Author Image
आलेख – परम्परागत गुरुकुल शिक्षा मातृवन्दना जुलाई 2019

प्राचीन भारतीय निशुल्क शिक्षा-प्रणाली अपने आप में विशाल हृदयी होने के कारण विश्वभर में जानी और पहचानी गई थी l भारत विश्वगुरु कहलाया था l भारतीय शिक्षा गुरुकुल परंपरा पर आधारित थी जिसमे सहयोग, सहभोज, सत्संग, लोकानुदान की पवित्र भावना, सद्विचार, सत्कर्मों से विश्व का कल्याण होता था l
गुरुकुल कभी किसी का शोषण नहीं, मात्र पोषण ही करते थे l तभी तो “सारी धरती गोपाल की है” भारत मात्र उद्घोष ही नहीं करता है, सारे विश्व को एक परिवार भी मानता है l गुरुकुल में राजा, रंक और भिखारी सभी के होनहार बच्चों को अपने जीवन में आगे बढ़ने का एक समान सुअवसर प्राप्त होता था l उनके साथ एक समान व्यवहार होता था l गुरु व आचार्य जन शिष्यों के अँधेरे जीवन में तात्विक विषय ज्ञान-विज्ञान, ध्यान, लग्न, मेहनत, योग्यता, निपुणता, प्रतिभा और शुद्ध अचार-व्यवहार जैसे सद्गुणों का प्रकाश करके उन्हें दीप्तमान करते थे l इससे बच्चों के जीवन की नींव ठोस होती थी l उनके शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा का संतुलित विकास होता था l बच्चे विश्व बंधू बनते थे जो गुरु व आचार्य के आशीर्वाद और बच्चों की लग्न तथा मेहनत का ही प्रतिफल होता था l
भारतीय गुरुकुलों में शिक्षण-शुल्क प्रथा का अपना कोई भी महत्व नहीं था l गुरुकुलों में शुल्क रहित शिक्षण-प्रथा से ही गुरु तथा शिष्य का निर्वहन, साधना, समृद्धि और विकास होता था l स्वेच्छा से सामर्थ्यानुसार, बिना किसी भय के, ख़ुशी-ख़ुशी से दिया जाने वाला लोक अनुदान बच्चों के जीवन का निर्माण करता था l
कोई भी प्राचीन गुरुकुल प्राचीन गुरुकुल एक वह दिव्य कार्यशाला थी जहाँ बच्चों में योग्यता पनपती थी l वहां उन्हें दुःख-सुख का सामना करने का अनोखा साहस मिलता था l जीवन के हर क्षेत्र में आत्म सम्मान के साथ सर उठाकर चलने और समय पड़ने पर शेर की तरह दहाड़ करने के साथ-साथ जीने और मरने की भी एक अनोखी मस्ती प्राप्त होती थी l इन गुणों को प्रदान करता था – आचार्यों, अभिभावकों, राजनीतिज्ञों और प्रशासकों का योगदान l गुरुकुलों की गरिमा अविरल जलधारा समान प्रवाहित होती रहती थी l गुरुकुलों को अनुदान से प्राप्त अन्न, धन, वस्त्र और भूमि आदि पर मात्र गुरुकुल में कार्यरत मानी आचार्यों का जितना स्वामित्व होता था, अध्ययनरत, अध्ययनकाल तक उस पर शिष्यों का भी उतना ही स्वामित्व रहता था l दोनों में प्रेम, सहयोग, त्याग और बलिदान की पवित्र भावना होती थी l आचार्य शिष्यों के जीवन का निर्माण करते थे, उनका मार्गदर्शन करते थे l जबकि शिष्य पूर्ण ज्ञानार्जित करने के पश्चात मात्र कर्तव्य परायण होकर अपने माता-पिता गाँव, समाज, शहर और राष्ट्र ही की सेवा करते थे l भारतीय शिक्षा क्षेत्र मात्र निःस्वार्थ सेवा क्षेत्र रहा है जिसमें निष्कामी आचार्य तथा ज्ञान पिपासु विद्यार्थियों की महती आवश्यकता बनी रहती थी l वह तो सदैव सबके लिए ज्ञान का प्रणेता और मार्ग दर्शक ही था l आचार्य भली प्रकार जानते थे – उन्हें विद्यार्थियों को किस प्रकार का शिक्षण देने के साथ प्रशिक्षण भी देना है l
वैसे शिक्षण-प्रशिक्षण लेने की कोई आयु सीमा नहीं होती है l आवश्यकता है तो मात्र तुम्हारे (विद्यार्थी) दृढ़ निश्चय की कि तुम जीवन में क्या करना चाहते हो, क्या कर रहे हो ? तुम क्या बनना चाहते हो, क्या बन गए हो ? तुम क्या पाना चाहते हो, तुमने अभी तक पाया क्या है ? अगर तुम अपना उद्देश्य पाने में बारबार असफल रहे हो, उसके लिए तुम्हें किसी प्रकार की सहायता की आवश्यकता है, किसी शंका का समाधान ही करवाना हो तो आओ ! उसका निवारण करने को l गुरुकुल के आचर्यों की शरण लो l वहां तुम्हें हर समस्या का हल मिलेगा l
तुम जब भी आना अपने साथ श्रद्धा, प्रेम, भक्ति और विश्वास अवश्य लाना, भूल न जाना l हमारे आचार्य यही शुल्क लेते हैं l बिना इनके तुम्हें वहां उनसे कुछ भी नहीं है, मिलने वाला l भारत माता के तन पर लिपटा हुआ वस्त्र जगह-जगह से कटा हुआ है l भारतीय शिक्षा सदियों से आक्रान्ताओं, अत्याचारियों की बर्बरता, क्रूरता का शिकार हुई है l उसकी व्यवस्था अस्त-व्यस्त हो चुकी है l कपड़ा तो ठोस है, घिसा नहीं है, मात्र कटा हुआ है l वह तो अब भी हर मौसम का सामना करने में पूर्ण सक्षम है l भारतीय शिक्षा अव्यवस्थित होते हुए भी किसी अन्य राष्ट्र की शिक्षा-प्रणाली की तुलना में अब भी कम नहीं, श्रेष्ठ ही है l जरुरी है – उस कपड़े की सिलाई करना l उसे पुनः साफ-सुथरा करके फिर से उपयोगी बनाना l शिक्षा का पुनर्गठन करना, उसे उचित नेतृत्व प्रदान करना l
क्या हमें किसी अन्य तन का मात्र सुंदर कपड़ा देख अपने तन का उपयोगी एवंम सुखदायी कपड़े का त्याग कर देना चाहिए ? हमें अपनी जीवनोपयोगी भारतीय शिक्षा-प्रणाली को भुला देना चाहिए ? उसके स्थान पर किसी अन्य राष्ट्र से उपलब्ध शिक्षा-प्रणाली को स्वीकार कर लेना चाहिए ? नहीं , कभी नहीं l हमें भारतीय शिक्षा प्रणाली को पुनः समझना होगा l उसे आधुनिक नई कसौटी पर परखना होगा l तभी वह एक दिन देश, काल और पात्र के अनुकूल तथा जन मानस के अनुरूप, उपयोगी सिद्ध होगी l वैसे किसी कमजोर रोगी के तन से लिया हुआ कोई भी का कपड़ा एक हृष्ट-पुष्ट निरोगी काया को मात्र रोगों के अतिरिक्त कुछ और दे भी क्या सकता है ? ऐसे कपड़े की तरह ली गई अन्य राष्ट्र की शिक्षा-प्रणाली भारत वर्ष के लिए किसी भयानक संक्रामक रोग से कम नहीं है l इससे उसे दूर रखने में ही हम सबका हित है l
आज हम वर्तमान शिक्षा-प्रणाली को अँधेरे का कारण मान रहे हैं लेकिन अँधेरे को दोष देने से कहीं अच्छा है – कोई एक दीप जला देना l कभी-कभी भारतीय शिक्षा का मंद गति से प्रवाहित होने वाला मदमाती महक का मधुर झोंका न जाने कहाँ से आकर कोमल मन को स्पर्श कर जाता है ? मन आनंदित हो जाता है l लगता है वह कुछ कह रहा हो –
गुण छुपाये चुप नहीं पाता, गुण का स्वभाव है यही,
फुलवारी अपनी फूलों भरी, सुगंध कभी रूकती है नहीं l

चेतन कौशल “नूरपुरी”