15 अगस्त 1947 के दिन स्वदेशी राजनेताओं ने भारत की राजनैतिक सत्ता की बागडोर अपने हाथ ले ली। इसके साथ ही साथ कभी न डूबने वाले अंग्रेजी साम्राज्य का सूर्य, भारत में सदा के लिए अस्त हो गया। भारत से गोरे अंग्रेज चले गए, चेहरे बदल गए। शेष रह गया, अंग्रेजी प्रशासनिक ढांचा, व्यवस्था, कानून, संधियां-समझौते, शिक्षा, चिकित्सा प्रणालियां, खाद, कृषि , उत्पादन, अंग्रेजी जीवन शैली और अंग्रेजी संस्कृति। भारत में भारतीय संविधान बना। वह मौलिक अधिकार एवं निदेशक सिद्धांतों की लुभावनी विभिन्न धाराओं से सुसज्जित भी हुआ पर 65 वर्ष बीत गए, संविधान निर्माताओं ने राष्ट्रीय भविष्य संवारने हेतु संविधान में जो सपना संजोया था, वह आज भी ज्यों का त्यों विद्यमान है। हमने स्वतंत्रता प्राप्त करने के लिए सन् 1857 में क्रांति का जो शंखनाद किया था, उसका उद्देश्य क्या था? यह हम स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात भूल गए। क्या हम कभी संगठित रहे हैं? इसे कौन नहीं जानता? उस समय राष्ट्रीय नेतृत्व का लोहा, विदेशियों ने भी माना था। वे हमसे सीधे दो-दो हाथ करने से घबराते थे। हम सादा जीवन, उच्च विचार और सुसंस्कारों के कारण सदैव धर्मपरायणता, ज्ञान एवं कलानिष्ठा , धैर्यशीलता और शूरवीरता जैसे गुणों से किसी भी आंतरिक या वाह्य चुनौती का सामना करने के लिए हर समय सुसज्जित एवं तैयार रहते थे। यह गुण हमें वेदों से प्राप्त होते थे। वेद दिव्य गुणों के स्रोत , सनातन हैं। सनातन सत्य है। सत्य अखण्ड ब्रह्म है। ब्रह्म वायु समान अकाट्य सर्वव्यापक कण-कण में विद्यमान है। ईश्वर सबका मालिक, एक है। इसलिए वसुधैव कुटुम्बकम् अर्थात विश्व एक परिवार है। भारत ने कहा है। सनातन प्रेमी तथा धर्म परायण माता-पिता की गोद में पनपने और पोषित होने वाली संतान सदैव सदाचार की सहचरी रही है। बच्चों और विद्यार्थियों में माता-पिता व गुरु जनों के प्रति श्रद्धा, प्रेम, भक्ति और विश्वाश जैसे सदगुण हर समय विद्यमान रहते थे। यही कारण है कि वे उनका आदर-सम्मान करने में कभी कहीं कोई चूक या संकोच भी नहीं करते थे। युगों से भारत कृषि प्रधान देश रहा है। उसकी 80% जनता गांवों में रहती है। वहां जल, जंगल, जमीन और वायु पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध होने के कारण, उत्पादन से समाज का भरण, पालन-पोषण सहज होता है। इसलिए गांवों में चिरकाल से गो-पालन, कृषि , बागवानी, व्यापार, हस्तकला, लघु एवं कुटीर उद्योग अपनाए जाते हैं। राजनैतिक स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात , राष्ट्र की आशा के अनुरूप, भारत का नव निर्माण करने हेतु, देश के सशक्त प्रधान मंत्री के नेतृत्व में देश की परंपरागत स्वदेशी , नैतिक, आध्यात्मिक, कलात्मक, वितरण, सांस्कृतिक, प्रशासनिक, शैक्षणिक, आर्थिक, सामाजिक, तकनीकी और न्यायिक व्यवस्था को सुदृढ़, सशक्त एवं सुचारु बनाया जाना चाहिए था। मगर दुर्भाग्यवश आज तक ऐसा हुआ नहीं – देश को बार-बार मात्र पाश्चात्य शिक्षा से ही प्रेरित प्रधान मंत्री मिलते रहे हैं। फूट डालो और राज करो। पहले ब्रिटिश साम्राज्य हित की पोषक , भारत में अंग्रेजी नीति रही। अब भ्रष्टतन्त्र के पोषक , समाज विरोधी तत्व और देश के षड्यंत्रकारियों के द्वारा निजहित में, भारतीय समाज को खण्ड-खण्ड करने और उसे पूर्णत्या खोखला बनाने हेेतु भान्ति- भान्ति के हथकंडे अपनाए जा रहे हैं। देश भर में क्षेत्रवाद से लेकर भाषा , जाति, धर्म, संप्रदाय, धर्मांतरण, ऊंच-नीच, अमीर-गरीब, रंग, वर्ण, मत, पंथ, आरक्षण, अल्प-बहुसंख्यक, और लिंगादि भेद भावों को बढा़वा देकर उसे बांटा जा रहा है। सरकारी आंकड़ों के आधार पर राष्ट्र का विकास माना जाता है जबकि भ्रष्टाचार, काला धन, गबन, घोटालों के रूप में वास्तविकता कुछ और ही होती है। इससे राष्ट्र हित में राष्ट्रीय संगठन शक्ति को भारी आघात पहुंचा है और इससे भारत का संघीय ढांचा कमजोर हुआ है। बच्चों और विद्यार्थियों में माता-पिता व गुरुजनों के प्रति सेवा, आदर सम्मान में निरंतर आ रही कमी, एक बड़ा दुःखदायी विषय है। अज्ञानतावश बहुत से अभिभावक अपने बच्चों को अच्छे संस्कार नहीं दे पा रहेे हैं। जिन बच्चों को उनसे अच्छे संस्कार मिलते हैं, परंपरागत गुरुकुलों के अभाव में उन्हें भली प्रकार फलने-फूलने हेतु, गुरुजनों का अपेक्षित योगदान और सहयोग भी नहीं मिल रहा। राजनेेता, प्रशासक, अधिकारी और कर्मचारी वर्ग एक दूसरे से प्रेम आदर.सम्मान व सहयोग पाने के स्थान पर उपेक्षा का शिकार होते हैं। प्रशासनिक कार्य में विसंगतियां आती हैं। राष्ट्रीय विकास प्रभावित होता है। इसी तरह वरिष्ठ नागरिकों का युवा वर्ग द्वारा स्थान-स्थान पर तिरस्कार और निरादर होता है। उनके सम्मान में निरंतर शिथिलता एवं गिरावट आ रही है। इसका कारण क्या है? क्या धन, पद, ज्ञान, आयु और बल-पराक्रम में बड़ों के द्वारा असमर्थ, असहाय, अल्पायु, अपंग, निर्धन और निर्बल जैसे छोटों के प्रति उनके आचरण में दोष आ रहे हैं? क्या बड़ों का आचरण संदिग्ध हो रहा है? मत भूलो ! कि समाज में पनपने वाली हर बुराई का जन्म किसी व्यक्ति मात्र से होता है। व्यक्ति का जब-जब आत्म-पतन होता है, तब-तब वह मनव तरह-तरह के अनेकों दुव्र्यसनों में लिप्त होकर अपराध और षड्यंत्रों का भी शिकार हो जाता है। इस तरह एक सदाचारी भी अपना लक्ष्य भूलकर दुराचारी बन जाता है। इससे वह स्वयं अपना, परिवार, गांव, समाज, राज्य, राष्ट्र और विश्व का शत्रु बन जाता है। उसकी कोई भी एक छोटी सी भूल, दुसरों के लिए कभी भी बड़ी चुनौती बन सकती है जो किसी का नाश या सर्वविनाश करने में पर्याप्त होती है। इन दिनों समस्त युवावर्ग में असंतोष की लहर पनप रही है। वह स्नातक होकर बेरोजगार रहने के लिए विवश है। वह डिग्री, डिप्लोमा प्राप्त करता है। उसका खर्च उसके माता-पिता वहन करते है ताकि वह अपने पैरों पर खड़ा हो सके। वह बुढ़ापे में उनका सहारा बन सके। उसे रोजगार न मिलने के कारण पूरा परिवार परेशानियोें का शिकार बनता है। उसे महंगाई और निराशा की मार भी झेलनी पड़ती है। आज संपूर्ण राष्ट्र ; राज्य, समाज, गांव, परिवार और हर नागरिक अपनी आंतरिक एवं वाह्य रक्षा-सुरक्षा और विकास चाहता है। ऐसा संभव कैसे होगा? इसके लिए सर्वप्रथम हम सबको परंपरागत संगठित, अनुशासित, चरित्रवान, और अपने कार्य में पारंगत होना होगा, तभी हम देश की आंतरिक एवं वाह्य चुनौतियों का डटकर सामना कर सकेंगे। छोटों को बड़ों की आज्ञा-पालना करनी होगी। उनके द्वारा उन्हें पूरा सम्मान देना होगा, तभी वे अपनी सफलता हेतु उनकी कृपा के पात्र बनेंगे और वे उनसे कुछ सीख सकेंगे। बड़ों के द्वारा अपने जीवन में मन, कर्म और वाणी में सदाचार का पालन करना होगा, तभी वे छोटों के लिए कोई उच्च आदर्श स्थापित कर सकेंगे। युवाओं को स्वयं करने का कोई न कोई मनभावन कार्य अवश्य चुनना होगा जिसमें उनकी अपनी रुचि हो। बदले में कार्यकुशलता बढ़ेगी। अपनी रुचि से किया गया हर कार्य आत्म संतुष्टि प्रदान करता है और विकास में महत्व पूर्ण योगदान देता है। अंत में हम यह भी कह सकते हैं कि जिस प्रकार गाड़ी को एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुंचाने में उसके चार बढ़िया चक्कों का महा योगदान रहता है ठीक उसी प्रकार राष्ट्रीय स्वतंत्रता, सुख-शांति एवं समृद्धि को सुनिश्चित बनाए रखने के लिए राष्ट्र में सशक्त राष्ट्रीय संगठन, कठोर अनुशासन, सदाचार और कार्य-कौशल भी नितांत आवश्यक है।