्या का समाधान मिलेगा l वह जब भी आये, अपने साथ श्रद्धा, प्रेम, भक्ति और विश्वास अवश्य लाये, भूल नहीं जाना l हमारे आचार्य यही शुल्क लेते हैं l इनके बिना किसी को वहां उनसे कुछ भी नहीं है, मिलने वाला l
आज भारत माता के तन पर लिपटा सुंदर कपड़ा जगह-जगह से कटा हुआ है l भारतीय शिक्षा सदियों से आकंताओं, अत्याचारियों की बर्बरता, क्रूरता का शिकार हुई है l उसकी व्यवस्था अस्त-व्यस्त हो चुकी है l कपड़ा तो ठोस है, घिसा नहीं है, मात्र कटा हुआ है l वह तो अब भी हर मौसम का सामना करने में सक्षम है l भारतीय शिक्षा अव्यवस्थित होते हुए भी किसी अन्य राष्ट्र की शिक्षा-प्रणाली की तुलना में अब भी कम नहीं, श्रेष्ठ ही है l जरुरी है – उस कपड़े की सिलाई करना l उसे पुनः साफ-सुथरा करके फिर से उपयोगी बनाना l गुरुकुल शिक्षा का पुनर्गठन करना उसे उचित नेतृत्व प्रदान करना l


क्या हमें किसी अन्य तन का मात्र सुंदर कपड़ा देख अपने तन का उपयोगी एवं सुखदायी कपड़े का त्याग कर देना चाहिए ? हमें अपनी जीवनोपयोगी भारतीय शिक्षा प्रणाली को भुला देना चाहिए ? उसके स्थान पर किसी अन्य राष्ट्र से उपलब्ध शिक्षा-प्रणाली को स्वीकार कर लेना चाहिए ? नहीं, कभी नहीं l हमें गुरुकुल शिक्षा-प्रणाली को पुनः समझना होगा l उसे आधुनिक नई कसौटी पर परखना होगा l तभी वह एक दिन देश, काल, और पात्र के अनुकूल तथा जन मानस के अनुरूप, उपयोगी सिद्ध होगी l वैसे किसी कमजोर रोगी के तन से लिया हुआ कोई भी कपड़ा एक हृष्ट-पुष्ट निरोगी काया को मात्र रोगों के अतिरिक्त कुछ और दे भी क्या सकता है ? ऐसे कपड़े की तरह ली गई अन्य राष्ट्र की शिक्षा-प्रणाली भारत वर्ष के लिए किसी भयानक संक्रामक रोग से कम नहीं है l इससे उसे दूर रखने में ही हम सबका हित है l


आज हम वर्तमान शिक्षा-प्रणाली को अँधेरे का कारण मान रहे हैं लेकिन अँधेरे को दोष देने से कहीं अच्छा है – कोई एक दीप जला देना l कभी-कभी भारतीयन शिक्षा का मंद गति से प्रवाहित होने वाला मदमाती महक का मधुर झोंका न जाने कहाँ से आकर कोमल मन को स्पर्श कर जाता है ? मन आनंदित हो जाता है l लगता है वह कुछ कह रहा हो -


गुण छुपाये छुप नहीं पाता, गुण का स्वभाव है यही,
फुलवारी अपनी फूलों भरी, सुगंध रोके, रूकती है नहीं l

चेतन कौशल “नूरपुरी”

पाश्चात्य शिक्षा से हमें क्या मिला ?

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असहाय समाज वर्ग 1995 अक्तूबर-दिसम्बर 

भारत पराधीन हो गया l कारण था – उस समय के महत्वाकांक्षी, अहंकारी राजनीतिज्ञों का अपने गर्व में चूर रहकर छोटी-छोटी बातों के लिए मात्र अपने हित में बदले की भावना से एक दूसरे को नीचा दिखाने हेतु आपस में लड़ते रहना l स्थान-स्थान पर आचार्यों तथा विद्वानों का अपमान करना l यहाँ-तहां उनकी विद्वता का उपहास उड़ाया जाना l ज्ञान-विद्या की निरंतर उपेक्षा करने से राजनीतिज्ञों को सही समय पर उचित मार्गदर्शन न मिलना l परिणाम स्वरूप भारत की आंतरिक कमजोरी देख अन्य राष्ट्र छल –फरेव वाली कूटनीति की चालों द्वारा आतंकित करने लगे व उसे दोनों हाथों से दिन-रत लूटने लगे और वह लंबे समय तक निरंतर लुटता रहा l


एक बार फिर लोगों में जाग्रति आई और उनके द्वारा त्याग ओंर लाखों बलिदान देने के पश्चात् 15 अगस्त 1947 के दिन भारत की पुनः उसकी अमूल्य राजनैतिक स्वतंत्रता मिल गई l स्वाधीन देश का फिर से विकास होने लगा l गुरुकुल भाषा संस्कृत के स्थान पर अंग्रेजी ज्ञान-प्रचार होने लगा l अंग्रेजी शिक्षा जन-जन तक पहुंची l अंग्रेजी ज्ञान बढ़ा फिर भी वह सब पर्याप्त नहीं हो पाया जो कि होना चाहिए था l वास्तविक शिक्षा भारतीय जन मानस की मूल आवश्यकता है l उसे मात्र उसके अनुरूप तथा देश, काल और पात्र के अनुकूल अवश्य होना चाहिए l


भारत एक कृषि प्रधान देश है l लोग मेहनत –मजदूरी करना सर्वश्रेष्ठ समझते है l अपना पेट भरते हैं l बच्चों का पालन-पोषण करते हैं l यही नहीं वे उनके भविष्य का निर्माण करने हेतु वे उन्हें अध्ययन करने के लिए घर से पाठशाला, पाठशाला से विद्यालय, विद्यालय से महाविद्यालय भी भेजते हैं l लेकिन दुर्भाग्य है, स्नातक बनने या विद्या ग्रहण करने के पश्चात् भी वे मात्र बाबु-नौकर ही बन पाते हैं l कुर्सी लेना , आदेश चलाना ही जानते हैं और हाथ से कोई कार्य करने के नाम पर कुछ नहीं सीख पाते हैं l सरकारी नौकरी का आभाव, बेरोजगारी कहलाती है फिर भी गैर सरकारी शिक्षण संस्थाएं एक के पश्चात् एक करके अनेकों निरंतर खुली हैं l उन्हें सरकारी मान्यताये मिली हैं l बेरोजगारी कम होने के स्थान पर बढती जा रही है l
इन शिक्षण संस्थाओं में अध्ययन हेतु प्रवेश-शुल्क की राशि दिन-प्रतिदिन किसी विशाल, भयानक अजगर के समान निःसंकोच अपना मुंह फैलाये जा रही है l अन्य दैनिक उपयोगी वस्तुएं तो महंगी हो रही हैं, शिक्षा भी महंगी हुई है, शिक्षा शुल्क बढ़ रहे हैं l विभिन्न श्रेणियों के परिणाम निकलने के पश्चात् नित नई श्रेणियां विद्यार्थियों के लिए नये महंगे प्रवेश शुल्क का संदेश मिल जाता है l


यह प्राकृतिक देन् है परन्तु आवश्यक नहीं कि प्रत्येक विद्यार्थी अपने हर विषय में मेघावी ही हो l बच्चे को उससे संबंधित कमजोर विषयों की ज्ञानपूर्ति करने के लिए किसी पाठशाला या विद्यालय में में मिलने वाला शिक्षक सहयोग और अध्ययन काल भी पर्याप्त नहीं होता है l

कारणवश ज्ञानपूर्ति करने के लिए उसे किसी अन्य माध्यम का ही सहारा लेना पड़ता है l यदि अभिभावक शिक्षित हों तो उसे घर से बाहर कहीं और जाने की आवश्यकता नहीं होती है l घर पर सहायता न मिलने पर ही उसे बाहर किसी की शरण लेने पड़ती है जो मुंह माँगा शिक्षण-शुल्क भी लेता है l इससे कई बार मेहनत मजदूरी पर आश्रित अभिभावकों की आर्थिक असमर्थता उनके होनहार बच्चों के भविष्य की निराशा भी बन जाती है l महंगी शिक्षा मेहनत मजदूरी के घर में प्रवेश नहीं कर पाती है l बच्चों का बड़ा होकर कुछ बनना, कुछ करके दिखना जो उनका दर्पण तुल्य स्वप्न होता है, टूट कर बिखर जाता है l


समय-समय पर बच्चों को पाठशाला का बढ़िया पहनावा, ढेर सी पुस्तकें, पेंसिलें, रबड़, कापियां, उनके यातायात का खर्च, विद्यालय भवन निर्माण, सफाई और उसके रख – रखाव के लिए भवन अनुदान, खेलों में भाग लेने के लिए खेल अनुदान और परीक्षा में बैठने के लिए परीक्षा शुल्क की विभिन्न देय राशियाँ जो प्रति वर्ष देय की जाती हैं – विद्यार्थियों और उनके सीमित आय वाले अभिभावकों के लिए तब तक चिंता का विषय बनी रहती है, जब तक वह देय नहीं हो जाती हैं l


इस प्रकार हम देख चुके हैं कि विकास के नाम पर भारतीय शिक्षा-क्षेत्र लार्ड मैकाले द्वारा व्यवस्थित शुल्क प्रधान आधुनिक शिक्षा-प्रणाली के कारण आर्थिक शोषण का अखाड़ा और धन सृजन करने का स्रोत मात्र बनकर रह गया है l वर्तमान विद्यालय, मदरसे, मिशनरियों से दिशाहीन शिक्षा प्रोत्साहन दे रही है, पैदा कर रही है – “बेरोजगारी” अर्थात दुःख, चिंता, रोग-शोक, और निराशा l “भ्रष्टाचार” अर्थात धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, नीति, न्याय की अव्यवस्था l “दानवता” अर्थात उग्रवाद, आतंकवाद, अलगाववाद, पत्थरवाज, आगजनी, अपहरण, धर्मांतरण, बलात्कार, हिंसा और देशद्रोह l


क्या यह सब भारत के किसी सम्मानित भद्र माँ-बाप, भाई-बहन, पति-पत्नी, परिवार, गाँव, शहर और उसके समग्र समाज के माथे लगा कलंक नहीं है ? क्या वर्तमान शिक्षा से भारत का उद्दार हो सकता है ? क्या इससे भारत के जन-जन की आवश्यकताएं पूर्ण हो सकती हैं ? क्या इससे रामराज्य का सपना पुनः साकार हो सकता है ? अगर नहीं तो देखो अपने अतीत को l उस समय भारत में कौन सी शिक्षा-प्रणाली प्रचलित थी ? जो वह आज तलक विश्वभर में जन-जन की जुवान पर चर्चा का विषय बनी हुई है और सकल जगत आज भी उसके नाम के आगे नतमस्तक होता है l

चेतन कौशल “नूरपुरी”

गुरुकुल शिक्षा पद्दति और संस्कार

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आलेख – परम्परागत गुरुकुल शिक्षा मातृवन्दना जुलाई 2019

प्राचीन भारतीय निशुल्क शिक्षा-प्रणाली अपने आप में विशाल हृदयी होने के कारण विश्वभर में जानी और पहचानी गई थी l भारत विश्वगुरु कहलाया था l भारतीय शिक्षा गुरुकुल परंपरा पर आधारित थी जिसमे सहयोग, सहभोज, सत्संग, लोकानुदान की पवित्र भावना, सद्विचार, सत्कर्मों से विश्व का कल्याण होता था l
गुरुकुल कभी किसी का शोषण नहीं, मात्र पोषण ही करते थे l तभी तो “सारी धरती गोपाल की है” भारत मात्र उद्घोष ही नहीं करता है, सारे विश्व को एक परिवार भी मानता है l गुरुकुल में राजा, रंक और भिखारी सभी के होनहार बच्चों को अपने जीवन में आगे बढ़ने का एक समान सुअवसर प्राप्त होता था l उनके साथ एक समान व्यवहार होता था l गुरु व आचार्य जन शिष्यों के अँधेरे जीवन में तात्विक विषय ज्ञान-विज्ञान, ध्यान, लग्न, मेहनत, योग्यता, निपुणता, प्रतिभा और शुद्ध अचार-व्यवहार जैसे सद्गुणों का प्रकाश करके उन्हें दीप्तमान करते थे l इससे बच्चों के जीवन की नींव ठोस होती थी l उनके शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा का संतुलित विकास होता था l बच्चे विश्व बंधू बनते थे जो गुरु व आचार्य के आशीर्वाद और बच्चों की लग्न तथा मेहनत का ही प्रतिफल होता था l
भारतीय गुरुकुलों में शिक्षण-शुल्क प्रथा का अपना कोई भी महत्व नहीं था l गुरुकुलों में शुल्क रहित शिक्षण-प्रथा से ही गुरु तथा शिष्य का निर्वहन, साधना, समृद्धि और विकास होता था l स्वेच्छा से सामर्थ्यानुसार, बिना किसी भय के, ख़ुशी-ख़ुशी से दिया जाने वाला लोक अनुदान बच्चों के जीवन का निर्माण करता था l
कोई भी प्राचीन गुरुकुल प्राचीन गुरुकुल एक वह दिव्य कार्यशाला थी जहाँ बच्चों में योग्यता पनपती थी l वहां उन्हें दुःख-सुख का सामना करने का अनोखा साहस मिलता था l जीवन के हर क्षेत्र में आत्म सम्मान के साथ सर उठाकर चलने और समय पड़ने पर शेर की तरह दहाड़ करने के साथ-साथ जीने और मरने की भी एक अनोखी मस्ती प्राप्त होती थी l इन गुणों को प्रदान करता था – आचार्यों, अभिभावकों, राजनीतिज्ञों और प्रशासकों का योगदान l गुरुकुलों की गरिमा अविरल जलधारा समान प्रवाहित होती रहती थी l गुरुकुलों को अनुदान से प्राप्त अन्न, धन, वस्त्र और भूमि आदि पर मात्र गुरुकुल में कार्यरत मानी आचार्यों का जितना स्वामित्व होता था, अध्ययनरत, अध्ययनकाल तक उस पर शिष्यों का भी उतना ही स्वामित्व रहता था l दोनों में प्रेम, सहयोग, त्याग और बलिदान की पवित्र भावना होती थी l आचार्य शिष्यों के जीवन का निर्माण करते थे, उनका मार्गदर्शन करते थे l जबकि शिष्य पूर्ण ज्ञानार्जित करने के पश्चात मात्र कर्तव्य परायण होकर अपने माता-पिता गाँव, समाज, शहर और राष्ट्र ही की सेवा करते थे l भारतीय शिक्षा क्षेत्र मात्र निःस्वार्थ सेवा क्षेत्र रहा है जिसमें निष्कामी आचार्य तथा ज्ञान पिपासु विद्यार्थियों की महती आवश्यकता बनी रहती थी l वह तो सदैव सबके लिए ज्ञान का प्रणेता और मार्ग दर्शक ही था l आचार्य भली प्रकार जानते थे – उन्हें विद्यार्थियों को किस प्रकार का शिक्षण देने के साथ प्रशिक्षण भी देना है l
वैसे शिक्षण-प्रशिक्षण लेने की कोई आयु सीमा नहीं होती है l आवश्यकता है तो मात्र तुम्हारे (विद्यार्थी) दृढ़ निश्चय की कि तुम जीवन में क्या करना चाहते हो, क्या कर रहे हो ? तुम क्या बनना चाहते हो, क्या बन गए हो ? तुम क्या पाना चाहते हो, तुमने अभी तक पाया क्या है ? अगर तुम अपना उद्देश्य पाने में बारबार असफल रहे हो, उसके लिए तुम्हें किसी प्रकार की सहायता की आवश्यकता है, किसी शंका का समाधान ही करवाना हो तो आओ ! उसका निवारण करने को l गुरुकुल के आचर्यों की शरण लो l वहां तुम्हें हर समस्या का हल मिलेगा l
तुम जब भी आना अपने साथ श्रद्धा, प्रेम, भक्ति और विश्वास अवश्य लाना, भूल न जाना l हमारे आचार्य यही शुल्क लेते हैं l बिना इनके तुम्हें वहां उनसे कुछ भी नहीं है, मिलने वाला l भारत माता के तन पर लिपटा हुआ वस्त्र जगह-जगह से कटा हुआ है l भारतीय शिक्षा सदियों से आक्रान्ताओं, अत्याचारियों की बर्बरता, क्रूरता का शिकार हुई है l उसकी व्यवस्था अस्त-व्यस्त हो चुकी है l कपड़ा तो ठोस है, घिसा नहीं है, मात्र कटा हुआ है l वह तो अब भी हर मौसम का सामना करने में पूर्ण सक्षम है l भारतीय शिक्षा अव्यवस्थित होते हुए भी किसी अन्य राष्ट्र की शिक्षा-प्रणाली की तुलना में अब भी कम नहीं, श्रेष्ठ ही है l जरुरी है – उस कपड़े की सिलाई करना l उसे पुनः साफ-सुथरा करके फिर से उपयोगी बनाना l शिक्षा का पुनर्गठन करना, उसे उचित नेतृत्व प्रदान करना l
क्या हमें किसी अन्य तन का मात्र सुंदर कपड़ा देख अपने तन का उपयोगी एवंम सुखदायी कपड़े का त्याग कर देना चाहिए ? हमें अपनी जीवनोपयोगी भारतीय शिक्षा-प्रणाली को भुला देना चाहिए ? उसके स्थान पर किसी अन्य राष्ट्र से उपलब्ध शिक्षा-प्रणाली को स्वीकार कर लेना चाहिए ? नहीं , कभी नहीं l हमें भारतीय शिक्षा प्रणाली को पुनः समझना होगा l उसे आधुनिक नई कसौटी पर परखना होगा l तभी वह एक दिन देश, काल और पात्र के अनुकूल तथा जन मानस के अनुरूप, उपयोगी सिद्ध होगी l वैसे किसी कमजोर रोगी के तन से लिया हुआ कोई भी का कपड़ा एक हृष्ट-पुष्ट निरोगी काया को मात्र रोगों के अतिरिक्त कुछ और दे भी क्या सकता है ? ऐसे कपड़े की तरह ली गई अन्य राष्ट्र की शिक्षा-प्रणाली भारत वर्ष के लिए किसी भयानक संक्रामक रोग से कम नहीं है l इससे उसे दूर रखने में ही हम सबका हित है l
आज हम वर्तमान शिक्षा-प्रणाली को अँधेरे का कारण मान रहे हैं लेकिन अँधेरे को दोष देने से कहीं अच्छा है – कोई एक दीप जला देना l कभी-कभी भारतीय शिक्षा का मंद गति से प्रवाहित होने वाला मदमाती महक का मधुर झोंका न जाने कहाँ से आकर कोमल मन को स्पर्श कर जाता है ? मन आनंदित हो जाता है l लगता है वह कुछ कह रहा हो –
गुण छुपाये चुप नहीं पाता, गुण का स्वभाव है यही,
फुलवारी अपनी फूलों भरी, सुगंध कभी रूकती है नहीं l

चेतन कौशल “नूरपुरी”

ज्ञान के चालीस स्रोत  

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आलेख - शिक्षा कश्मीर टाइम्स 16.11.2008

योग्य गुरु एवंम योग्य विद्यार्थी के संयुक्त प्रयास से प्राप्त विद्या से विद्यार्थी का हृदय और मस्तिष्क प्रकाशित होता है l अगर विद्या प्राप्ति हेतु प्रयत्नशील द्वारा बार-बार प्रयत्न करने पर भी असफलता मिले तो उसे कभी जल्दी हार नहीं मान लेनी चाहिए बल्कि ज्ञान संचयन हेतु पूर्ण लगनता के साथ और अधिक श्रम करना चाहिए ताकि उसमें किसी प्रकार की कोई कमी न रह जाये l
1. लोक भ्रमण करने से विषय वस्तु को भली प्रकार समझा जाता है l
2. साहित्य एवंम सदग्रंथ पड़ने से विषय वस्तु का बोध होता है l
3. सुसंगत करने से विषयक ज्ञान-विज्ञान का पता चलता है l
4. अधिक से अधिक जिज्ञासा रखने से ज्ञान-विज्ञान जाना जाता है l
5. बड़ों का उचित सम्मान और उनसे शिष्ट व्यवहार करने से उचित मार्गदर्शन मिलता है l
6. आत्म चिंतन करने से आत्मबोध होता है l
7. सत्य निष्ठ रहने से संसार का ज्ञान होता है l
8. लेखन-अभ्यास करने से आत्मदर्शन होता है l
9. अध्यात्मिक दृष्टि अपनाने से समस्त संसार एक परिवार दिखाई देता है l
10. प्राकृतिक दर्शन करने से मानसिक शांति प्राप्त होती है l
11. सामाजिक मान-मर्यादाओं की पालना करने से जीवन सुगन्धित बनता है l
12. शैक्षणिक वातावरण बनाने से ज्ञान विज्ञान का विस्तार होता है l
13. कलात्मक अभिनय करने से दूसरों को ज्ञान मिलता है l
14. कलात्मक प्रतियोगिताओं में भाग लेने से आत्मविश्वास बढ़ता है l
15. दैनिक लोक घटित घटनाओं पर दृष्टि रखने से स्वयं को जागृत किया जाता है l
16. समय का सदुपयोग करने से भविष्य प्रकाशमान हो जाता है l
17. कलात्मक शिक्षण-प्रशिक्षण लेने से योग्यता में निखार आता है l
18. उच्च विचार अपनाने से जीवन में सुधार होता है l
19. आत्मविश्वास युक्त कठोर श्रम करने से जीवन विकास होता है l
20. मानवी ऊर्जा ब्रह्मचर्य का महत्व समझ लेने और उसे व्यवहार में लाने से कार्य क्षमता बढ़ती है l
21. मन में शुद्धभाव रखने से आत्म विश्वास बढ़ता है l
22. कर्मनिष्ठ रहने से अनुभव एवंम कार्य कुशलता बढ़ती है l
23. दृढ निश्चय करने से मन में उत्साह भरता है l
24. लोक परम्पराओं का निर्वहन करने से कर्तव्य पालन होता है l
25. स्थानीय लोक सेवी संस्थाओं में भाग लेने से समाज सेवा करने का अवसर मिलता है l
26. संयुक्त रूप से राष्ट्रीय पर्व मनाने से राष्ट्र की एकता एवंम अखंडता प्रदर्शित होती है l
27. स्वधर्म निभाने से संसार में अपनी पहचान बनती है l
28. प्रिय नीतिवान एवंम न्याय प्रिय बनने से सबको न्याय मिलता है l
29. स्वभाव से विनम्र एवंम शांत मगर शूरवीर बनने से जीवन चुनौतिओं का सामना किया जाता है l
30. निडर और धैर्यशील रहने से जीवन का हर संकट दूर होता है l
31. दुःख में प्रसन्न रहना ही शौर्यता है l वीर पुरुष दुःख में भी प्रसन्न रहते है l
32. निरंतर प्रयत्नशील रहने से कार्य में सफलता मिलती है l
33. परंपरागत पैत्रिक व्ययवसाय अपनाने से घर पर ही रोजगार मिल जाता है l
34. तर्क संगत वाद-विवाद करने से एक दूसरे की विचारधारा जानी जाती है l
35. तन, मन, और धन लगाकर कार्य करने से प्रशंसकों और मित्रों की वृद्धि होती है l
36. किसी भी प्रकार अभिमान न करने से लोकप्रियता बढ़ती है l
37. सदा सत्य परन्तु प्रिय बोलने से लोक सम्मान प्राप्त होता है l
38. अनुशासित जीवन यापन करने से भोग सुख का अधिकार मिलता है l
39. कलात्मक व्यवसायिक परिवेश बनाने से भोग सुख और यश प्राप्त होता है l
40. निःस्वार्थ भाव से सेवा करने से वास्तविक सुख व आनंद मिलता है l


चेतन कौशल “नूरपुरी”

परंपरागत शिक्षा-संस्कृति संरक्षण की आवश्यकता

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आलेख – शिक्षा व्यवस्था मातृवंदना फरवरी 2017 
यह शाश्वत सत्य है कि हम जैसी संगत करते हैं, हमारी वैसी भावना होती है l हमारी जैसी भावना उत्पन्न होती है, हमारा वैसा विचार होता है l हमारा जैसा विचार पैदा होता है, हमसे हमारा वैसा ही कर्म होने लगता है और जब हम जैसा कर्म करते हैं, तब हमें उसका वैसा फल भी मिलता है l  
गृहस्थ जीवन में गर्भादान के पश्चात् एक माँ के गर्भ में जब शिशु पूर्णतया विकसित हो जाता है तब उसके साथ ही उसके सभी अंग भी सुचारू ढंग से अपना-अपना कार्य करना आरंभ कर देते हैं l माँ के सो जाने पर शिशु भी सो जाता है और उसके जाग जाने पर वह भी जाग जाता है l इस अवस्था में माँ-बाप के द्वारा उसे जो कुछ सिखाया जाता है शिशु सहजता से सीख जाता है l
इसका उदाहरण हमें महाभारत के पात्र वीर अभिमन्यु से मिलता है l तब अभिमन्यु अपनी माँ सुभद्रा की कोख में पल रहा था l एक दिन महारथी अर्जुन अपनी भार्या सुभद्रा को चक्रव्यूह बेधने की विधि सुनाने लगे l सुभद्रा ने उसे चक्रव्यूह में प्रवेश करने तक तो सुन लिया, पर इससे आगे सुनते-सुनते वह बीच में सो गई, शिशु भी सो गया l चक्रव्यूह से बाहर कैसे निकलना है ? वह बात माँ और बेटा दोनों नहीं सुन पाए l अतः महाभारत युद्ध की अनिवार्यता देखते हुये और चक्रव्यूह बेधन का अपूर्ण ज्ञान होते हुए भी अभिमन्यु को गुरु द्रोणाचार्य द्वारा रचित चक्रव्यूह में प्रवेश करना पड़ा l वह उसमें प्रवेश तो कर गया पर बाहर निकलने के मार्ग का उसे ज्ञान न होने के कारण, वह बाहर नहीं निकल सका l अतः वह वीरगति को प्राप्त हो गया l
जन्म लेने के पश्चात् शिशु सबसे पहले माँ को पहचानता है l ज्यों-ज्यों उसे संसार का बोध होता होने लगता है त्यों-त्यों वह घर के अन्य सदस्यों को भी पहचानने लगता है और उनसे बहुत सा कुछ सीख लेता है l शिशु के साथ सीखने-सिखाने के इस कर्म में सबसे पहले माँ-बाप की सबसे बड़ी भूमिका रहती है l उसके सामने माँ-बाप जैसा कार्य करते हैं, वह उन्हें जैसा कार्य करते हुए देखता है, वह उन्हें जैसा बोलते हुए सुनता है, वह तत्काल उसका अनुसारण भी करने लगता है l हर माँ-बाप चाहते हैं कि उनकी सन्तान उनसे अच्छी हो l वह भविष्य में उनसे भी अधिक बढ़-चढ़कर उन्नति करे l इसी बात का ध्यान रखते हुए उन्हें अपने बच्चो के लिए एक अच्छा वातावरण बनाना होता है l एक अच्छे वातावरण में ही बच्चों को अच्छे संस्कार मिलते हैं और वे अपने जीवन में दिन दुगनी-रात चौगुनी उन्नति करते हैं l
घर से बच्चों को अच्छे संस्कार मिलने के पश्चात विद्यालय में गुरुजनों की बड़ी भूमिका होती है l विद्यालय में अच्छे संस्कारों का संरक्षण होता है, होना भी चाहिए l यह कार्य कभी भारत के परंपरागत गुरुकुल किया करते थे l वहां गुरुजनों के द्वारा ऐसी होनहार प्रतिभाओं को भली प्रकार परखा और तराशा जाता था जो युवा होकर अपने-अपने कार्य क्षेत्र में जी-जान लगाकर कार्य करते थे l परिणाम स्वरूप हमारा भारत विश्व मानचित्र पर अखंड भारत बनकर उभरा और वह सोने की चिड़िया के नाम से सर्व विख्यात हुआ l उन्नति के पश्चात पतन होना निश्चित है, देश का पतन हुआ l वर्तमान भारत जिसे हम सब देख रहे हैं, वह वास्तविक भारत नहीं है जो विश्व मानचित्र पर अखंड महाभारत दिखता था l विभिन्न षड्यंत्रों के कारण उसके कई महत्वपूर्ण क्षेत्र अब उससे कटकर विभिन्न राष्ट्र बन चुके हैं l देश में अब भी अनेकों षड्यंत्र जारी हैं l ऐसी स्थिति में सरकारों को देशहित में कठोर निर्णय लेने होते हैं, लेने भी चाहिए और जनता द्वारा उन्हें अपना भरपूर सहयोग देना चाहिए l भविष्य में सावधान रहने की आवश्यकता है l
भारत में अंग्रेजी साम्राज्य की स्थापना के पश्चात अंग्रेजों ने भारतीय परंपरागत गुरुकुलों की मान्यता समाप्त कर दी थी l और उसके स्थान पर उन्होंने पाश्चात्य शिक्षा-प्रणाली जारी की थी l पाश्चात्य शिक्षा-संस्कृति पर आधारित वर्तमान शिक्षा-व्यवस्था से भारतीय सनातन धर्म, शिक्षा-संस्कृति पर बुरा प्रभाव पड़ा है, पड़ रहा है और निरंतर जारी है l
भारतीय परंपरागत गुरुकुलों की विशेषता यह थी कि ब्रह्मचर्य जीवन में जब बच्चे पूर्णतया विद्या प्राप्त करके स्नातक बनकर युवाओं के रूप में गुरुकुल छोड़ने के पश्चात समाज में आगमन करते थे तब वे समाज की दृष्टि में सच्चे ज्ञानवीर, शूरवीर, धर्मवीर तथा कर्मवीर होते थे l लोग उनका हार्दिक सम्मान करते थे l परन्तु पराधीनता से मुक्ति पाने के पश्चात् भी भारतवर्ष में आज हर युवा अव्यवस्था के दंश से दुखी, अपनी इच्छा का कार्य, कार्य क्षेत्र न मिल पाने के कारण असहाय सा अनुभव कर रहा है l
यह हम सबका दुर्भाग्य ही है कि भारत में परंपरागत गुरुकुल नहीं हैं l वर्तमान शिक्षा के निम्न स्तर तथा शिक्षा व्यवस्था का तेजी से व्यपारीकरण एवंम राजनीतिकरण होने से बच्चों को माँ-बाप से मिलने वाले संस्कारों को कहीं संरक्षण नहीं मिल रहा है l घर पर बच्चों को अच्छे संस्कार तो मिल जाते हैं पर उनका पालन-पोषण करने वाली परंपरागत गुरुकुल प्रधान शिक्षा व्यवस्था आज कहीं दिखती नहीं है l पाश्चात्य शिक्षा व्यवस्था और उसके अधीनस्थ कार्य करने वाले समस्त छोटे तथा बड़े असमर्थ विद्यालय, विद्यालय केन्द्रों से युवा वर्ग दशा और दिशा दोनों से भ्रमित हो रहा है l उसका भविष्य अंधकारमय हो गया है l फिर भी वह अपना हित चाहता है पर उसकी श्रेष्ठता किसमें है ? यहाँ हमें इस बात का विश्लेषण करके देखना अति आवश्यक है l
हम लोगों में कुछ लोग मात्र अपना ही भला चाहते हैं l कुछ लोग अपना और अपने रिश्तेदारों का भला चाहते हैं l कुछ लोग अपना और कुछ लोगों का भला चाहते हैं l जो लोग मात्र अपना भला चाहते हैं, अपने रिश्तेदारों का भला चाहते हैं, अपना और कुछ लोगों का भला चाहते हैं, उनमें निज स्वार्थ भी दिखाई देता है l वे कभी सबका भला होता हुआ नहीं देख सकते l मगर हममें कुछ ऐसे भी लोग हैं जो सब लोगों का भला चाहते हैं l इसमें उनका अपना कोई भी हित नहीं दिखता l वे दूसरों के हित में अपना हित समझते हैं, चाहते हैं l इसलिए सबका भला करने वाले लोग सन्यासी, सर्व श्रेष्ठ लोग होते हैं l
मन के विकार और इच्छाएं बड़ी प्रबल होती हैं l वानप्रस्थ जीवन में उनका अपने विवेक द्वारा सयंमन करने और उनके प्रति हर समय जागरूक रहने की निरंतर आवश्यकता रहती है l वैसे तो हर व्यक्ति स्वतंत्र रहना चाहता है पर स्वतंत्रता का अर्थ यह नहीं है कि प्रभावशाली होने पर भी मर्यादाओं का उल्लंघन किया जाये या हर किसी को उसकी मनमर्जी करने की छूट हो, बल्कि स्वतंत्रता का अर्थ है कि व्यक्ति के द्वारा उन मर्यादाओं की पालना करने के साथ-साथ समाजिक दायित्वों का भी भली प्रकार निर्वहन हो l समर्थवान बनने के लिए हर व्यक्ति ईश्वर से प्रार्थना करके, उसका कृपा-पात्र बन सकता है l
वह प्रार्थना कर सकता है – हे ईश्वर ! हमारे मन में सुसंगत करने का साहस उत्पन्न हो l कुसंगत से हमारी निरंतर दूरी बनी रहे l सुसंगत हमारे मन में शुद्ध भावना पैदा करे l शुद्ध भावना से हमारी हर दुर्बलता, दुर्भावना का नाश हो l शुद्ध भावना से हमारे मन में शुद्ध विचारों की वृद्धि हो l भूलकर भी हमारे मन कोई कुविचार न आये l शुद्ध विचार हमारे सत्कर्मों की सदा वृद्धि करें l आपका हमें कभी विस्मरण न हो l हमसे कभी कोई दुराचार न हो l सत्कर्मों से हमारा सदैव आत्मोत्थान हो l हमारा कभी आत्म-पतन न हो l आप हमें सदा आत्मोन्मुख बनाये रखें l आपकी कृपा से हम सदैव दूसरों की भलाई करने हेतु निमित मात्र बने रहें l यह मनोकामना हम सबकी पूर्ण हो l
सर्वजन हिताय - सर्वजन सुखाये नीति के अंतर्गत परंपरागत सन्यासी और शासक, जन प्रतिनिधि, राजनेता का जीवन एक ही समान होता है, भारत में पहले ऐसा होता था और अब भी है l उनका कार्य, कार्य क्षेत्र अलग-अलग होने पर भी उनकी रचनात्मक एवंम सकारात्मक सोच एक ही समान रहती है l वास्तविक सन्यासी ज्ञानी, भक्त और वैरागी होता है l वह सदैव दूसरों का मार्गदर्शन करता है l यही कारण था कि भारत विश्व गुरु बना l
सर्वजन हिताय - सर्वजन सुखाये नीति के अंतर्गत सबका एक समान विकास करना, विकास किया जाना सरकारी और गैर सरकारी संस्थानों का दायित्व है l आज देशहित में आवश्यकता इस बात की है कि बच्चों को माँ-बाप के द्वारा मिलने वाले शिक्षा संस्कारों का समस्त विद्यालयों में भली प्रकार पालन-पोषण हो, संरक्षण हो l यह कार्य वहां तभी साकार हो सकता है जब भारत सरकार और देश की राज्य सरकारें आपस में परंपरागत गुरुकुलों की भाँती कोई एक ठोस राष्ट्रीय शिक्षा-नीति की घोषणा करके उसे व्यवहारिकता प्रदान करें l इससे भारतवर्ष विश्व मानचित्र पर पुनः अखंड महाभारत एवंम विश्व गुरु बन सकता है l इसके बिना न तो भारतवर्ष का हित है और न ही किसी देशवासी का

चेतन कौशल “नूरपुरी”

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