असहाय समाज वर्ग 1995 अक्तूबर-दिसम्बर
भारत पराधीन हो गया l कारण था – उस समय के महत्वाकांक्षी, अहंकारी राजनीतिज्ञों का अपने गर्व में चूर रहकर छोटी-छोटी बातों के लिए मात्र अपने हित में बदले की भावना से एक दूसरे को नीचा दिखाने हेतु आपस में लड़ते रहना l स्थान-स्थान पर आचार्यों तथा विद्वानों का अपमान करना l यहाँ-तहां उनकी विद्वता का उपहास उड़ाया जाना l ज्ञान-विद्या की निरंतर उपेक्षा करने से राजनीतिज्ञों को सही समय पर उचित मार्गदर्शन न मिलना l परिणाम स्वरूप भारत की आंतरिक कमजोरी देख अन्य राष्ट्र छल –फरेव वाली कूटनीति की चालों द्वारा आतंकित करने लगे व उसे दोनों हाथों से दिन-रत लूटने लगे और वह लंबे समय तक निरंतर लुटता रहा l
एक बार फिर लोगों में जाग्रति आई और उनके द्वारा त्याग ओंर लाखों बलिदान देने के पश्चात् 15 अगस्त 1947 के दिन भारत की पुनः उसकी अमूल्य राजनैतिक स्वतंत्रता मिल गई l स्वाधीन देश का फिर से विकास होने लगा l गुरुकुल भाषा संस्कृत के स्थान पर अंग्रेजी ज्ञान-प्रचार होने लगा l अंग्रेजी शिक्षा जन-जन तक पहुंची l अंग्रेजी ज्ञान बढ़ा फिर भी वह सब पर्याप्त नहीं हो पाया जो कि होना चाहिए था l वास्तविक शिक्षा भारतीय जन मानस की मूल आवश्यकता है l उसे मात्र उसके अनुरूप तथा देश, काल और पात्र के अनुकूल अवश्य होना चाहिए l
भारत एक कृषि प्रधान देश है l लोग मेहनत –मजदूरी करना सर्वश्रेष्ठ समझते है l अपना पेट भरते हैं l बच्चों का पालन-पोषण करते हैं l यही नहीं वे उनके भविष्य का निर्माण करने हेतु वे उन्हें अध्ययन करने के लिए घर से पाठशाला, पाठशाला से विद्यालय, विद्यालय से महाविद्यालय भी भेजते हैं l लेकिन दुर्भाग्य है, स्नातक बनने या विद्या ग्रहण करने के पश्चात् भी वे मात्र बाबु-नौकर ही बन पाते हैं l कुर्सी लेना , आदेश चलाना ही जानते हैं और हाथ से कोई कार्य करने के नाम पर कुछ नहीं सीख पाते हैं l सरकारी नौकरी का आभाव, बेरोजगारी कहलाती है फिर भी गैर सरकारी शिक्षण संस्थाएं एक के पश्चात् एक करके अनेकों निरंतर खुली हैं l उन्हें सरकारी मान्यताये मिली हैं l बेरोजगारी कम होने के स्थान पर बढती जा रही है l
इन शिक्षण संस्थाओं में अध्ययन हेतु प्रवेश-शुल्क की राशि दिन-प्रतिदिन किसी विशाल, भयानक अजगर के समान निःसंकोच अपना मुंह फैलाये जा रही है l अन्य दैनिक उपयोगी वस्तुएं तो महंगी हो रही हैं, शिक्षा भी महंगी हुई है, शिक्षा शुल्क बढ़ रहे हैं l विभिन्न श्रेणियों के परिणाम निकलने के पश्चात् नित नई श्रेणियां विद्यार्थियों के लिए नये महंगे प्रवेश शुल्क का संदेश मिल जाता है l
यह प्राकृतिक देन् है परन्तु आवश्यक नहीं कि प्रत्येक विद्यार्थी अपने हर विषय में मेघावी ही हो l बच्चे को उससे संबंधित कमजोर विषयों की ज्ञानपूर्ति करने के लिए किसी पाठशाला या विद्यालय में में मिलने वाला शिक्षक सहयोग और अध्ययन काल भी पर्याप्त नहीं होता है l
कारणवश ज्ञानपूर्ति करने के लिए उसे किसी अन्य माध्यम का ही सहारा लेना पड़ता है l यदि अभिभावक शिक्षित हों तो उसे घर से बाहर कहीं और जाने की आवश्यकता नहीं होती है l घर पर सहायता न मिलने पर ही उसे बाहर किसी की शरण लेने पड़ती है जो मुंह माँगा शिक्षण-शुल्क भी लेता है l इससे कई बार मेहनत मजदूरी पर आश्रित अभिभावकों की आर्थिक असमर्थता उनके होनहार बच्चों के भविष्य की निराशा भी बन जाती है l महंगी शिक्षा मेहनत मजदूरी के घर में प्रवेश नहीं कर पाती है l बच्चों का बड़ा होकर कुछ बनना, कुछ करके दिखना जो उनका दर्पण तुल्य स्वप्न होता है, टूट कर बिखर जाता है l
समय-समय पर बच्चों को पाठशाला का बढ़िया पहनावा, ढेर सी पुस्तकें, पेंसिलें, रबड़, कापियां, उनके यातायात का खर्च, विद्यालय भवन निर्माण, सफाई और उसके रख – रखाव के लिए भवन अनुदान, खेलों में भाग लेने के लिए खेल अनुदान और परीक्षा में बैठने के लिए परीक्षा शुल्क की विभिन्न देय राशियाँ जो प्रति वर्ष देय की जाती हैं – विद्यार्थियों और उनके सीमित आय वाले अभिभावकों के लिए तब तक चिंता का विषय बनी रहती है, जब तक वह देय नहीं हो जाती हैं l
इस प्रकार हम देख चुके हैं कि विकास के नाम पर भारतीय शिक्षा-क्षेत्र लार्ड मैकाले द्वारा व्यवस्थित शुल्क प्रधान आधुनिक शिक्षा-प्रणाली के कारण आर्थिक शोषण का अखाड़ा और धन सृजन करने का स्रोत मात्र बनकर रह गया है l वर्तमान विद्यालय, मदरसे, मिशनरियों से दिशाहीन शिक्षा प्रोत्साहन दे रही है, पैदा कर रही है – “बेरोजगारी” अर्थात दुःख, चिंता, रोग-शोक, और निराशा l “भ्रष्टाचार” अर्थात धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, नीति, न्याय की अव्यवस्था l “दानवता” अर्थात उग्रवाद, आतंकवाद, अलगाववाद, पत्थरवाज, आगजनी, अपहरण, धर्मांतरण, बलात्कार, हिंसा और देशद्रोह l
क्या यह सब भारत के किसी सम्मानित भद्र माँ-बाप, भाई-बहन, पति-पत्नी, परिवार, गाँव, शहर और उसके समग्र समाज के माथे लगा कलंक नहीं है ? क्या वर्तमान शिक्षा से भारत का उद्दार हो सकता है ? क्या इससे भारत के जन-जन की आवश्यकताएं पूर्ण हो सकती हैं ? क्या इससे रामराज्य का सपना पुनः साकार हो सकता है ? अगर नहीं तो देखो अपने अतीत को l उस समय भारत में कौन सी शिक्षा-प्रणाली प्रचलित थी ? जो वह आज तलक विश्वभर में जन-जन की जुवान पर चर्चा का विषय बनी हुई है और सकल जगत आज भी उसके नाम के आगे नतमस्तक होता है l
चेतन कौशल “नूरपुरी”