इसमें लेश मात्र भी संदेह नहीं है कि युगों-यगों से भारतीय सनातन गुरुकुल शिक्षा-प्रणाली ने विश्व की विशाल धरती पर समस्त मानव समाज, संस्कृत स्थानीय भाषा , विद्या-कला, ज्ञान-विज्ञान, सभ्यता-संस्कृति तथा वैदिक साहित्य – दर्शन , शास्त्र आदि का सृजन, पोषण , रक्षा और उसका विकास किया। समस्या व्यक्तित्व विकास की रही हो या आर्थिक, सामाजिक रही हो या राजनैतिक, सभ्यता – कला-सांस्कृतिक रही हो या आध्यात्मिक – गुरुकुल शिक्षा-प्रणाली को हर क्षे़त्र में मिली पूर्ण सफलता उसके अपने अस्तित्व का प्रमाण है। वह अपने आप में पूर्ण थी, सक्षम थी और समर्थ भी। प्रमाणिकता के अनुसार भारतीय इतिहास उन महान् विभूतियों के अदम्य साहस, पराक्रम, न्याय प्रियता, दूरदर्शिता , सद्चरित्रता, धीरता, वीरता, त्याग सेवा-भाव, बलिदान, परोपकार, सादगी, सत्य, प्रेम, भक्ति, जप, तप, ध्यान, और योग-साधना की पवित्र गाथाओं से भरा हुआ है। इनका गुण-गान करती कलम कभी रुकती नहीं है। वाणी कहते, कान श्रवण करते थकते नहीं हैं और आंखें सोना भूल जाती हैं। यह सब गुरुकुल शिक्षा-प्रणाली की ही देन थी जिसके बल पर भारत विश्व में सोने की चिड़िया के नाम से सर्व विख्यात हुआ। सारी धरती गोपाल की है। धरती पर रहने वाले सभी प्राणियों का स्वामी मात्र एक है।विश्व एक परिवार है। कहने वाला अगर संसार में कोई राष्ट्र है तो वह भारत वर्ष ही है। इससे उसके सत्य, ज्ञान, सर्वोदयी भावना और शुद्ध संकल्प का भान होता है। ऐसा विश्व ने माना है। बात सर्व विदित है कि किसी घर की कमजोरी का लाभ कोई बुद्धिमान, महा चतुर, कूटनीतिज्ञ शत्रु ही उठाता है। वह पहले उस घर में फूट डालता है और फिर उसका आनन्द लेता है। समय या असमय पर भारत वर्ष के साथ कुछ ऐसा ही हुआ है। सन् 1835 ई0 में मैकाले ने भारत के एक छोर से दूसरे छोर तक यात्रा करने के पश्चात भली प्रकार जान लिया था कि जिस प्रकार उसके अपने राष्ट्र में सुख-समृद्धि के लिए लोक प्रिय सरकार और उसे दीर्घकाल तक अपने अस्तित्व में बने रहने के लिए उसका स्वच्छ, पारदर्शी एवं कुश ल प्रशासन अनिवार्य है, ठीक उसी प्रकार शान्ति प्रिय ज्ञान-विज्ञान, अपार वैभव एवं अतुल संपदा से सम्पन्न भारत वर्ष को हर प्रकार से क्षीण, हीन, खोखला करने और उसे लूटने के लिए भी ऐसी भौतिकवादी शिक्षा-प्रणाली की आवश्यकता है जो भारत की ब्रह्मविद्या, कला, संस्कार, ज्ञान-विज्ञान, संस्कृति, साहित्य और सभ्यता का समूल विनाश कर दे। वह फिर कभी पनपे भी तो वह मात्र ब्रिटिश साम्राज्य के ही हित में समर्पित हो। उपरोक्त भारत विरोधी भावना के साथ दो अक्तूबर 1835 के दिन मैकाले गोरों के द्वारा, गोरों के लिए आयोजित भारत के किसी अमुक भू-भाग पर गुप्त सम्मेलन में उपस्थित हुआ। वहां उसने अध्यक्षीय भाषण में गोरों को संबोधित करते हुए कहा था कि हमने भारत में शिक्षा के द्वारा एक ऐसा नया वर्ग तैयार करना है जो हाड मांस और रक्त से भले ही भारतीय हो परंतु वह हृदय और मस्तिष्क से अंग्रेज जैसा अवश्य होगा। मैकाले भारत में सुलभ, सस्ते और चिर टिकाऊ स्थानीय काले अंग्रेजों का निर्माण करना चाहता था ताकि उनके सहारे भारत में ब्रिटिश राज अधिक से अधिक काल तक स्थिर रह सकेे। मैकाले के द्वारा ब्रिटिश पार्लियामैंट में दिए गए वक्तव्य के आधार पर वहां की सरकार के द्वारा भारतीयों पर जबरन थोपी गई शिक्षा-प्रणाली स्थानीय काले अंग्रेजों का निर्माण करने में एक सफल कार्यशाला सिद्ध हुई। 15 अगस्त 1947 के दिन भारत स्वतंत्र हुआ, हमें धरोहर रूप में पाश्चात्य शिक्षा-प्रणाली मिली। भारतीय सनातन जीवन पद्धति के अनुसार आवश्यक था कि स्वतंत्रता प्राप्ति के तुरंत पश्चात् भारतीय जन, समाज और राष्ट्र हित में हम पाश्चात्य शिक्षा -प्रणाली को निरस्त कर देते और उसके स्थान पर फिर से गुरुकुल शिक्षा-प्रणाली अपना लेते परंतु ऐसा किया नहीं। इसकी हमने आवश्यकता ही नहीं समझी। लम्बे समय तक पराधीन रहे भाारतवासियों में से अधिकांश आज भी अपने हृदय और मस्तिष्क से भारतीय कहलानेे के लिए तैयार नहीं हैं। उन्हें पाश्चात्य संस्कृति से प्रेम है। उससे उनका मोह भंग नहीं हुआ है। हम पाश्चात्य शिक्षा -प्रणाली की उसी प्रकार पालना कर रहे हैं जैसा कि अंग्रेज किया करते थे। पाश्चात्य सभ्यता, संस्कृति के संस्कार बोने वाली पाश्चात्य शिक्षा -प्रणाली का आज भारत में चहुं ओर बोलवाला हैे। वे शिक्षक हों या अभिभावक, राजनीतिज्ञ हों या प्रशासक – वे आत्म कल्याण, भारतीय जन, समाज और राष्ट्र हित भूलकर यहां-तहां पाश्चात्य शिक्षा -प्रणाली पर आधारित स्थान-स्थान पर अंग्रेजी माध्यम की पाठशालाएं, विद्यालय, महा विद्यालय और विश्व विद्यालय खोल रहे हैं। उनमें भारतीय बच्चों को स्वदेशी , सनातन संस्कार देने के स्थान पर पाश्चात्य सभ्यता, संस्कृति के संस्कार दे रहे हैं। उन्हें अंग्रेज बना रहे हैं । उनके द्वारा सनातनी, स्वदेशी भावनाओं को कुचला जा रहा है। भारतीय बच्चों का खाना-पीना, पहनना, बातचीत, आचार-व्यवहार सब कुछ अंग्रेजों जैसा हो रहा है। कौन हैं? यह लोग किसका हित कर रहे हैं? वर्तमान शिक्षा पूरी होने के पश्चात सनातक के हाथ में लिखित डिप्लोमा या डिग्री दे दी जाती है जो उसकी योग्यता का प्रमाण पत्र होेेता है। वह उसके पास अव्यवहारिक भौतिकवादी, पुस्तकीय सीमित ज्ञान होेता है जबकि सनातन जीवन पर आधारित गुरुकुल से निकला सनातक स्वाभाविक रूप में संस्कारवान, व्यावहारिक एवं सर्वगुण संपन्न स्वदेशी , ब्रह्मज्ञान-विज्ञान, विद्या और कला का स्वामी एवं स्वाभिमानी होता था। वह निज सुख-दुःख भूलकर राष्ट्रीय जन, समाज, और स्वदेश से प्रेम करने वाला होता था। वह स्वदेश के मान-सम्मान के लिए कार्य करता था। वह जीता था तो देश के लिए और मरता था तो भी देश के लिए ही मरता था, कभी निज हित या स्वार्थ के लिए नहीं। आदिकाल से भारतीय समाज में नारी मां, बहन, बहु, बेटी, पत्नी, भाभी के रूप में जानी और पहचानी जाती है परंतु वर्तमान समय ने उसे कालगर्ल, लवर, नाइट बाइफ, बना दिया है। उसे क्लब, कैबरा, होटलों में पहुंचा दिया जाता है। वहां वह नृत्य करके अपना देह-प्रदर्शन ही नहीं करती है बल्कि देह-व्यापार भी करती है। इसी प्रकार आजकल नारी-अपहरण, बलात्कार, भ्रूण हत्याएं, आत्म-दाह की घटनाओं में भारी वृद्धि देखने, सुनने और पढ़ने को मिल रही हैं। वह समाचार पत्र, दूरदर्शन, वीडियो, रेड़ियो, दूरभाष , स्टिकर, चलचित्र, विज्ञापन, इस्तिहार चाहे कुछ भी हों – उन पर नारी को अश्लील चित्रों द्वारा प्रदर्शित किया जाता है। क्या भारत में नारी जाति का कभी इस प्रकार निरादर होता था? यह कितनी लज्जा की बात है कि जिस देश में नारी जाति को देव कन्या, ज्ञानदेवी और मां कह कर उसकी पूजा की जाती हो, वहां उसे नंगा करके सबके सामने प्रदर्शित किया जाता है। उसके यौवन को वेश्यालय की गंदी और घृणित वस्तु बना दिया जाता है। उसे घर में अकेला रहना, घर से बाहर निकलना, वाहन पर यात्रा करना और उसे अपनी लाज तक बचाए रखना, कठिन हो गया है। इन्हें बढ़ावा देने वाला कौन है? अध्यात्मप्रिय भारत में ब्रह्मज्ञान-विज्ञान, विद्या, कला और संस्कार जिन्हें कभी विश्व भर में जाना और पहचाना जाता था – का विकास करने के स्थान पर पाश्चात्य ज्ञान-विज्ञान पर आधारित मात्र भौतिकवाद को बढा़वा दिया जा रहा है। देश में अंधाधुध मिल कारखाने लगाए जा रहे हैं। युवाओं में असंतोष की लहर पनप रही है। बेरोेजगारी बढ़ रही है। धरती पर पेड़- जंगल कम होते जा रहे हैं। जल, थल और नभचर जीव-जंतुओं की संख्या कम होती जा रही है। जन संख्या निरंतर बढ़ रही है। कंकरीट पत्थरों के शहर बढ़ रहे हैं। उपजाऊ धरती सिकुड़ती जा रही है। पर्यावरण प्रदूषण बढ़ रहा है। देश की अपार धन-संपदा का मनमाना दुरुपयोग किया जा रहा है। काला धन विदेशों में जमा किया जा रहा है। भ्रष्टाचार जोरों पर है। कुछ ही लोगों का जीवन सुखमय है। आज समाज का छोटा या बड़ा हर वर्ग भौतिक सुख की अंधी दौड़ में सामिल है। मानव जीवन से धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष रूपी फल प्रायः लुप्त हो रहे हैं। आज इन सबका उत्तरदायी कौन है? अध्यात्मप्रिय भारत में जहां तीव्रता से भौतिकवाद बढ़ा है उसके साथ ही साथ मानवीय इच्छाएं भी बहुत बढ़ी हैं। उन्हें पूरा करने के लिए हमारे पास धन, समय, स्थान की निरंतर कमी हो रही है। दिन-प्रतिदिन अपराध बढ़ रहे हैं। अपराधियों की संख्या बढ़ रही है। समाज विकृत हो रहा है। संस्कार, ब्रह्मज्ञान-विज्ञान, विद्या और कला से ओतप्रोत भारतीय सभ्यता-संस्कृति तो कभी ऐसी नहीं थी। फिर हम दिन-प्रतिदिन निर्बल क्यों हो रहे हैं? हमारी विवशता क्या है? ऐसा क्यों लगता है? स्वतंत्र भारत में आज भी ब्रिटिश साम्राज्य की जड़ें मजबूत और हरी-भरी हैं । कहीं हम उनकी नीतियों का पालन तो नहीं कर रहे? नहीं तो देश में भ्रष्टाचार क्यों फैल रहा है? काला धन क्यों बढ़ रहा है? असमर्थ, निर्धन और बे-सहारा लोगोें का षोषण क्यों हो रहा है? निर्दोश भयभीत क्यों हैं? निर्दोशों को दंड क्यों मिलता है? दोषी एवं अपराधी अभय होकर क्यों घूमते है? भौतिकवादी शिक्षा-प्रणाली जो कभी ब्रिटिश साम्राज्य हित की पोषक रही हो और जिसने भारत का हर प्रकार से शोषण किया हो वह सनातनी जन, समाज और भारत की प्रगति के लिए कारगर सिद्ध कैसे हो सकती है?
लार्ड मैकाले के द्वारा लिया गया सनातनी जन, समाज और भारत विरोधी एवं विनाशकारी संकल्प क्या हमने यों ही शिरोधार्य करके रखना है? क्या हम आज भी अपने हृदय और मस्तिष्क से गोरों के अधीन हैं? अगर हम मैकाले के ही अनुगामी हैं तो हम भारतवासी भी नहीं रहे। यह हमारा स्वदेश के प्रति किया जाने वाला सबसे बड़ा विश्वासघात है – देश सेवा या देश भक्ति कदाचित नहीं है। वह दिन दूर नहीं है अगर अध्यात्मप्रिय सनातनी भारतवासियों के द्वारा शीघ्रातिशीघ्र गुरुकुल शिक्षा-प्रणाली नहीं अपनाई गई तो भारत में सक्रिय लार्ड मैकाले के अनुयायी एक न एक दिन भारत को अवश्य ही ध्वस्त कर देंगे और वह फिर से पराधीन हो जाएगा।
कहीं हम ऐसा करके अध्यात्मप्रिय भारत के लिए एक और स्वतंत्रता-संग्राम की तैयारी तो नहीं कर रहे?