समय वृत्त बड़ी तीव्रता के साथ निरंतर घूम रहा है l समय का गतिशील होने के कारण परिवर्तन - प्रकृति का नियम है l दिन के पश्चात रात और रात के पश्चात दिन का आगमन होता है l विश्व में कभी धर्म का राज स्थापित होता है तो कभी अधर्म का l जैसे कोई मीठा रसदार फल प्राप्त करने के लिए फल का पेड़ ही पर पक जाना अति आवश्यक है, उसी प्रकार सत्सनातन धर्म का पोषण - रक्षण और वर्धन करने के लिए उसके अनुरूप वातावरण का होना नितांत आवश्यक है l वह असत्य, अधर्म, अन्याय और दुराचार का शत्रु है l जहाँ धर्म का वास होता है, वहीँ अधर्म का विनाश होता और जहाँ अधर्म का वास होता है, वहां धर्म कभी होता ही नहीं है l प्राणी जगत में मनुष्य जाति के मानसिक विकार जब अपना उग्र रूप धारण करते हैं तो मनुष्य का बौध्दिक पतन अवश्य होता है l मनुष्य के द्वारा समाज में स्थान - स्थान पर नारी जाति का अपमान, उसका शारीरिक-मानसिक शोषण, अपहरण, बलात्कार, धर्मांतरण किया जाता है l मदिरा पान करने से वह अपना - पराया संबंध भूल जाता है l क्रोध में वह आपसी झगड़े, मारपीट, हिंसा, तोड़फोड़, अग्निकांड करता है – आतंकी, उग्रवादी, जिहादी बनता है l लोभ में वह धन गबन, घोटाले ही नहीं, छल - कपट, षड्यंत्र भी करता है l मोह में वह अपना और अपनों ही का हित चाहता है, उससे संबंधित अनेकों चेष्टायें करता है l अहंकार में वह दूसरों को सदैव तुच्छ और स्वयं को सर्वश्रेष्ठ मानता है l
“जैसा खावे अन्न, वैसा होवे मन” कहावत अपने आप में बहुत कुछ कहती है l संगत से भावना और भावना से विचार उत्पन्न होते हैं l विचारानुसार कर्म, कर्मानुसार निकलने वाला अच्छा - बुरा परिणाम उसका फल मनुष्य की मानसिक प्रवृत्ति पर निर्भर करता है l वह जैसा चाहता है, बन जाता है l पौष्टिक संतुलित भोजन से शरीर, श्रद्धा युक्त प्रेम - भक्ति भाव से मन, स्वाध्यय से बुद्धि और भजन, समर्पण से उसकी आत्मा को बल मिलता है l इससे मनुष्य के पराक्रम, यश, मान और प्रतिष्ठा का वर्धन होता है l मनुष्य की आयु बढ़ती है, इसके साथ ही साथ उसके लिए लोक - परलोक का मार्ग भी प्रशस्त होता है l
प्राचीन भारत को सोने की चिड़िया कहा जाता था, क्योंकि यह अपने समृद्ध संसाधनों, सत्सनातन धर्म, वैभवशाली संस्कृति और सम्पन्न अर्थ-व्यवस्था के कारण विश्व की सबसे धनि सभ्यताओं में से एक था l इसके पीछे सत्सनातन धर्म का रक्षण – पोषण, वर्धन करने वाली आर्यवर्त के मनीषियों की ही सर्व कल्याणकारी सोच थी जो कर्म आधारित व्यापक और सशक्त वैश्विक सत्सनातनी सामाजिक वर्ण व्यवस्था के नाम से जानी गई है l
सामाजिक वर्ण व्यवस्था के अनुसार मानव शरीर के चार अवयव प्रमुख माने गए हैं l मुख से ब्राह्मण, पेट से वैश्य, बाजुओं से क्षत्रिय और पैरों से शूद्र उत्पन्न हुए हैं, यह एक दूसरे के पूरक हैं l जिस प्रकार शरीर के चार अवयवों में से किसी एक अवयव के बिना किसी अन्य अवयव का कभी पोषण, रक्षण नहीं हो सकता, उसी प्रकार समाज की वर्ण व्यवस्था में जो उसकी चार प्रमुख मानवीय शक्तियाँ हैं - एक दूसरे की पूरक, पोषक और रक्षक हैं l
आर्यवर्त काल से ही व्यापक सामाजिक वर्ण व्यवस्था सुचारू रूप से चली आ रही है जिसके अंतर्गत वर्ण व्यवस्था की मानवीय शक्तियां ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र अपने - अपने गुण, संस्कार और स्वभाव के अनुसार कर्म करते हुए सुख-शांति का जीवन यापन करते थे l उससे राष्ट्र वैभव सम्पन्न और समृद्धशाली बना था l समय के थपेड़ों ने इस कर्म प्रधान वर्ण व्यवस्था को जातियों में विभक्त करके, छुआछुत की मनचाही कहानी गढ़कर गहरी ठेस पहुंचाई थी, यह किसी नीच सोच का परिणाम था l समर्थ सामाजिक वर्ण व्यवस्था सदैव कर्म आधारित, कर्म प्रधान है, न तो वह कभी जन्म आधारित थी और न ही वह अब जाति आधारित है l
जो व्यक्ति स्वयं ज्ञान का सृजन, पोषण, वर्धन करता है, सर्व विद्याओं का पंडित होता है, ईश्वरीय तत्व के ज्ञान का सृजन करता है, असत्य, अधर्म, अन्याय और अनाचार के विरूद्ध कलम उठाता है, लोगों को जागरूक करता है, उनका मार्ग दर्शन करता है - ब्राह्मण / आचार्य कहलाता है l स्थानीय ब्राह्मण अभिभावक, ब्राह्मण आचार्य, ब्राह्मण प्रशासक और ब्राह्मण राजनेता मिलकर प्रत्येक गाँव में एक गुरुकुल की स्थापना करके उसे अपनी आय से कुछ अंश दान अवश्य करते थे जिसमें विद्यार्थियों को आवश्यक विषयों का शिक्षण-प्रशिक्षण मिलता था l उससे सत्सनातन धर्म, समाज सशक्त बनता था और राष्ट्र का विकास भी होता था l ब्राह्मण / आचार्य सनातन धर्म का संवाहक होने के नाते समाज में ज्ञान - विज्ञान वृद्धि हेतु हर गाँव के मंदिर में एक गुरुकुल, एक धार्मिक पुस्तकालय, एक गौशाला और एक आयुर्वेदिक चिकित्सालय की स्थापना करते थे l वह सनातन धर्म - संस्कृति, समाज, राष्ट्र की सेवा और रक्षा के प्रति विद्यार्थियों को गुण, संस्कार और स्वभाव अनुसार शिक्षण – प्रशिक्षण देते थे l वह समाज के सभी बच्चों की बिना भेदभाव निशुल्क शिक्षा, चिकित्सा प्रदान करते थे l वह ब्रह्मभाव में स्थिर रहकर विद्यार्थियों को शस्त्र - शास्त्र संबंधी सर्व विद्याओं से युक्त कल्याणकारी कार्य करने हेतु विद्वान्, – ज्ञानवीर, शूरवीर, धर्मवीर और कर्मवीर बनाते थे l
योग्य ब्राह्मण / आचार्य समाज में प्रतिभाओं की खोज एवं योग्य विद्यार्थी का चयन करते थे l वह प्रतिभाओं को संरक्षण और जीवन में आगे बढ़ने का प्रोत्साहन देते थे l वह प्रतिभाओं के जीवन में विद्यमान सर्व कलाओं का विकास करने में सहयोग करते थे l वह प्रतिभागियों के लिए ज्ञान - विज्ञान की प्रतियोगिताओं का आयोजन करते थे l वह प्रतिभाओं के भविष्य में आने वाले संकट, चुनौतियां, विपदाओं से निपटने हेतु विद्यार्थियों को आत्म - रक्षा हेतु तैयार करते थे l उन्हें उचित शिक्षण – प्रशिक्षण देकर समर्थ बनाते थे l
वह वेद धर्म - संस्कृति व ज्ञान - विज्ञान सेवा हेतु प्रतिपल तत्पर रहते थे l वह ज्ञानवीर, तत्व ज्ञानी बनकर विश्व कल्याणकारी कार्य करते थे, मार्ग दर्शन करते थे l वह प्रतिवर्ष अभिभावकों से मेल-मिलाप व विचार विमर्श हेतु कार्यक्रम का आयोजन करते थे l वह महापुरुषों जैसे भगवान् परशुराम की जयंती मनाने हेतु वार्षिक कार्यक्रम तथा इस अवसर पर यज्ञोपवीत संस्कार आदि का आयोजन करते थे l वह गाँव के चहुँमुखी विकास से संबंधित ज्ञान प्रचार - प्रसार हेतु कार्यशालाओं का भी आयोजन करते थे l वह गाँव में अध्यात्मिक विकास हेतु मंदिर परिसरों का उचित रख – रखाव करते थे l वह विद्या मंदिर परिसर के आस-पास मदिरा एवं मांस का क्रय - विक्रय निषेद्ध करते थे l वह मंदिर परिसर में खंडित मूर्तियों के स्थान पर नई मूर्तियों की स्थापना करते थे और सुनिश्चित करते थे कि कोई असामाजिक तत्व उन्हें कभी हानि न पहुंचाये l वह मंदिर तथा मंदिर - परिसर में परंपरागत पूजा करने और पुजारी को रहने की व्यवस्था करते थे l विश्व स्तर पर वैश्विक सत्सनातन आर्य समाज को सशक्त करने हेतु स्थानीय स्तर पर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र सभाओं का गठन किया जाता था l उनको सशक्त बनाने हेतु - सभी लोग मिल बैठकर रामायण, गीता और वैदिक साहित्य का पठन - पाठन किया करते थे l प्रत्येक सनातनी के घर पर एक आवश्यकता अनुसार मंदिर होता था, जहाँ बच्चे अभिभावकों संग सुबह-शाम पूजा करते थे l इससे बच्चों को उच्च संस्कार मिलते थे l
स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात समय - समय पर परम्परागत गुरुकुल शिक्षा-प्रणाली की समीक्षा होनी चाहिए थी लेकिन ऐसा कभी नहीं हुआ l सत्तारूढ़ राजनेताओं के पास गत 60 वर्षों से देश में मात्र असत्य, अधर्म अन्याय और अनीति का राज करने के अतिरिक्त समय नहीं मिला l देश में गिने चुने अत्याचारी, जिहादी, आतंकी मानसिकता वाले राजनेताओं का एक ही गुप्त उद्देश्य रहा है – पहले सनातनी परिवार, समाज और राष्ट्र को ऊँच-नीच, धर्म और जातियों में बांटो, फिर अवसर मिलते ही काटना आरम्भ कर दो l उन्हें तो किसी तरह सनातन धर्म का समूल विनाश करना है l
संतोष की बात है कि सन 2014 के पश्चात राष्ट्रवादी और सनातनी विचारधारा के राजनेता, प्रशासक, आचार्य और अभिभावक लोग, इस गुप्त कार्यक्रम को समय रहते समझ गए ओर परिवर्तन लाने हेतु संगठित भी हो रहे हैं l इससे परिवर्तन की स्पष्ट झलक दिखाई देने लगी है l आशा है भारत अपना पुरातन गौरव पुनः अवश्य प्राप्त करेगा l विश्व स्तर पर सत्सनातन आर्य समाज सशक्त होगा l सरकार के कार्य में सहयोग देने हेतु देश में ब्राह्मण अभिभावक, ब्राह्मण आचार्य, ब्राह्मण प्रशासक और ब्राह्मण राजनेताओं की एक “अखिल भारतीय ब्राह्मण सभा” – गैर सरकारी संगठन” बनेगा जिसके नेतृत्व में प्रांतीय और स्थानीय स्तर पर ब्राह्मण सभाओं का शिघ्रातिशीघ्र पुनर्गठन भी होगा l