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मातृवंदना जुलाई 2017

इस लेख का मुख्य प्रेरणा-स्रोेत लाला ज्ञान चंद आर्य द्वारा लिखित ”वर्ण व्यवस्था का वैदिक रूप“ पुस्तक है। यह पुस्तक उनका अपने आप में एक हृदय स्पर्शी और अनूठा प्रयास है।
पुस्तक में दर्शाया गया है - मानव शरीर के अवयव मुख-ब्राह्मण, बाहु-क्षत्रिय, उदर-वैश्य और पैर-शूद्र हैं। प्रत्येक मनुष्य अपने शरीर से चारों वर्णों का दैनिक कार्य करते हुए ही आर्य है। मानव जाति के पूर्वज आर्य थे। इसलिए समस्त मानव जाति मात्र आर्य पुत्र है। आर्य पुत्र जो कर्म करने के समय ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र होते हैं, कार्य करने के पश्चात वे स्वयं आर्य हो जाते हैं। शरीरिक कार्य कर लेने के पश्चात शरीर के अवयव पैर अछूत या घृणित नहीं हो जाते हैं और न ही उन्हें कभी शरीर से अलग ही किया जा सकता है। वैदिक शूद्र शिल्पकार या इंजिनियर भी अछूत या घृणित नहीं हो सकता। मुख, भुजा, पेट, या पैर में किसी एक अवयव की पीड़ा संपूर्ण शरीर के लिए कष्टदायी होती है। वर्ण व्यवस्था में किसी एक वर्ण का कष्ट समस्त समाज के लिए असहनीय है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्ण कर्ममूलक हैं, जन्ममूलक नहीं। समाज में सभी आर्य एक समान हैं। उनमें कोई ऊँच-नीच अथवा छूत-अछूत नहीं है।
आर्य वेद मानते हैं। वे अपने सब कार्य वेद सम्मत करते हैं। आर्य वही है जोे संकट काल में महिला, बच्चे, वृद्ध और असहाय की जान माल की रक्षा करते हैं, सुरक्षा बनाए रखते हैं। ब्राह्मण वर्ण शेष तीनों वर्णों का पथ प्रदर्शक गुरु और शिक्षक है। वह उन्हेें ज्ञान प्रदान करता है। क्षत्रिय वर्ण शेष तीनों वर्णों की रक्षा करके उनकी सुरक्षा सुनिश्चित करता है। वैश्य वर्ण शेष तीनों वर्णों का कृषि-बागवानी, गौपालन, व्यापार से पालन-पोषण करता है। शुद्र वर्ण शेष तीनों वर्णों के लिए श्रमसाध्य शिल्पविद्या, हस्तकला द्वारा भांति-भांति की वस्तुओं का निर्माण, उत्पादन करके सुख सुविधा प्रदान करता है।
समाज मेें ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र कर्मगत चार प्रमुख वर्ण हैं। वर्ण व्यवस्था में मनुष्य की जाति मानव है। जैसे गाय जाति को भैंस या भैंस जाति को कभी बकरी नहीं बनाया जा सकता, उसी प्रकार मनुष्य जाति को किसी अन्य जाति का नहीं कहा जा सकता।
वर्ण व्यवस्था में एक व्यसक लड़की को अपना मनपसंद का वर चुनने का पूर्ण अधिकार है। जो उसे पसंद होने के साथ-साथ उसके योग्य होता है। लोभ से ग्रस्त, भ्रष्टचित होकर विपरीत वर्ण में विवाह करने से वर्णसंकर पैदा होते हैं, हो रहे हैं। जिससे सनातन कुल, वर्ण-धर्म का नाश होता है, हो रहा है। आत्मपतन होने के साथ-साथ समाज में पापाचार और व्यभिचार बढ़ता है, बढ़ रहा है।
वर्ण व्यवस्था में मानव जीवन के कल्यााणार्थ चार प्रमुख आश्रम हैं - ब्रह्मचर्याश्रम, गृहस्थाश्रम, वानप्रस्थाश्रम और सन्यासाश्रम। वर्ण व्यवस्था के चारों आश्रमों मेें वेद सम्मत कार्य किए जाते हैं। ब्रह्मचर्याश्रम में गुरु विद्यार्थी को वैदिक शिक्षा प्रदान करता है। गृहस्थाश्रम में विवाह, संतानोत्पति, संतान का पालन-पोषण, शिक्षा और व्यवसाय आदि कार्य होते हैं। वानप्रस्थाश्रम में आत्मसुधार तथा ईश्वरीय तत्व का चिंतन मनन होता है और सन्यासाश्रम में जन कल्याणार्थ हितोपदेश दिया जाता है।
ब्रह्मचारी, वानप्रस्थी और सन्यासी किसी गृहस्थाश्रम में जाकर अपने खाने के लिए भीक्षाटन करते हैं, न कि वे खाने के लिए जीते हैं। वे गृहस्थ के कल्याणार्थ गृहस्थियों को उपदेश देते हैं।
ब्रह्मचारी, वानप्रस्थी और सन्यासी का जीवन सदाचारी, सयंमी, जप, तप, ध्यान करने वाला होने के कारण गृहस्थाश्रम पर निर्भर रहता है। वे ऐसा कोई भी कार्य नहीं करते हैं जिससे गृहस्थी को किसी प्रकार का कष्ट या उसकी कोई हानि हो।
वर्ण व्यवस्था में सबके लिए कार्य करना, सबका अपने-अपने कार्य में व्यस्त रहना, आपस में मेल मिलाप रखना, आपसी हित-चिंतन, आवश्यकता पूर्ति, पालन-पोषण, रक्षण, एक दूसरे का सम्मान करना, प्रेम स्नेह रखना, महत्व समझना, ऊँँच-नीच रहित स्वरूप, अधिकार, कर्तव्य और सहयोग को बढ़ावा देना अनिवार्य है। वेद सम्मत किया जाने वाला कोई भी कार्य जन कल्याणकारी होता है। उससे लोक भलाई होती है।
वर्ण व्यवस्था गृहस्थाश्रम के लिए उपयोगी है। वह उसकी हर आवश्यकता पूरी करती है। वर्णों के कर्म गुण, संस्कार और स्वभाव अनुसार विभिन्न होते हैं। ब्राह्मण सहनशील और ज्ञानवान होेेेता है तो क्षत्रिय विवेकशील तथा शूरवीर। वैश्य धनवान, मृदुभाषी और बुद्धिमान होता है तो शूद्र विद्वान शिल्पकार और कर्मशील। एक वर्ण ऐसा कोई भी कार्य नहीं करता है जिससे दूसरे वर्ण को कष्ट अथवा उसकी किसी प्रकार की हानि हो। वर्णों का मूलाधार कर्मगत उनका अपना कार्यकौशल और सदाचार है। चारों वर्ण अपने-अपने गुण संस्कार और स्वभाव से जाने जाते हैं। ब्राह्मण तात्विक ज्ञान से जाना जाता है तो क्षत्रिय बल-पराक्रम से। वैश्य धर्म कर्तव्य-परायणता से जाना जाता है तो शूद्र शिल्प-कला और कार्य-कौशल से। वर्णों में किसी एक वर्ण का दुःख तीनों वर्णों के लिए अपना दुःख होता है। मानों पैर में कोई कांटा लगा हो और हृदय, मष्तिष्क तथा हाथ उसे निकालने के लिए व्याकुल एवं तत्पर हो गए हों। समाज में मां-बाप तथा गुरु का स्थान सर्वोपरि है, वंदनीय है। जो बच्चे या विद्यार्थी उनका अपमान, निरादर या तिरस्कार करते हैं - वे दंडनीय हैं।
शिल्पकार शूद्र वर्ण भी उतना ही अधिक आदरणीय है जितना कि ज्ञानदाता ब्राह्मण वर्ण। शिल्पकार शूद्र वर्ण, ब्राह्मण वर्ण की तरह अपने कार्य में विद्वान होता है। समाज मेें मानव जाति को जाति, धर्म, लिंग, ऊँच-नीच भेदभाव उत्पन्न करके बांटना वेद विरुद्ध अपराध है। यज्ञ - श्रेष्ठ कार्य से हीन, मनन पूर्वक कार्य न करने वाला, व्रतों - अहिंसा, सत्य आदि मर्यादाओं के अनुष्ठान से पृथक रहने वाला, जिसमें मनुष्यत्व न हो, वह दस्यु, अपराधी है। दस्यु व अपराधी भी आर्य बन जाते हैं, जब वे वेद मानते हैं और वेद सम्मत कार्य करते हैं। आर्य भी दस्यु या अपराधी बन जाते हैं, जब वे वेद मानना भूल जाते हैं और वेद सम्मत कार्य नहीं करते हैं। दस्यु या अपराधी - वेद नहीं मानते हैं। वे वेद विरुद्ध कार्य करते हैं। समाज में जातियां उपजातियां उन लोगों की देन है जो वेद नहीं मानते थे। जो दम्भी, स्वार्थी एवं अहंकारी थे और जो इस समय उनका अनुसरण भी कर रहे हैं।
पूर्व में स्थित हिमालय और उससे उत्पन्न गंगा, जमुना, कृष्णा, सरस्वती, नर्वदा, कावेरी, गोदावरी और सिंधु जिस भू भाग से होकर बहती हैं, वह क्षेत्र आर्यवर्त है। जिस देश में नारी को नर की शक्ति, उसकी अद्र्धांगिनी और जग जननी मां मानने के साथ-साथ उसे पूर्ण सम्मान भी दिया जाता है, उस राष्ट्र को आर्यवर्त कहते हैं।
आचार्य चाणक्य के अनुसार - ”जिसके पास विद्या नहीं है, न तप है, न कभी उसने दान ही किया है, न उसमें कोई गुण है और न धर्म, न उसके पास शीतलता ही है - वह मनुष्य इस मृत्युलोक में उस मृग के समान भार मात्र है जो पूरा दिन घास खाने के अतिरिंक्त और कुछ नही करता है।“