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विश्व  में हमारी दैनिक आवश्यकताएं बहुत हैं। वह इस समय इतनी अधिक बढ़ गई हैं कि उनसे हमें पल-पल सोचने ही के लिए नहीं बल्कि कुछ न कुछ करने के लिए भी बाध्य होना पड़ता है। हम जो भी कार्य करते हैं भले ही के लिए करते हैं परन्तु कभी-कभी यह भलाई के कार्य समाज हित के लिए वरदान सिद्ध होने के स्थान पर अभिशाप भी बन जाते हैं जिनसे हमें सतर्क रहना अति आवश्यक  है। इस समय हमारी परंपरागत सर्वांगीण विकास करने वाली प्राचीन भारतीय संस्कृति पर काले बादल छा रहे हैं। अगर हमने समय रहते इस ओर तनिक ध्यान नही दिया तो वो दिन दूर नहीं कि वह हमें कहीं दिखाई नहीं देगी।
हमने किसी धातु, शीशा , गत्ता, कागज, प्लास्टिक, पाॅलीथीन, नायलान और रबड़ से निर्मित लेकिन अनुपयोगी हो चुके घरेलु सामान को इधर-उधर नहीं फैंकना है बल्कि उन्हें इकट्ठा करके गांव में आने वाले कबाड़ी को बेच देना है और उससे आर्थिक लाभ कमाना है।
हमने घर का हर रोज जलाने वाला कूड़ा-कचरा जला देना है तथा साग-सब्जी, फल के छिलकों  को पालतु पशुओं को खिलाना है अथवा उसे भोजनालय के साथ लगती क्यारी में गड्ढा बनाकर उसमें दबा देना है ताकि वह वहां सड़-गल कर पौष्टिक  खाद बन जाए और हम उसका खेती में उपयोग कर सकें।
हमनें प्रति दिन घर व गांव के आस-पास की नालियों और गलियों में कूड़ा-कचरा फैेंकने वालों पर कड़ी नजर रखनी है और जरूरत पड़ने पर हमने उन्हें गंदगी से फेैलने वाली बीमारियों से भी अवगत करवाना है ताकि वे साफ-सफाई रखने की ओर ध्यान देकर हमारा सहयोग कर सकें।
हमने लघुशंका व दीर्घशंका  निवार्ण हेतु गांव के खेतों, गलियों, नालियों, नदियों और नालों का न तो स्वयं उपयोग करना है और न ही किसी को करने देना है। उसके स्थान पर हमने सदैव घरेलू व सार्वजनिक शौचालयों का ही प्रयोग करना है और दूसरों को करने के लिए कहना है ताकि मल-मूत्र सीवरेज व्यवस्था के अंतर्गत विसर्जित हो सके और कहीं पेयजल स्रोतों - बावड़ी, कूंआ, हैंडपंप और नलकूप का शुद्ध पानी दूषित  न हो सके।
स्थानीय प्रदूषण  एवं रोग प्रतिरोधक, रोग विनाशक तथा औषधीय  गुण सम्पन्न पेड़-पौधे, झाड़, जड़ी-बूटियों और कंदमूलों को संरक्षित करके हमने जीव प्राणों की रक्षा हेतु उनकी सतत वृद्धि करनी है ताकि आवश्यकता  पड़ने पर हम उनका भरपूर उपयोग कर सकें।
हमने गांव में सामाजिक, धार्मिक, विवाह और पार्टियों के शुभ अवसरों पर होने वाले हवन-यज्ञ, भंडारा, भोज या लंगर से प्रसाद अथवा खाना खाने के लिए पत्तों की बनी पतलों व डुन्नों का ही उपयोग करना है। वहां से अपने घर प्रसाद या खाना ले जाने के लिए थाली अथवा टिफन का प्रयोग करना है ना कि पाॅलीथीन लिफाफों का। इनसे अनाज की बर्बादी होती है और प्रदुषण  फेैलता है।
हमने ऐसी सब सुख-सुविधाओं का सर्वदा के लिए परित्याग कर देना है अथवा उनका दुरुपयोग नहीं करना है जिनसे जल, थल, वायु, अग्नि, आकाश, शब्द, वाणी, कार्य, विचार, चरित्र, हृदय और वातावरण दूषित  होते हों।
गांव के मृत पशुओं को खुले में फैेंकने से सतही जल, भूजल और वायुमंडल दूषित  न हो  इसलिए हमने किसी भी मृत पशु  को ऐसी जगह फैेंकवाना है जहां उसे मांसाहारी पशु-पक्षी तुरंत और आसानी से खा जाएं।
ग्राहक सेवा में गांव का कोई भी दुकानदार अपनी दुकान से बेचा हुआ सामान सदैव अखवार के ही बनाए हुए लिफाफों में डालकर देगा और ग्राहक किसी दुकान से पाॅलीथीन लिफाफों में डाला हुआ सामान नहीं लेगा। वह बाजार जाते हुए अपने साथ घर से कपड़े का बना हुआ थैला अवश्य  लेकर जाएगा ताकि सामान लाने में उसे कोई कठिनाई न हो।
कोई भी दुकानदार अपनी दुकान अथवा गोदाम के कूड़े-कचरे को सड़क पर, नाली में या कहीं आस-पास नहीं फैेंकेगा। वह उसे कूड़ादान में डालेगा जिसकी नियमित सफाई होगी। वह उसे जला देगा या फिर कबाड़ी को बेच देगा। इससे बाजार देखने में अच्छा और सुंदर लगेगा।
दूषित  जल विसर्जित करने वाले कल-कारखानों, अस्पताल और बूचड़खानों के स्वामी यह सुनिश्चित  करेंगे कि उनकी ओर से प्रवाहित होने वाला दूषित जल - शुद्ध भूजल, सतही जल और वायु मण्डल को कभी दूषित  नहीं करेगा। वह कोई रोग नहीं फेैलाएगा। वहां से निकलने वाला कचरा धरती की उपजाऊ गुणवत्ता को नष्ट  नहीं करेगा।
धूल, जहरीली गैसें और धूंआ उगलने वाले मिल - कारखानों के स्वामी और वाहन मालिक सुनिश्चित करेंगे कि उनसे उत्सर्जित धूल, गैसें व धुंआ  स्वच्छ एवं रोग मुक्त पर्यावरण को कोई हानि नहीं पहुंचाएगा क्योंकि जीवन की सुरक्षा सुख सुविधा से कहीं अधिक जरूरी है।
प्रौद्योगिकी इकाइयां विभिन्न प्रकार से प्रदूषण  एवं रोगों से मुक्ति दिलाने वाली जीवनोपयोगी सामग्री, वस्तुओं और उत्पादों का उत्पादन, निर्माण और उनकी सतत वृद्धि करेंगी ताकि प्राणियों का जीवन सुरक्षित एवं रोग मुक्त रह सके।
उपरोक्त परंपरागत प्राचीन भारतीय संस्कृति हमारी जीवनशैली रही है। आइए! हम सब मिलकर इसे और अधिक समृद्ध प्रभावशाली एवं सफल बनाने का अपना दायित्व निभाने हेतु प्रयत्नशील सरकार तथा स्वयं सेवी संस्थानों को सहयोग दें और सफल बनाएं।
जून 2008
मातृवंदना