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आलेख – राष्ट्रीय भावना दैनिक कश्मीर टाइम्स 29.6.1996 और 6.9.1996

किसी भी राष्ट्र की पहचान उसकी अपनी सभ्यता और संस्कृति पर निर्भर करती है l कोई भी देशवासी विदेश में उसके अपने ही राष्ट्र की राष्ट्रीयता, भाषा, पहनावा, रहन-सहन, खाना, आचार- व्यवहार और स्वदेशी भावना से जाना तथा पहचाना जाता है l इसलिए राष्ट्र और उसकी राष्ट्रीयता से संबंधित स्थानीय सभ्यता–संस्कृति का महत्व स्वाभाविक ही बढ़ जाता है l किसी राष्ट्र की सभ्यता– संस्कृति उसके उच्च गुण-संस्कारों के ही कारण महान होती है l इसी आधार पर भारत विश्व भर में सोने की चिड़िया के नाम से विख्यात हुआ था l

विदेशी आक्रान्ता जिनमें तुर्क, हुण, डच, मंगोल, यूनानी, फ़्रांसिसी, पुर्तगाली, मुगल और अंग्रेज प्रमुख थे, भारत में अपने-अपने निश्चित प्रयोजन सिद्ध करने हेतु आये l उन्होंने भारत की सुख-समृद्धि को नष्ट तो किया ही, साथ हो साथ भारतीय सभ्यता-संस्कृति पर अपनी सभ्यता-संस्कृति की छाप भी लगा दी l
इसमें कोई भी संदेह नहीं है कि भारत में स्थानीय भाषा, पहनावा, रहन-सहन, योग साधना, खाना, आचार-व्यवहार जो सब वहां के वातावरण, जलवायु, प्रकृति और परंपरा पर आधारित थे, उनका अब अपना वास्तविक स्वरूप शेष बहुत कम रह गया है l वह बड़ी तेजी से साहित्य की मात्र वस्तु बनती जा रही है l
इस अभूतपूर्व परिवर्तन में आक्रान्ताओं के आतंक का भले ही बड़ा हाथ रहा हो पर उनके साथ-साथ उस समय से संबंधित देश के गद्दारों, भाड़े के विदेशी सैनिकों और सत्ता के महत्वाकांक्षी लोगों का भी कम योगदान नहीं है l स्वदेश में विदेशी आक्रान्ताओं का प्रवेश उन्हीं लोगों के माथे पर लगा कलंक है जो उस समय की विदेशी कूटनीति छल-कपट की चालों से अनभिज्ञ रहे और लालच का शिकार हुए थे l उन्होंने तो सब्जबाग ही देखे थे l इसी कारण वे निरंतर अपनों के हाथों अपने ही प्रिय बंधुओं को मौत के घाट उतारते रहे l


इस प्रकार जो व्यक्ति अपनों का प्रिय न हो सका, प्रिय न कर सका, गैर का क्या करेगा ! बात को आक्रान्ता लोग उदाहरण सहित पगपग पर परखते और सिद्ध भी करते करते थे l जब उनका स्वार्थ सिद्ध हो जाता था तो इनाम में वे उन्हें देते थे, मौत l इससे पूर्व कि उन्हें अपनी गलती का अहसास हो सके, वे अपने सामने साक्षात् मृत्यु देख उनसे अपने शेष जीवन का जीवनदान पाने की याचना भी करते थे, पर तब तक समय हाथ से निकल चुका होता था l अपार धन, सैन्य शक्ति होते हुए भी देश के महान नायक, खलनायक अपने अहंकार वश झूठे यश-मान की लालसा रखने पर स्वयं ही मिट्टी में मिलते चले गये l यह प्रवृत्ति हम में आज भी जारी है l जो कार्य हमारे पूर्वज नहीं कर पाए उन्हें अब हम पूरा कर रहे हैं l हम अपने ही हाथों अपना चेहरा बिगाड़ रहे हैं l


आज हमारा राष्ट्र भले ही स्वतंत्र है l हम स्वतंत्र देशवासी हैं फिर भी विदेशी सभ्यता-संस्कृति हमारे जनमानस पर पूर्ण रूप से प्रभावी है l हम स्वाधीन होकर भी पराधीन हैं l क्या आज विश्व में हमारी अपनी कोई पहचान है ? क्या हमारी सभ्यता-संस्कृति विदेशी सभ्यता-संस्कृति के प्रभाव से प्रभावित नहीं है ? क्या हमारा समाज विभिन्न सभ्यता-संस्कृतियों के नाम पर अल्प संख्यकों, बहुसंख्यकों में विभक्त नहीं हो रहा है ? आज हम अपने ही घर में भयभीत हैं, हम भारतीय होने, भारतीय कहलाने से डरते हैं l हम अपनी सभ्यता-संस्कृति का स्वयं उपहास उड़ाते हैं l उसे भुलाते जा रहे हैं l दूसरों की सभ्यता-संस्कृति का अन्धानुकरण करते हुए हम गर्व अनुभव करते हैं l फिर भी हमारे राष्ट्र का नाम आज भी बड़े मान-सम्मान से लिया जाता है, कारण उसकी प्राचीन प्रतिष्ठित विश्व कल्याणी भावना l उसके द्वारा सबका कल्याण चाहना l प्राचीन भारतीय सभ्यता-संस्कृतिकी उच्च प्रकाष्ठा, सबका सम्मान करना l सबके प्रति प्रेमभाव रखना l “स्वयं जियो और दूसरों को जीने दो, को व्यवहार में लाना l


परन्तु आज की भौतिकवादी अंधी दौड़ में यह सब चौपट हो गया है l हम सब अध्यात्मिक विकास की उपेक्षा करके मात्र संसारिक उन्नति के पीछे हाथ धोकर पड़ गये हैं l हम यह भी भली प्रकार जानते हैं कि अध्यात्मिक सुख दीर्घकाल तक जीवित रहता है, जबकि भौतिक सुख क्षणिक मात्र ही होता है l फिर भी हमारे मन के विकारों ने हमें अपना दास बना लिया है l हमारे जीवन का प्रत्येक पल मानव जीवन के यथार्थ ज्ञान को भूलता जा रहा है l जीवन की वास्तविकता हमारे लिए पहेली बनती जा रही है l प्राचीन भारत ने विश्व में ब्रह्मज्ञान को ही सब विद्याओं का जनक जाना और माना था l उसने हम सबको सुख और समृद्धि भी प्रदान की थी l आधुनिक काल में हमने उसकी उपयोगिता भूलकर उसे अपने दैनिक जीवन से भी अलग कर दिया है l क्या हमारा समाज इतना उन्नत हो गया है कि हमें अब ब्रह्मज्ञान की तनिक भी आवश्यकता नहीं रही है l हमने ऐसा कौन सा गूढ़ रहस्य प्राप्त कर लिया है कि जिससे हमें ब्रह्मज्ञान भी नीरस लगने लगा है ? क्या ब्रह्मज्ञान त्यागने के लिए हमें किसीने बाध्य किया है ? क्या आधुनिक शिक्षा-प्रणाली इसके लिए उत्तरदायी है ?


मानव जीवन अमूल्य है l उसकी उपयोगिता, आवश्यकता प्रकृति और परंपरा का ध्यान रखकर भारतीय आचार्यों ने अध्यात्मिक शिक्षा को हमारे समाज की मूल आवश्यकता माना था l उन्होंने उसे काल, पात्र और समय के अनुकूल बनाया था l आचार्यों द्वारा शिक्षा पात्र को भली प्रकार जाँच-परख और पहचानकर ही दी जाती थी l यह हमारे आचार्यों की दूरदर्शिता नहीं तो और क्या है ? इससे इसी लोक का नहीं परलोक का भी कल्याण हुआ है l राष्ट्र सोने की चिड़िया के नाम से विश्वभर में जाना और पहचाना गया है l
और शायद इसीलिए विदेशी आक्रान्ताओं को विकसित भारत अच्छा नहीं लगा l उन्ही के शब्दों में – “यदि राष्ट्र भारत को नष्ट करना है तो पहले उसके ज्ञान को नष्ट करो l देश को मार्गदर्शन मिलना बंद हो जायेगा l वह एक दिन अवश्य ही पराधीन होगा l” आक्रान्ताओं ने सर्व प्रथम देश की नालंदा, तक्षशिला, पल्लवी, विक्रमशिला और उन जैसे छोटे-बड़े असंख्य विद्यालय, विश्व विद्यालय अपनी घुसपैठ का निशाना बनाये l उन्होंने पहले उनमें विद्यमान महत्वपूर्ण साहित्य ग्रंथों को लूटा l जो समझ नहीं आया, उसे अग्नि में समर्पित कर दिया l आचार्यों को मौत के घाट उतार दिया l उनके द्वारा देश में फूट डालो, राज करो की नीति का आरंभ हुआ l भारतीय नायक, खलनायक आपस में लड़ने लगे l


आज हमारी राष्ट्रभक्ति, राष्ट्रीय भावना भ्रष्टतंत्र के अधीन है l हमें उसका कोई विकल्प भी नहीं दिखाई दे रहा l क्या राष्ट्रीय जन चेतना उसे मुक्ति दिला सकती है ? अगर हम सबका यही एक प्रश्न है तो कोई बताये कि कहाँ हैं हमारे राष्ट्र के निष्कामी, कर्मठ, समर्पित युवा, जन नायक, शिक्षक, अभिभावक, राजनेता, प्रशासक और सेवक ? कहाँ छुप गये हैं, वे सब डरकर ? क्या भयभीत हैं, वह किसी अनहोनी का आभास पाकर ? या मौत ही आतंकित कर रही है जो आएगी अवश्य एक दिन l फिर डरते हो क्यों मर जाने से ? मरना है, मरो शेर की तरह, देश के लिए l स्वागत नये युग का करने के लिए l आत्म निरीक्षण करो और जानो कि तुम स्वयं क्या नहीं कर सकते ? आप सबके हित में अपना भला चाहते हो तो आओ हम सब एक मंच पर सुसंगठित होकर विचार करें l रचनात्मक कार्य करने का प्रण लें ताकि हम सब अपनी विभिन्न स्वयंसेवी संस्थाओं द्वारा चलाई गई लोक कल्याणी योजनाओं का सर्वांगीण विकास करके उनसे पूरा-पूरा लाभ प्राप्त कर सकें l हम अपने इस पुनीत कार्य में तभी सफल हो सकते हैं जब हमारा जीवन उच्च संस्कारों से परिपूर्ण होगा l क्योंकि उच्च संस्कारों से ही उच्च व्यक्तित्व का निर्माण होता है l उससे जीवन के प्रत्येक कार्यक्षेत्र में विजयी होने की अजयी शक्ति मिलती है, भय समाप्त होता है l अभय को तरुण ही धारण करते हैं l इसलिए तरुण ही राष्ट्र की जन चेतना, जन शक्ति और लोक शक्ति हैं l भ्रष्टाचार का भ्रम तोड़ने वाला इंद्र का वज्र भी वही हैं l अपने देश की सभ्यता-संस्कृति के उद्दारक तरुण ही तो हैं l


आज देश को चरित्रवान नव युवाओं की परमावश्यकता है l जिससे वे प्रत्येक परिवार, गाँव, तहसील, जिला, राज्य और राष्ट्र का विकास तथा नवयुग का निर्माण करने के लिए लोक-शक्ति बन सकें l जन चेतना से जन्य लोकशक्ति ही नव युवाओं में सर्वांगीण शक्तियों का विकास कर सकती है l उन्हें जागृत करके लोक कल्याणी योजनाओं के माध्यम से जन–जन तक पहुंचा सकती है l जन साधारण लाभान्वित हो सकते हैं l भले ही यह कार्य कठिन है पर अगर युवाओं की इच्छा-शक्ति दृढ़ हो, वे अपने देश के हित प्रेम और सहयोग देने में सम्पन्न हों तो कुछ भी असंभव भी नहीं है l तरुण ही भारतीय सभ्यता-संस्कृति के रक्षक हैं l वे भारत के हैं और उन्ही के बल से भारत उनका अपना देश है l इसलिए नींद त्यागो और देखो अब भी यह भारत कितना सुंदर और शक्तिशाली है ! उसे संभालो, उसने अभी अपना विश्व स्तरीय प्राचीन भारत का खोया हुआ यश मान पुनः प्राप्त करना है l उसने फिर से अपनी प्राचीन गरिमा बनानी है l उसने अपने ज्ञानदीप से विश्व को नई रह दिखानी है l

चेतन कौशल “नूरपुरी”