दैनिक अमर उजाला में प्रकाशित 24 फरवरी 2008 का समाचार। संयुक्त राष्ट्र ने चेताया – ”विलुप्त होने के कगार पर हैं दुनियां की हजारों भाषाएं। संयुक्त राष्ट्र ने बर्ष 2008 को अंतरराष्ट्रीय भाषा घोषित किया है। 96 फीसदी भाषाएं केवल चार फीसदी लोगों के द्वारा बोली जाती हैं।“ समाचार के अनुसार – ”अन्तरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस मनाने की शुरुआत बर्ष 2000 में हुई थी। 2008 को अन्तरराष्ट्रीय भाषा का बर्ष घोषित करने का उद्देश्य विश्व के बहुभाषी रूप को सहेजना है।“ युनेस्को ने चेेेेताया है – ”जब किसी भाषा का लोप होता है तो मात्र एक भाषा का नहीं बल्कि अवसरों, परंपराओं, यादों, सोचने और अभिव्यक्त करने के जरियों का लोप होता है जबकि बेहतर भविष्य के लिए इनकी बेहद जरूरत होेेती है।“ उपरोक्त विचारों से विश्व के उन महानुभावों को खुली चेतावनी है जो अल्पभाषी लोगों पर अपनी बहुभाषी भाषा का जबरन प्रत्यारोपण करना निज की शान समझते हैं। वे यह नहीं जानते हैं कि उनके द्वारा जो अतिक्रमण किया जा रहा है उससे अल्पभाषी लोगों की भाषा क्षीण ही नहीं होती है बल्कि उसका दुनियां से नाम तक मिट जाता है। ऐसे बहुभाषी लोग अल्प भाषी भाषाओं को क्या सहेजेंगे जो उनका न तो आदर करना जानते हैं और न उन्हें पनपने का अवसर ही देते हैं। उनके द्वारा अल्प भाषी भाषाओं को अभय प्रदान करना तो दुर की बात है। यही कारण है कि इस समय दुनियां की ”सयुक्त राष्ट्र के आकलन द्वारा 6700 भाषाओं में से आधी विलुप्ति के कगार पर हैं जिनमें 96 फीसदी भाषाएं केवल चार फीसदी लोगों के द्वारा बोली जाती हैं। अगर इन्हें सहेज कर नहीं रखा गया तो एक दिन उन्हें ढुंढने पर वह हमें कहीं नहीं मिलेगी।“ समस्त विश्व जो कभी साम्राज्यवादी महाशक्तियों के आंतक से पीड़ित रहा है, उसके कई देश आज तक उस पीड़ा से स्वयं को नहीं उबार सके हैं। उनमें भारत बर्ष भी अपने आप में एक राष्ट्र है। भारत बर्ष को ब्रिटिश साम्राज्य से मुक्त हुए 60 बर्ष व्यतीत हो चुके हैं। भारत के राष्ट्रीय नेताओं ने हिन्दी भाषा को राष्ट्रीय भाषा बनाने का सपना संजोया था पर आज तक वे उसे वह गौरव प्रदान नहीं कर सके हैं जो उसे मिल जाना चाहिए था। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात भी साम्राज्यवादी भाषा अंग्रेजी भारत के राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और जन मानस पर निरंकुश राज कर रही है। होना यह चाहिए था कि हम अंग्रेजी भाषा की मान्यता समाप्त करके उसके स्थान पर हिन्दी को सुशोभित करते, पर हमने ऐसा नहीं किया। यह हमारी कमजोरी नहीं तो और क्या है? आज राष्ट्र भारत और उसकी राष्ट्रीय भाषा को सशक्त कौन बनाएगा? कहीं ऐसा तो नहीं कि हिन्दी भाषा भी अंग्रेजी भाषा के भय से विश्व की हजारों भाषाओं में विलुप्त होने जा रही हो! आज आवश्यकता इस बात की है कि हम राष्ट्रीय भाषा हिन्दी का ससम्मान प्रचार-प्रसार करने हेतु अपने-अपने कार्यालयों का हर कार्य सम्पर्क भाषा हिन्दी के रूप में करने के साथ-साथ क्षेत्रीय भाषाओं को भी प्रोत्साहन दें। इससे हमें निजी लोक गीत-संगीत, पहनावा, रहन-सहन, खान-पान, सोच-विचार, संस्कार और परंपराओं के दर्शन होंगे। हमें इनका हार्दिक सम्मान करते हुए, इन्हें परंपरागत अपने जीवन में अपनाकर अवश्य ही सहेजना होगा अन्यथा वह दिन दूर नहीं कि विश्व में 6700 भाषाओं में से आधी भाषाओं के साथ 96 प्रतिशत भाषाएं जो 4 प्रतिशत लोगों द्वारा बोली जाती हैं और लुप्त होने के कगार पर हैं – वे धीरे-धीरे लुप्त हो जांएगी। देश की आघोषित एवं अव्यावहारिक राष्ट्रीय भाषा हिन्दी और उसके साय में पनपने वाली अनेकों क्षेत्रीय एवं लोक भाषाएं जिन्हें हम कभी ढूंढना चाहेंगे तो वह हमें कहीं नहीं मिलेंगी। तब विश्व में मनाया जाने वाला अंतर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस हमारा कुछ कर सकेगा क्या?।