आलेख – शिक्षा दर्पण मातृवंदना नवंबर 2019
भारतीय संस्कृति में गुरु का स्थान सर्वोपरी है l घर पर माता-पिता और विद्यालय में गुरु को उच्च स्थान प्राप्त है l शास्त्रों में इन तीनों को गुरु कहा गया है l “मातृदेवो भवः, पितृ देवो भवः, गुरु देवो भवः l गुरु माता को सर्व प्रथम स्थान प्राप्त है क्योंकि वह बच्चे को नव मास तक अपनी खोक में रखे उसका पालन-पोषण करती है l जन्म के पश्चात ज्यों-ज्यों शिशु बड़ा होता जाता है त्यों-त्यों वह उसे आहार लेने तथा बात करना सिखाने के साथ-साथ उठने, बैठने, और चलने के योग्य भी बनाती है l गुरु पिता परिवार के पालन-पोषण हेतु घरेलू सुख-सुविधायें जुटाने का कार्य करता है और परिवार को अच्छे संस्कार देने का भी ध्यान रखता है l विद्यालय में गुरुजन विद्यार्थी में पनप रहे अच्छे संस्कारों की रक्षा करने के साथ-साथ उसे धीरे-धीरे बल भी प्रदान करते हैं ताकि वह भविष्य में आने वाली जीवन की हर चुनौती का डटकर सामना कर सके l
गुरु भले ही घर का हो या विद्यालय का, वह राष्ट्र के प्रति समर्पित भाव वाला होता है l उसके द्वारा किये जाने वाले किसी भी कार्य में राष्ट्रीय भावना का दर्शन होता है जिससे देश-प्रेम छलकता है l गुरु के मन, वचन और कर्म में सदैव निर्भीकता हिलोरे लेती रहती है l वह जनहित में निष्कपट भाव से सोचने, बोलने और कार्य करने वाला होता है l गुरु को अपने विषय का पूर्ण ज्ञान होता है l एक तत्व ज्ञानी या गुरु ही किसी विद्यार्थी को उसकी आवश्यकता अनुसार उचित शिक्षण-प्रशिक्षण देकर उसे सफल स्नातक और अच्छा नागरिक बनाता है l
गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णु गुरुर्देवो महेश्वरः गुरु साक्षात् परम ब्रह्म तस्मै श्री गुरुवै नमः l शास्त्रों में गुरु को ब्रह्मा ,विष्णु, और महेश देवों के तुल्य माना गया है l जिनमें सामाजिक संरचना, पालना और बुराईयों का नाश करने की अपार क्षमता होती है l गुरु आत्मोत्थान करता हुआ अपने विभिन्न अनुभवों के आधार पर विद्यार्थी को उच्च शिक्षण-प्रशिक्षण देकर समर्थ बनाता है l
आदिकाल से सनातनी व्यवस्था अनुसार सनातन समाज में दो गुरु माने गए हैं – धर्मगुरु और राजगुरु l
धर्मगुरु समाज को धर्म की दीक्षा देते थे जबकि राजगुरु राज्य व्यवस्था को सुचारू बनाये रखने हेतु राजा का उचित मार्गदर्शन करते थे l
धर्मगुरु एक हाथ में वेद और दूसरे हाथ में शस्त्रास्त्र धारण करते थे ताकि आवश्यकता पड़ने पर उनसे सर्वजन, जीव-जंतुओं और समाज के शत्रुओं से रक्षा की जा सके l
वे धर्मात्मा होने के साथ-साथ शूरवीर भी कहलाते थे l वे भक्ति और शक्ति दोनों के स्वामी अर्थात धर्म-योद्धा होते थे l
वे गुरुकुल में विद्यार्थियों के संग वेद का पठन-पाठन करते थे और ब्रह्मज्ञान देने के साथ-साथ कला शिक्षण-प्रशिक्षण अभ्यास और प्रतियोगिताएं भी करवाते थे l इससे उनका सर्वांगीण विकास होता था l वहां से स्नातक बनने के पश्चात् विद्यार्थी बदले में गुरु को गुरु-दक्षिणा भी देते थे l
शांति काल में गुरु एकांत में रहकर भजन, आत्मचिंतन-मनन, लेखन कार्य किया करते थे और संकट कल में वे स्वयं शस्त्रास्त्र भी धारण करते थे l
समाज या देश पर आंतरिक या बाह्य संकट काल का सामना करने के लिए वे पूर्वत ही स्वयं और राजा को सेना सहित तैयार रखते थे l संकट पड़ने पर वे युद्ध जीतने के उद्देश्य से राजा को सेना सहित युद्ध नीति अनुसार शस्त्रास्त्रों का भरपूर उपयोग करते और करवाते थे l सिख गुरु परंपरा में सनातन संस्कृति की रक्षा करने हेतु त्याग और बलिदान की अनेकों अद्भुत घटनाएँ इतिहास में विद्यमान हैं l
तत्कालीन मुस्लिम शासकों द्वारा भारतं के लोगों पर घोर अत्याचार किये जा रहे थे, जब गुरु सहवान उनका विरोध करते तब उन्हें भी असहनीय कष्ट भोगने पड़ते थे l दसवें गुरु श्री गोविन्द सिंह जी का तीन पीढ़ियों का अतुलनीय इतिहास रहा है l
चेतन कौशल “नूरपुरी”