Author Image



आलेख – सामाजिक चेतना मातृवन्दना सितम्बर 2008

भारत में औद्योगिक क्रांति आने के पश्चात्, कल-कारखानों और मशीनों के बढ़ते साम्राज्य से असंख्य स्नातक, बेरोजगार की श्रृंखलाओं में खड़े नजर आने लगे हैं l उनके हाथों का कार्य कल-कारखाने और मशीनें ले चुकीं हैं l वह कठोर शरीर-श्रम करने के स्थान पर भौतिक सुख व आराम की तलाश में कल-कारखानों तथा मशीनों की आढ़ में बेरोजगार हो रहे हैं l

भारत में वह भी समय था, जब हर व्यक्ति के हाथ में कोई न कोई काम होता था l लोग कठिन से कठिन कार्य करके अपना और अपने परिवार का पालन-पोषण किया करते थे l कोई कहीं चोरी नहीं करता था l वे भीख मांगने से पूर्व मर जाना श्रेष्ठ समझते थे l कोई भीख नहीं मांगता था l इस प्रकार देश की चारों दिशाओं में मात्र नैतिकता का साम्राज्य था, सुख-शांति थी l मैकाले ने भारत का भ्रमण करने के पश्चात् 2 अक्तूबर 1835 में ब्रिटिश सरकार को अपना गोपनीय प्रतिवेदन सौंपते हुए इस बात को स्वीकारा था  l

वर्तमान काल भले ही विकासोन्मुख हुआ है, पर विकासशील समाज सयंम, शांति, संतोष, विनम्रता आदर सम्मान, सत्य, पवित्रता, निश्छलता एवं सेवा-भक्ति भाव जैसे मानवीय गुणों की परिभाषा और आचार-व्यवहार भूल ही नहीं रहा है बल्कि वह विपरीत गुणों का दास बनकर उनका भरपूर उपयोग भी कर रहा है l वह ऐसा करना श्रेष्ठ समझता है क्योंकि मानवीय गुणों से युक्त किये गए कार्यों से मिलने वाला फल उसे देर से और विपरीत गुणों से प्रेरित कर्मफल जल्दी प्राप्त होता है l इस समय समाज को महती आवश्यकता है दिशोन्मुख कुशल नेतृत्व और उसका सही मार्गदर्शन करने की l

भारत में औद्योगिक क्रांति का आना बुरा नहीं है, बुरा तो उसका आवश्यकता से अधिक किया जाने वाला उपयोग है l हम दिन प्रतिदिन पूर्णतया कल-कारखानों और मशीनों पर आश्रित हो रहे हैं l यही हमारी मानसिकता बेकारी की जनक है l इजरायल जैसे किसी देश को ऐसी राष्ट्रीय नीति अवश्य अपनानी चाहिए जहाँ जनसंख्या कम हो l पर्याप्त जनसंख्या वाले भारत देश में कल-कारखानों और मशीनों से कम और स्नातक-युवाओं से अधिक कार्य लेना चाहिए l ऐसा करने से उन्हें रोजगार मिलेगा व बेरोजगारी की समस्या भी दूर होगी l स्नातक-युवा वर्ग को स्वयं शरीर-श्रम करना चाहिए जो उसे स्वस्थ रहने के लिए अति आवश्यक है l कल-कारखाने और मशीने भोग-विलास संबंधी वस्तुओं का उत्पादन करने वाले संसाधन मात्र हैं, शारीरिक बल देने वाले नहीं l वह तो कृषि–बागवानी, पशु–पालन, स्वच्छ जलवायु और शुद्ध पर्यावरण से उत्पन्न पौष्टिक खाद्य पदार्थों का सेवन करने से प्राप्त होता है l

हमें स्वस्थ रहने के लिए मशीनों द्वारा बनाये गए खाद्य पदार्थों के स्थान पर, स्वयं हाथ द्वारा बनाये हुए ताजा खाद्य पदार्थों का अपनी आवश्यकता अनुसार सेवन करने की आदत बनानी चाहिए l

भारत सरकार व राज्य सरकारों को ऐसा वातावरण बनाने में पहल करनी होगी l उन्हें अपनी नीतियां बदलनी होंगी जो विदेशी हवा पर आधारित न होकर स्वदेशी जलवायु तथा वातावरण और संस्कृति के अनुकूल हो ताकि ग्रामाद्योग, हस्तकला उद्योग तथा पैतृक व्यवसायों को अधिक से अधिक प्रोत्साहन मिल सके l उनके द्वारा बनाये गये सामान को उचित बाजार मिल सके और बेरोजगारी की बढ़ती समस्या पर नियंत्रण पाया जा सके l देश में कहीं पेयजल, कृषि भूमि और प्राणवायु की कमी न रहे l इसी में हमारे देश, समाज, परिवार और उसके हर जन साधारण का अपना हित है l 

चेतन कौशल “नूरपुरी”