आलेख - स्वराज कश्मीर टाइम्स 8.11.1996
जब कभी हम एकाकी जीवन में निराशा अनुभव करते हैं तब उस समय हमारी ऐसी भी भावना पैदा हो जाती है कि चलो कहीं किसी सज्जन के पास हो आयें या कहीं किसी रमणीय स्थल पर घूम आयें l यही नहीं हम थोड़ी देर पश्चात् वहां चल भी देते हैं l ऐसा क्यों होता है ? यहाँ पहले हम इसी बात पर विचार करेंगे l
जब हम अपने घर से बाहर निकलते हैं तो उससे कुछ समय पूर्व जहाँ हमने जाना होता है, उस स्थान का दृश्य हमारे मानस पटल पर उभरता है l
वह कोई गाँव होता है या शहर, व्यक्ति होता है या जन सभा l सिनेमा घर होता है या कोई अन्य स्थान l उसका हमारे साथ अपना कोई पुराना संबंध होता है या हमने उससे नया ही संबंध बनाना होता है l वह हमारा पुराना संबंध हो या नया, पुराने के साथ पुरातन और नये साथ नवीनतम संबंध के आकर्षण का ही समावेश होता है l भावना के अनुसार किसी वाधा के कारण जब कभी ऐसा न हो सके तो हमें अशांति का ही मुंह देखना पड़ता है l
जब हममें से कोई व्यक्ति किसी दूरस्थ महानुभाव से मिलता है तो वह उससे उसकी दो बातें सुनता है जबकि अपनी चार सुनाता भी है l ऐसा मात्र ख़ुशी के समय में या विचार विमर्श के समय में ज्ञान के आधार पर होता है l परन्तु जब वहां रोगी होता है तो उस समय आगंतुक अपनी कोई बात न करके मात्र रोगी की द्वा-दारु, सेवा-श्रुषा या उसके स्वास्थ्य से संबंधित बातें करता है l इस प्रकार किन्हीं दो प्रेमियों में उनका प्रेम ही नहीं बनता है बल्कि बढ़ता भी है l वह एक दुसरे से बात कह, सुनकर अपना दुःख-सुख आपस में बाँट लेते हैं l
नेता के रूप में जब कभी हम में से किसी व्यक्ति को किसी जन सभा में बोलने का सुअवसर मिलता है तो वह तब तक बोलता है जब तक सुनने वालों का झुकाव उसके भाषण की ओर रहता है l वह भाषण का आनंद लेते हैं l सिनेमा या रमणीय स्थलों को देखने वाला कोई भी प्रेमी महानुभाव तो उसे देखता ही रहता है l जब वह उन्हें देखकर लौटता है तब राह में या उसके घर में मिलने वालों के साथ वह अपनी पसंद के दृश्यों के बारे में बातें करता है कि उसे वहां क्या अच्छा लगा और क्यों ? तब उसे मिलने वाले उसकी बात का अनुमोदन करते हैं या कोई तर्क देकर ही उसे समझाते हैं l
बाढ़, सुखा, आकाल, अग्निकांड, भूकंप जैसे दुखद समय में आस-पड़ोस, गाँव, शहर और राष्ट्र की यही एक भावना होती है कि किसी तरह पीड़ा ग्रस्त लोगों का दुःख दूर हो l वे यथा शक्ति तन, मन से धन, विस्तर, वस्त्र का दान देकर उनकी सहायता करते हैं l
युद्ध काल में किसी राष्ट्र, समाज के हर व्यक्ति की यही एक भावना होती है कि किसी तरह शत्रु पक्ष हार जाये और उसके अपने ही पक्ष की जीत हो l
विश्व में हर महानुभाव का मन उसका अपना मन होता है l इस कारण विभिन्न मन के स्वामियों की आपनी-अपनी आस्थायें होती हैं l वह आस्थायें सुख के समय भले ही अलग-अलग हों पर दुःख के समय पर वे सब एक समान हो जाती हैं l उस समय ऐसा भी लगने लगता है मानों चारों ओर से ऐसा सुनाई दे रहा हो कि हमें इसी समानता को सदैव स्थिर बनाये रखना है l इसलिए कि हम किसी का दुःख बाँट सकें l दुखिया भी दुःख से राहत अनुभव कर सके l दुखियों तक सुख-सुविधाएँ पहुँच सकें l वे भी सुख का आनंद ले सकें l वे यह जान सकें कि उन्हें दुखी ही नहीं रहना है, वह भी सुखी हो सकते हैं l यह सत्य है कि अगर हम ऐसा कुछ करते हैं तो हमें अपने राष्ट्र, समाज और परिवार का सदस्य कहलाने का अधिकार स्वयं ही प्राप्त हो जाता है l
मन के अधीन रहना हर मानव का अपना स्वभाव है l मन का स्वामी बनने के लिए उसे अभ्यास या वैराग्य की शरण लेनी होती है, कड़ी मेहनत करनी पड़ती है l अपनी पवित्र भावना, सद्गुण और संस्कारों के विपरीत अन्य कार्य किया जाना उचित नहीं है l इसी बात को ध्यान में रखकर जिन-जिन महानुभावों के द्वारा पवित्र लोकतंत्र की कल्पना और उसकी पुनर्स्थापना की गई है, उसका संबंध स्वराज ही से है जिसका नियंत्रण अंतरात्मा से होता है l
स्वराज्य का अर्थ है – अपने शरीर पर अपना राज्य l यह कार्य अपनी सजगता, सतर्कता, तत्परता और अपनी सुव्यवस्था द्वारा संचालित होता है l स्व तथा राज्य इन दोनों शब्दों के आपसी मेल से तो अर्थ स्पष्ट है ही पर इसे यहाँ और स्पष्ट करने की नितांत आवश्यकता है l
बुद्धि के द्वारा मन को अपनी दस इन्द्रियों के विषयों से बचाना जिनसे कि मन अपने पांच अश्व रूपी विकारों पर चढ़कर पल-पल में पथ-भ्रष्ट होता रहता है, बुद्धि को भी भ्रमित कर देता है – इन्द्रिय दमन कहलाता है यह क्रिया मन को इन्द्रियों के विषयों में भागीदार न बनाने से होती है l बुद्धि द्वारा मन की बहुत सी इच्छाओं पर नियंत्रण करके या उनका त्याग करके किसी एक अति बलशाली इच्छा को ही पूर्ण करने का योगाभ्यास करने से मनोनिग्रह होता है l इससे मन की भटकन समाप्त होती है l उसे कोई एक कार्य करने के लिए असीमित बल मिल जाता है जिसमें वह मग्न रहता है और उसे सफलता भी मिलती है l
अंत में हमें अपनी बुद्धि का भी जो कभी-कभी मन के विकारों में फंसकर चंचल हो जाती है, उसे स्थितप्रज्ञ बनाये रखने के लिए अपनी आत्मा का ही सहारा लेना चाहिए l उसे आत्म-चिंतन के रूप में मग्न रखना आवश्यक है l अन्यथा विषयों और विकारों का बुद्धि द्वारा चिंतन होने से स्वराज्य या आत्मा का अपना प्रशासन भ्रष्ट होने लगता है l उसकी सुव्यवस्था और सुरक्षा के लिए स्थिर बुद्धि ही की आवश्यकता पड़ती है l हमें अपनी बुद्धि को स्थिर बनाये रखने के लिए सतत प्रयत्नशील रहना चाहिए l इसके लिए हमें सत्संग अर्थात जो सत्य है – उसकी संगत करना अनिवार्य है l सत्संग करने से सत्य की भावना, सत्य की भावना से सत्य विचार, सत्य विचारों से सत्कर्म और सत्कर्मों से निकलने वाला परिणाम भी सत्य ही होता है l इससे नैतिक शक्ति को बल मिलता है l
वर्तमान काल में स्वराज्य के साथ – साथ लोकराज को भी जोड़ दिया गया है अर्थात आत्म सयंम द्वारा संचालित समाज की भलाई l स्वराज्य में कोई भी व्यक्ति स्वयं का निर्माता, पालक और संहारक भी होता है l उसे अपने लिए करना क्या है ? यह निर्णय पर पाना उसकी अपनी बुद्धि पर निर्भर करता है l लोकराज तो बहुत लोगों का जनसमूह है जिसमें विभिन्न अंतरात्माओं के द्वारा सर्वसम्मत भिन्न-भिन्न कार्य करने की व्यवस्था होती है जो मात्र स्वतन्त्रता पर आधारित होती है l
अगर कभी किसी प्रकार की कोई त्रुटि लोकराज्य में आ जाती है तो हमें स्वराज्य ही का निरीक्षण करना चाहिए l अगर स्वराज्य दोषपूर्ण है तो लोकराज में दोष का आना स्वभाविक ही है l लोकतंत्र को दोषमुक्त बनाये रखने के लिए स्वराज्य या आत्म नियंत्रित प्रशासन व्यवस्था पर कड़ी दृष्टि रखना आवश्यक है l ऐसा किये बिना न तो स्वराज्य और न ही लोकतंत्र की सुरक्षा सुनिश्चित रह सकती है l भ्रष्टाचार फ़ैलने और अव्यवस्था होने का मात्र यही एक कारण है l यह सब व्यक्ति और समाज की व्यवहारिक बातें हैं जिनका उन्हें ध्यान रखना अनिवार्य है l
चेतन कौशल “नूरपुरी”