अगर कोई स्थानीय व्यक्ति अच्छा खाता-पीता, सोता है और उसके बारे में लोग कहें कि उसका जीवन सर्वश्रेष्ठ है तो एक विद्यार्थी भी उनकी हां में हां मिलाए क्या? नहीं, वह जानता है कि सुखी जीना मात्र खाने-पीने, सोने तक ही सीमित नहीं है बल्कि वह जीवन की एक कला है। कलात्मक गुणों के कारण ही सुखी जीवन की पहचान होती है। उनसे उसे लौकिक व अलौकिक सुख-शांति प्राप्त होती है। मगर गुण विहीन होने पर उसका वह सब कुछ समाप्त हो जाता है। गुणों से ही विद्यार्थी जीवन का विकास होता है। उसके जीवन को स्वतः ही चार चाँद लग जाते हैं । अपने लक्ष्य से भटका हुआ कोई भी विद्यार्थी अपनी आवश्यकता अनुसार प्रयास करके स्वयं को सन्मार्ग पर ले आता है अथवा उसकी आवश्यकता देखते हुए माता-पिता और गुरुजन (अपने बच्चों और विद्यार्थियों को) ऐसा करने में उसे अपना योगदान देते हैं जो अनिवार्य है भी। यह सत्य है कि जीना जीवन की कला है। कैसे जिया जाता हैं? जीने की कला को जीवन में चरित्रार्थ करने के लिए अनिवार्य है। विद्यार्थी द्वारा किसी आदर्श जीवन का अनुकरण करना। इसके बिना उसका जीवन नीरस रहता है। किसी भी विद्यार्थी को स्नातक बनने के पश्चात उसके व्यक्तित्व को मात्र उसके अपने बल, बुद्धि, विद्या और गुणों से जाना और पहचाना जाता है। अगर वह समर्थवान अपनी सामर्थया का प्रयोग जन हित कार्य में करता है तो वह सोने पर सुहागा सावित होता है। क्या वर्तमान विद्यार्थी ऐसा करने का प्रयत्न करते हैं? क्या उन्हें ऐसा करना अनिवार्य है?