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धर्म अध्यात्म संस्कृति  – 4

सभी कष्ट दूर हो जाते हैं l कोई समस्या शेष नहीं रहती है l विपदाओं का भी शमन हो जाता है l इसके लिए मनुष्य को सत्सनातन-धर्म का अनुसरण करना पड़ता है l वह धर्म मुख्यतः तीन बातों पर आधारित है – सत्य, सनातन और धर्म l 

परम पिता परमात्मा विशाल दिव्य ऊर्जा पुंज सर्व आत्माओं का स्वामी होने के नाते स्वयं एक सत्य है l वह अजर, अमर, सर्वज्ञ, सर्व व्यापक, अन्तर्यामी, होने के कारण जैसा पहले था, आज है और आगे भी रहेगा l इस कारण वह सनातन है l धर्म का अर्थ है जीने की कला, जिसका जीवन में आचरण किया जाता है l धर्म मुक्ति का मार्ग प्रसस्त करता है और उसकी प्रभावशाली जीवन शैली से मानव धर्म, परिभाषित होता है l विश्व में जब-जब मानव धर्म की हानि होती है तब-तब मात्र मानव जीवन शैली में विसंगति पाई जाती है l

मानव चाहे किसी उच्च गुण, संस्कार सम्पन्न देश, काल और पात्र का ही सहारा क्यों न लेता हो या वह अच्छी से अच्छी जीवन शैली पर ही अमल क्यों न करे – पर मन चंचल होने के कारण उसमें विसंगतियों के आगमन हेतु प्रवेश द्वार भी हर समय खुला रहता है l इसके लिए अनिवार्य है सजगता, सतर्कता और सावधानी से व्यक्तिगत अथवा समुदायक जीवन शैली को उसकी विसंगतियों से निरंतर सुरक्षित बनाये रखना l

इन बातों का ध्यान रखते हुए प्राचीनकाल में भारतीय मनीषियों ने मानव जीवन को मुख्यतः ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ तथा सन्यास चार आश्रमों में विभक्त किया हुआ था और सर्वहित में कार्यान्वयन हेतु प्रत्येक आश्रम को उसका अपना कार्यभार सौंप रखा था जिसके लिए वह स्वयं उत्तरदायी था l 

ब्रह्मचर्य जीवन में शिक्षण-प्रशिक्षण, गृहस्थ जीवन में सांसारिक, वानप्रस्थ जीवन में आत्मचिंतन-मनन व सुधार तथा सन्यास जीवन में देश-विदेश का भ्रमण करते हुए आत्मज्ञान तथा सयंम से जन चेतना का कार्य किया जाता था l 

प्राचीन संत-मुनि जन यह भली प्रकार जानते थे कि जहाँ जीवन से संबंधित कार्य होते हैं, वहां विसंगतियां भी अवश्य आती हैं l वह मनुष्य को कदम-कदम पर प्रभावित करती हैं l उनसे महिलाएं, बच्चे, वृद्ध कोई भी सुरक्षित नहीं रह पाता है l उन्हें आये दिन अपहरण, शोषण और बलात्कार जैसे अपराधों का सामना करना पड़ता है l इसी कारण समाज में भांति-भांति के अपराधों में निरंतर वृद्धि होती है l वह धार्मिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक, आर्थिक, राष्ट्रीय तथा अंतर्राष्ट्रीय अपराधों से पीड़ित होता है l  मानव मन में नित नये-नये सुख भोगों की लालसा उत्पन्न होती है और वह निरंतर उनकी खोज में रहता है l उससे समाज सुखी होने के स्थान पर दिन-प्रतिदिन दुखी होता है, उसके दुःख घटने के स्थान पर और बढ़ते हैं, वे घटने का नाम ही नहीं लेते है l भारतीय मनीषियों ने दुःख निवारण का सरल, सुंदर एवं अचूक उपाय बताया है l     

सत्संग करो :– सत्संग उचित स्थान और उपयुक्त समय पर किया जाता है l उसमें प्रायः ब्रह्मज्ञान की बातें होती हैं l ब्रह्मज्ञान से समस्त समस्याओं का हल निकलता है l सत्संग में जटिल बातें सरलता से समझी ओर समझाई जाती हैं, उनका समाधान निकाला जाता है जिन्हें मानव जीवन में चरितार्थ किया जाता है l     

सद्भावना रखो :- सद्भावना वृद्धि हेतु मनुष्य द्वारा विद्वानों के प्रति सम्मान की भावना का विशेष ध्यान रखा जाता है l अगर मनुष्य में उनसे कुछ सीखने की भावना न हो तो उसका विद्वानों के बीच में जाना तो दूर, उनके बारे में सोचना भी निरर्थक होता है l पर जब वह सीखने की भावना से उनके पास जाता है तो उसका कर्तव्य बन जाता है कि उन पर विश्वास करे, उनके द्वारा बताये गए मार्ग पर चले, वह समाज में सबके साथ प्रेम से रहे, मानवता और दीन-दुखियों के लिये सेवा-भक्ति भाव से कार्य भी करे l    

शुद्ध विचार अपनाओ :– मनुष्य द्वारा दूसरों के साथ शांत, मृदु, प्रिय और सत्य बोलना हितकारी होता है l शुद्ध लेखन कार्य द्वारा उसका प्रकाशन और प्रचार-प्रसार करना मानवता ही की सेवा है l

सत्कर्म करो :– मनुष्य के द्वारा किया जाने वाला प्रत्येक कार्य सबको अच्छा लगे, उससे दूसरों को कोई पीड़ा या कष्ट न हो, कार्य व्यवहार में लाना श्रेष्ठ है l सत्संग से प्राप्त जीवनोपयोगी बातों का अपने जीवन में अनुसरण करते हुए सबके लिए न्याय एवम् समानता हेतु प्रयास करना सर्वोत्तम है l सर्वहितकारी शुद्ध कर्म करना मानवता हित के लिए रामवाण समान है l

भारतीय संत-महात्माओं का चिंतन-मनन कार्य – सूर्य के समान दीप्तमान, प्रभावशाली और सर्वव्यापक रहा है l उन्होंने मानव जीवन विकास को न केवल एक नई दिशा दी थी बल्कि कर्म के आधार पर मानव समाज हित में वर्ण व्यवस्था का सृजन, पोषण और वर्धन भी किया था l वह व्यवस्था किसी जाति, धर्म, वर्ग भेदभाव और विशेषकर निजहित तक ही सीमित नहीं थी l उससे निष्पक्ष सबका कल्याण होता था l उसकी कुंजी जब तक चरित्रवान एवम् सदाचारी लोगों के हाथों में रही, उसका सर्वहित में सदुपयोग होता रहा पर ज्यों ही वह उनके हाथों से फिसलकर पतित एवम् दूराचारी लोगों के हाथों में गई, उसका मात्र निजहित में दुरूपयोग होने लगा है l उसी का परिणाम है कि आज संपूर्ण मानव जाति की परंपरागत जीवन शैली ही नहीं सामाजिक व्यवस्था ही विकृत हो गई है l उसका स्वरूप हम सबके सम्मुख है l इसका उत्तरदायी मैं, आप और हम सभी हैं l हम सब उसी समाज में रहते हैं जिसे हमने विकृत किया है l अब उसे सुंदर व सुव्यस्थित भी हमने ही करना है l यह हमारा दायित्व है l  

वैदिक परंपरा के अनुसार विश्व एक परिवार है l हम सब उसके सदस्य हैं l “सबका कल्याण हो l” इस परंपरागत धारणा से हमारा दायित्व बन जाता है कि हम समग्र संसार हित के लिए उसके अनुकूल चिंतन-मनन करें l स्वयं कुछ करें और दुसरों को कार्य करना भी सिखाएं ताकि हमारे बच्चे योग्य बन सकें l वह अपने मन, वचन एवम् कर्म से अपने आगे होने वाले बच्चों के लिए प्रेरक बन सकें l

    प्रकाशित अप्रैल मई 2015 मातृवंदना