राष्ट्रीय भावना – 3
क्या हिंदी “हिन्द की राजभाषा” को व्यवहारिक रूप में जन साधारण तक पहुँचाने में कोई बाधा आ रही है ? अगर हाँ, तो हम उसे दूर करने में क्या प्रयास कर रहे हैं ? इस प्रश्न का उत्तर ढूंढना अति आवश्यक है l मुझे भली प्रकार याद है, दिनांक 29 फरवरी 2008 का वह दिन l मैं अपार जन समूह में लघु सचिवालय धर्मशाला की सभागार में बैठा हुआ अति प्रसन्न था l हम सब वहां पर आयोजित केन्द्रीय भूमि जल बोर्ड व सिंचाई एवं जन स्वास्थ्य अधिकारी व कर्मचारियों की संयुक्त बैठक में भाग लेने गए हुए थे l वहां पर विद्यमान गणमान्य अधिकारीयों की बैठक की अध्यक्षता सिंचाई एवं जन स्वास्थ्य मंत्री ने की थी l
सभागार में हर कोई खामोश, कार्रवाई प्रारम्भ होने की प्रतीक्षा कर रहा था l एकाएक वह शुरू हुई और हमारे कान खड़े हो गये l आरम्भ में, राज्य के सिंचाई एवं जन स्वास्थ्य मंत्री माननीय रविन्द्र रवि और चिन्मय स्वामी आश्रम, संस्था की निदेशिका डाक्टर क्षमा मैत्रेय के संभाषण से भारतीयता की झलक अवश्य दिखाई दी l दोनों के भाषण हिंदी भाषा में हुए जिनमें देश के गौरव की महक थी l मुझे पूर्ण आशा थी कि भावी कार्रवाई भी इसी प्रकार चलेगी परन्तु विलायती हवा के तीव्र झोंके से रुख बदल गया और देखते ही देखते सभागार से हिंदी भाषा सूखे पत्ते की तरह उड़कर अमुक दिशा में न जाने कहाँ खो गई l जिसका वहां किसी ने पुनः स्मरण तक नहीं किया – जो भी बोला, जिस किसी ने किसी से पूछा या जिसने कहा, सुना – वह मात्र अंग्रेजी भाषा में ही था l
उस समय मुझे ऐसा लगा मानों हम सब लघु सचिवालय – धर्मशाला की सभागार में नहीं, बल्कि ब्रिटिश संसद में बैठे हुए हैं और कार्रवाई देख रहे हैं, अंतर मात्र इतना था कि हमारे सामने गोरे अंग्रेज नहीं, बल्कि काले अंग्रेज – वो भी स्वदेशी अपने ही भाई थे l वो समाज को बताना चाहते थे कि वे गोरे अंग्रेजों से कहीं ज्यादा बढ़िया अंग्रेजी भाषा बोल और समझ सकते हैं l उनकी अंग्रेजी भाषा, हिंदी भाषा से ज्यादा प्रभावशाली है l अंग्रेजी भाषा में उनका ज्ञान देश की आम जनता आसानी से समझ सकती है l मुझे तो वहां अंग्रेजी साम्राज्य की बू आ रही थी – भले ही वह भारत में कब का समाप्त हो चूका था l
अंग्रेजी भाषा का ज्ञान होना बुरी बात नहीं है l उसे बोलने से पूर्व देश, स्थान और श्रोता का ध्यान रखना ज्यादा जरूरी है l वह लघु सचिवालय अपना था l वहां बैठे सब लोग अपने थे फिर भी वहां सबके सामने राजभाषा हिंदी की अवहेलना और अनदेखी हुई l बोलने वाले लोग हिंदी बोलना भूल गए और जग जान गया कि सचिवालय में राजभाषा हिंदी का कितना प्रयोग होता है और उसे कितना सम्मान दिया जाता है ?
ऐसा लगा मानों मिन्नी सचिवालय में मात्र दो महानुभावों को छोड़कर अन्य किसी को हिंदी या स्थानीय भाषा आती ही नहीं है l हाँ, वे सब पाश्चात्य शिक्षा की भट्टी में तपे हुए अंग्रेजी भाषा के मंजे हुए अच्छे प्रवक्ता अवश्य थे l वे अंग्रेजी भाषा भूलने वाले नहीं थे क्योंकि उन्होंने गोरे अंग्रेजों द्वारा विरासत में प्रदत अंग्रेजी भाषा का परित्याग करके उसका अपमान नहीं करना था l वे हिंदी भाषा बोल सकते थे पर उन्होंने सचिवालय में राजभाषा हिंदी का प्रयोग करके सम्मानित नहीं किया, कहीं गोरे अंग्रेज उनसे नाराज हो जाते तो ——!
भारत या उसके किसी राज्य का, चाहे कोई लघु सचिवालय हो या बड़ा, राज्यसभा हो या लोक सभा अथवा न्याय पालिका वहां पर प्रयोग होने वाली सम्मानित राजभाषा हिंदी में किसी भी जनहित की कार्रवाई, बातचीत अथवा संभाषण के अपरिवर्तित मुख्य अंश मात्र उससे संबंधित विभागीय कार्यालय या अधिकारी तक सीमित न होकर ससम्मान राष्ट्र की विभिन्न स्थानीय भाषाओँ में, उचित माध्यमों द्वारा जन साधारण वर्ग तक पहुँचाना अति आवश्यक है l उनमें पारदर्शिता हो ताकि जन साधारण वर्ग भी उनमें सहभागीदार बन सके और सम्मान सहित जी सके l उसके द्वारा प्रदत योगदान से क्या राष्ट्र का नव निर्माण नहीं हो सकता ? उसका लोकतंत्र में सक्रीय योगदान सुनिश्चित होना चाहिए जो उसका अपना अधिकार है l इससे वह दुनियां को बता सकता है कि भारत उसका भी अपना देश है l वह उसकी रक्षा करने में कभी किसी से पीछे रहने वाला नहीं है l
प्रकाशित 9 नवंबर 2008 दैनिक कश्मीर टाइम्स