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मानव जीवन विकास – 11

भारत ऋषि-मुनियों का देश है l भारतीय मनीषियों ने मानव जीवन को 100 वर्ष तक मुख्यतः चार आश्रमों में विभक्त किया था l उनमें प्रथम 25 वर्ष ब्रह्मचर्य, 25 से 50 वर्ष गृहस्थ, 50 से 75 वर्ष वानप्रस्थ और 75 से 100 वर्ष तक सन्यास आश्रम प्रमुख थे l उनके अपने विशेष सिद्धांत थे, उच्च  आदर्श थे जिनके अनुसार मनुष्य अपना सार्थक एवं समर्थ जीवन यापन करता था l इससे वह दैहिक, दैविक और भौतिक शक्तियों का स्वामी बनता था l भारत की नैतीकता, अध्यात्मिकता और संस्कृति महान थी l

प्रथम 25 वर्ष ब्रह्मचर्याश्रम में विद्या ग्रहण, 25 से 50 वर्ष गृहस्थाश्रम में संसारिक कार्य, 50 से 75 वर्ष वानप्रस्थाश्रम में आत्म चिंतन–मनन करते हुए आत्म साक्षात्कार और 75 से 100 वर्ष तक सन्यासाश्रम में जन कल्याण करने का सुनियोजित कार्य किया जाता था l  इनके अंतर्गत सनातन समाज को सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक, शैक्षणिक, और धार्मिक दृष्टि से विश्व भर में सर्वोन्नत श्रेणी में सम्पन्न ही नहीं गिना जाने लगा था बल्कि विश्व ने उसकी आर्थिक सम्पन्नता देखते हुए उसे सोने की चिड़िया के नाम से भी विभूषित किया था l

सनातन समाज की इस आर्थिक सम्पन्नता और उन्नति के पीछे जिस महान शक्ति का योगदान रहा हैं, वह शक्ति थी, योगियों की योग साधना और कर्मयोग l  श्रीकृष्ण जी उनके महान आदर्श रहे हैं l उन्होंने संसार में रहते हुए भी कभी संसार से प्रेम नहीं किया l उन्होंने पल भर के लिए भी योग को स्वयं से कभी अलग नहीं किया l वे संसार में कभी लिप्त नहीं हुए l यही कारण है कि हम आज भी उन्हें अपना नायक, और सत्सनातन सत्पुरुष मानते हैं और वे हमारे सबके हृदयों में विराजमान रहते हैं l

यह तो सत्य है कि प्राचीन काल में 1/3 % को छोड़कर 3/4% सनातन समाज भौतिक सुख सुविधाओं से आभाव ग्रत था और उस समय प्राकृतिक शोषण न के समान  था l इसका मुख्य कारण यह रहा है कि पहले सनातन समाज सादगी पसंद अध्यात्म प्रिय और प्राकृतिक प्रेमी था जबकि आज वही समाज वैसा होने का मात्र ढोंग कर रहा है l वह प्रकृति के विरुद्ध अनेकों कार्य करते हुए, उससे शत्रुता बढ़ा रहा है l इस तरह वह कल आने वाली महाप्रलय को, आज ही आमंत्रित कर रहा है l

प्रकृति की परिवर्तनशीलता के प्रभाव से सत्सनातन समाज के सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, शैक्षणिक और धार्मिक क्षेत्रों में परिवर्तन होना निश्चित था, परिवर्तन हुआ l यह समस्त भूखंड जिस पर कभी मात्र आर्य लोगों का “वसुधैव कुटुम्बकम” दृष्टि से अपना अधिपत्य था, वह धीरे-धीरे कई राष्ट्रों के रूपों में परिणत हो गया l उस भूखंड पर अनेकों देश जिनमें वर्तमान भारतवर्ष भी है, वह अपने-अपने अस्तित्व में आने से पूर्व कई छोट-छोटे राज्यों में विभक्त लेकिन उन्नत एवं समृद्ध भी था l वह विदेशी व्यापारी कम्पनियों, आक्रान्ता एवं लुटेरों की कुदृष्टि से बच न सका l जहाँ भारत के सम्राट साहसी और परमवीर थे, वहां वे अहंकार में चूर और विलासी भी कम नहीं थे l  परिणाम स्वरूप वे विदेशी व्यापारी कम्पनियों, आक्रान्ता एवं लुटेरों की छल विद्या एवं बांटो और राज करो, की नीति को समझ न सके l अतः उन्हें उनसे हर स्थान पर मुंह की खानी पड़ी l

आज भारतीय सेक्युलर समाज में उसका हर मार्गदर्शक, अभिभावक, गुरु, नेता, प्रशासक, सेवक और नौजवान योग-साधना से विमुख हो गया है और होता जा रहा है जो एक बड़ी चिंता का विषय है l उन्हें पाश्चात्य देशों की तरह मात्र अच्छा फ़ास्ट खाना, गाड़ी, बंगला, अपार धन और सर्व सुख सुविधाएँ ही चाहियें, भले ही वह घोटाला, करके, चोरी से, रिश्वत घूस लेकर या फर्जिबाड़े से ही क्यों न जुटाई गई हों या जुटानी पड़े l इसमें उनकी धन लोलुपता अत्यंत घातक सिद्ध हुई है और बढ़ती जा रही है l उन्हें राष्ट्रहित से कुछ भी नहीं है लेना, देना l

वह भारतीय दिव्य ब्रह्मज्ञान जो विदेशों तक कभी अज्ञान का अँधेरा दूर किया करता था, वह उत्पादन और हस्तकला कौशल का जीवट जादू जो उनके सिर पर चढ़कर बोला करता था, को ग्रहण लग गया है l भारत आर्थिक शक्ति बनने के स्थान पर, भीतर ही भीतर खोखला होता जा रहा है l देश के सामने आर्थिक चुनौतियां उभर आई हैं l उसमें आये दिन नये-नये घोटाले हो रहे हैं l लोगों का सफेद धन बे – रोक टोक, तेजी से कालाधन बनकर, विदेशी बैंकों की तिजोरियों में समाय जा रहा है फिर भी सरकारों के द्वारा राष्ट्रीय विकास का ढोल पीटा जा रहा है और वह उस विकास की पोल भी खोल रहा है l चोरी करना, घूस और रिश्वत लेने-देने का प्रचलन जोरों पर है l भ्रष्टाचार की सदाबहार बेल निर्भय होकर हर तरफ विष उगल रही है l  

ब्रह्मचर्य जीवन में ज्ञानार्जित करना, गृहस्थ जीवन में संसारिक कार्य करना सुख सुविधाएँ जुटाना और उनका भोग करना, वानप्रस्थ जीवन में आत्मचिंतन, आत्म साक्षात्कार करना तथा सन्यास जीवन में समाज का मार्गदर्शन करना मानव जीवन का परम उद्देश्य रहा है l उसे प्राप्त करने के लिए प्रयास करना अनिवार्य था l इसलिए भारतीय मनीषियों ने मानव जीवन के चार आश्रमों की कल्पना को साकार करने हेतु कार्यान्वित किया था l

“वीर भोग्य वसुन्धरा” अर्थात वीर पुरुष ही धरती का सुख भोगते हैं l वीर वे हैं जो अपने अदम्य साहस के साथ जीवन की हर चुनौति का सामना करते हुए अपने परम जीवनोद्देश्य को सफलता पूर्वक पूरा करते हैं l इसी आधार पर गृहस्थाश्रम में संसारिक सुख का भोग किया जाता था और शेष तीनों आश्रमवासी गृहस्थाश्रम पर निर्भर रहकर अपने विभिन्न उद्देश्यों की पूर्ति हेतु अपना-अपना कार्य किया करते थे l  

विद्यार्थी गुरुकुल में रहकर विद्या अर्जित करते थे l पराक्रमी राजा वन गमन – एकांत वास करने, वानप्रस्थी बनने से पूर्व, स्वेच्छा से भोग्य वस्तुओं को अपने योग्य उत्तराधिकारी को सौंप देते थे और सन्यासी – बहते जल की तरह कभी एक स्थान पर निवास नहीं करते थे l वे भ्रमण करते हुए लोक मार्गदर्शन करते थे l इस प्रकार भोग सुख की सभी सुख सुविधाएँ मात्र गृहस्थाश्रम वासियों की सम्पदा होती थी l यही भारतीय संस्कृति है l इसी कारण भारत में संग्रहित अपार सम्पदा, विदेशियों के लिए आकर्षण, सोने की चिड़िया, उनकी आँख की किरकिरी बनी और उन्होंने उसे पाने व लुटने/हथियाने के लिए साम, दाम, दंड, और भेद नीतियों का भरपूर प्रयोग किया l

हमारी इसी अपार धन – संपदा को पहले विदेशियों ने लुटा था और अब उसे अपने ही लोग अपने दोनों हाथों से दिन-रात लुट रहे हैं l इस तरह न जाने कब थमेगा, लुटने का यह सिलसिला ! हम चाहें तो इस लुट को नियंत्रित कर सकते हैं l यह कार्य भारतीय सनातन जीवन पद्दति पर आधारित मानव जीवन शैली आश्रम व्यवस्था अपनाने से संभव हो सकता है l इस भयावह आर्थिक चुनौति के विरुद्ध, समाज हित में, हम सबकी सकारात्मक एवं रचनात्मक इच्छा-शक्ति और कार्य क्षमता अवश्य होनी चाहिए l

प्रकाशित 2013 मातृवंदना