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यह बात सर्व विदित है कि भारत ऋषि   मुनियों का देश  रहा है। मनीषियों  ने मानव जीवन को मुख्यता चार आश्रमों में विभक्त किया था। उनमें ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और सन्यासाश्रमों के अपने विशेष  सिद्धांत थे।, उच्च आदर्श   थे। उनके अनुसार मनुष्य  अपना सार्थक एवं समर्थ जीवन यापन करता हुआ अपार शक्तियों का स्वामी बन जाता था। भारत की नैतिकता, आध्यात्मिकता और संस्कृति महान थी। जब मैकाले ने ऐसा भारत में देखा और जाना तो वह ईर्ष्यावश  तिलमिला उठा। उसने भारत की इस उच्चस्तरीय जीवन पद्धति को हर प्रकार से नष्ट -भ्रष्ट  करने तथा उसके स्थान पर निम्नतम स्तरीय शैली स्थापित करने का मन बना लिया। उसने ब्रिटिश  संसद में जाकर एक वक्तव्य दिया जो भारत विरुद्ध महाशड्यंत्र था। वही वक्तव्य आगे चलकर भारत में ब्रिटिश  साम्राज्य को लम्बे समय तक हरा-भरा बनाए रखने तथा उसका विस्तार करने हेतु भारत की नैतिक, आध्यात्मिक और सांस्कृतिक शक्तियों का हृास करने वाला ब्रिटिश  शासकों का सहायक नीतिशास्त्र बना।
मैकाले का उद्देश्य  भारत को हर प्रकार से क्षीण-हीन, अपंग और निःसहाय बना कर उसमें ब्रिटिश  साम्राज्य की जड़ों को मजबूत करना था। समय-समय पर भारतीय संत-महात्माओं, समाज सुधारकों, नवयुवाओं, धार्मिक व राजनेताओं ने मैकाले की भारत विरोधी नीतियों का डट कर विरोध किया और अनेकों बलिदान दिए। उनके द्वारा लम्बे समय तक अथक प्रयासों और त्याग से ही बनारस में हिन्दू विश्वविद्यालय तथा हरिद्वार में गुरुकुल कांगड़ी की स्थापना हुई ताकि भारतीय संस्कृति की अखंड पहचान बनी रहे। उसका भली प्रकार विस्तार भी हो सके।
इस प्रकार 15 अगस्त 1947 के दिन स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् देश  भर में सरकारी, गैर सरकारीविद्यालयों महाद्यिालयों और विश्वविद्यलयों से हमें जो दिव्य प्रकाश  मिलने की आशा  बनी थी वह एक बार फिर धूमिल हो गई। सरकार द्वारा इस ओर कोई प्रयास नहीं हुआ बल्कि उन अंग्रेजी फैक्टरियों व कारखानों से पहले की तरह निरंतर सस्ते बाबू और काले अंग्रेज  बन कर निकलते रहे जो कभी ब्रिटिश  साम्राज्य की अवश्यकता मानी जाती थी।
इससे स्पष्ट  होता है कि हम जिस गरिमा के साथ स्वतंत्रता को अंगिकार करने आगे बढ़े थे, वह गरिमा स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात्  और अधिक तीव्र होने के स्थान पर लुप्तप्रायः हो गई है। स्वदेशी  सस्कारों के स्थान पर पाश्चात्य  संस्कार  हमारी रग-रग में समा रहे हैं। अगर इस बढ़ती प्रवृत्ति को अतिशीघ्र रोका न गया तो भारत का एक बार फिर पराधीन होना निश्चित  है। मत भूलो कि राष्ट्रीय  सांस्कृतिक सदभावना, सहकार, प्रेम  और एकता ही अखंड भारत के प्राण हैं।
वर्तमान में बहुत से कार्य मशीनों  से किए जाते हैं। कार्य में असफल होने बाली मशीनों को कार्यशालाओं में ले जाकर मिस्त्री से ठीक भी करवा लिया जाता है, पर हमें देश  भर में कहीं कोई ऐसी कार्यशाला दिखाई नहीं देती है जहां हमारी संस्कृति की त्रुटियों का अवलोकन व सुधार करके उसे पुष्ट  भी किया जाता हो। हां पाश्चात्य  संस्कृति बड़ी तेजी के साथ किसी बाधा के बिना भारतीय संस्कृति पर अवश्य  छा रही है।
राष्ट्रीय  संस्कृति के पोषक  रह चुके गुरुकुलों के देश  में -- विद्यालयों से लेकर विश्व  विद्यालयों तक भारतीय संस्कृति की उपेक्षा होने के कारण पाश्चात्य  संस्कृति के भरण पोषण को ही निर्विवाद रूप में बढ़ावा मिल रहा है। रही सही कसर वर्तमान सरकार द्वारा पूरी की जा रही है। इसके द्वारा विदेशियों का शिक्षा में प्रवेष  के लिए अब रंगमंच तैयार किया जा चुका है। क्या इस तरह हम अपनी संस्कृति की रक्षा कर पाएंगे? क्या हमारी संस्कृति दूसरों के लिए पुनः आदर्श  बन पाएगी?
उपरोक्त बातों से स्पष्ट  होता है कि एक ओर जहां आज भारत को मजबूत सीमाओं की आवश्यकता  है तो दूसरी ओर उसके भीतर सुसंगठित, अनुशासित, चरित्रवान और कार्यकुशल नवयुवाओं की भी आवश्यकता  है जो भारतीय संस्कृति के संवाहक रूप में उसका पुनरुत्थान करने में पूर्णत्या सक्षम और समर्पित हों।
नवम्बर 2009
मातृवन्दना