आलेख - मानव जीवन दर्शन - कश्मीर टाइम्स 21.10.1996
मानव मन जो उसे नीच कर्म करने से रोकता है, विपदा आने से पूर्व सावधान भी करता है, वह स्वयं बड़े रहस्यमय ढंग से एक ऐसे आवरण में छुपा रहता है जिसके चारों ओर विषय, वासना और विकार रूपी एक के पश्चात् एक पहली, दूसरी तीसरी और चौथी परत के पश्चात् परत चढ़ी रहती है l जब मनुष्य अपनी निरंतर साधना, अभ्यास और वैराग्य के बल से उन सभी आवरणों को हटा देता है , आत्मा का साक्षात् कर लेता है उसे पहचान लेता है और ये जान लेता है कि वह स्वयं कौन है ? क्यों है ? तो वह समाज का सेवक बन जाता है l उसकी मानसिक स्थिति एक साधारण मनुष्य से भिन्न हो जाती है l
मनुष्य का मन उस जल के समान है जिसका अपना कोई रंग-रूप या आकार नहीं है l कोई उसे जब चाहे जैसे वर्तन में डाले, वह अपने स्वभाव के अनुरूप स्वयं को उसमें व्यवस्थित कर लेता है l ठीक यही स्थिति मनुष्य के मन की है l चाहे वह उसे अज्ञानता के गहरे गर्त में धकेल दे या ज्ञानता के उच्च शिखर पर ले जाये, ये उसके अधीन है l उसका मन दोनों कार्य कर सकता है, सक्षम है l इनमें अंतर मात्र ये है कि एक मार्ग से उसका पतन होता है और दूसरे से उत्थान l इन्हें मात्र सत्य पर आधारित शिक्षा से जाना जा सकता है l
संसार में भोग और योग दो ऐसी सीढियाँ हैं जिन पर चढ़कर मनुष्य को भौतिक एवंम अध्यात्मिक सुख की प्राप्ति होती है l यह तो उसके द्वारा विचार करने योग्य बात है कि उसे किस सीढ़ी पर चढ़ना है और किस सीढ़ी पर चढ़कर उसे दुःख मिलता है और किससे सुख ?
महानुभावों का अपने जीवन में यह भली प्रकार विचार युक्त जाना-पहचाना दिव्य अनुभव रहा है कि बुराई संगत करने योग्य वस्तु नहीं है l भोग-चिंतन कुसंगति का बुलावा है l भोग-चितन करने से मनुष्य बुरी संगत में पड़ता है l बुरी संगत करने से बुरी भावना, बुरी भावना से बुरे विचार, बुरे विचारों से बुरे कर्म पैदा होते हैं जिनसे निकलने वाला फल भी बुरा ही होता है l
बुराई से दूर रहो ! इसलिए नहीं कि आप उससे भयभीत हो l वह इसलिए कि दूर रहकर आप उससे संघर्ष करने का अपना सहस बढ़ा सको l मन को बलशाली बना सको l इन्द्रियों को अनुशासित कर सको l फिर देखो, बुराई से संघर्ष करके l इससे निकलने वाले परिणाम से आपको ही नहीं आपके परिवार, गाँव, शहर,समाज और राष्ट्र के साथ-साथ विश्व का भी कल्याण होगा l वास्तविक मानव जीवन यही है l
मनुष्य द्वारा अपने मन को भोग से योग में लगाना सम्भवतः एक बहुत बड़ी तपस्या है – भौतिक सुख में लिप्त रहने वाले मनुष्य को वर्तमान काल में ऐसा करना बहुत कठिन लगता है l
मनुष्य द्वारा अपने मन को भोग से योग में लगाना संभवतः एक बहुत बड़ी तपस्या है – भौतिक सुख में लिप्त रहने वाले मनुष्य को वर्तमान काल में ऐसा करना बहुत कठिन लगता है l ये उसकी अपनी दुर्बलता है l जब तक वह अपने आप को बलशाली नहीं बना लेता, तब तक वह स्वयं ही बुराई का शिकार नहीं होगा बल्कि उससे उसका कोई अपना हितैषी बन्धु भी चैन की नींद नहीं सो सकता l
मनुष्य भोग बिना योग और योग बिना भोग सुख को कभी प्राप्त नहीं कर सकता क्योंकि उसे भोग में योग और योग में भोग का व्यवहारिक अनुभव होना नितांत आवश्यक है l वह चाहे पढ़ाई से जाना गया हो या क्रिया अभ्यास से ही सिद्ध किया गया हो l अगर जीवन में इन दोनों का मिला-जुला अनुभव हो जाये तो वह एक अति श्रेष्ठ अनुभव होगा l इसके लिए कोरी पढ़ाई जो आचरण में न लाई जाये, नीरस है और कोरा क्रिया अभ्यास जिसका पढ़ाई किये बिना आचरण किया गया हो - आनंद रहित है l
जिस प्रकार साज और आवाज के मेल से किसी नर्तकी के पैर न चाहते हुए भी अपने आप थिरकने आरम्भ हो जाते हैं, ठीक उसी प्रकार अध्यन के साथ-साथ उसका आचरण करने से मनुष्य जीवन भी स्वयं ही सस्भी सुखों से परिपूर्ण होता जाता है l
प्राचीन काल में ही क्यों आज भी हमारे बीच में ऐसे कई महानुभाव विद्यमान हैं जो आजीवन अविवाहित रहने का प्रण किये हुए हैं और दूसरे गृहस्थ जीवन से निवृत्त होकर उच्च सन्यासी हो गए हैं या जिन्होंने तन, मन और धन से वैराग्य ले लिया है l उनका ध्येय स्थित प्रज्ञ की प्राप्ति अथवा आत्मशांति प्राप्त करने के साथ-साथ सबका कल्याण करना होता है l इनके मार्ग भले ही अलग-अलग हों पर मंजिल एक ही है l
वह ब्रहमचारी या सन्यासी जिसकी बुद्धि किसी इच्छा या वासना के तूफान में कभी अडिग न रह सके, वह न तो ब्रह्मचारी हो सकता है और न ही सन्यासी l उसे ढोंगी कहा जाये तो ज्यादा अच्छा रहेगा – क्योंकि ब्रहमचारी किसी रूप को देखकर कभी मोहित नहीं होता है और सन्यासी किसी का अहित अथवा नीच बात नहीं सोच सकता जिससे उसका या दूसरे का कोई अहित हो l इनमें एक अपने सयंम का पक्का होता है और दूसरा अपने पर्ण का l अपमानित तो वाही होते हैं जो इन दोनों बातों से अनभिज्ञ रहते हैं या वे उनकी उपेक्षा करते हैं l इसलिए समाज में कुछ करने के लिए आवश्यक है अपने प्रति अपनी निरंतर सजगता बनाये रखना और ऐसा प्रयत्न करते रहना जिससे जीवन आत्मोन्मुखी बना रहे l
चेतन कौशल “नूरपुरी”