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आलेख – संस्मरण कश्मीर टाइम्स 9.11.2008

क्या हिंदी “हिन्द की राजभाषा” को व्यवहारिक रूप में जन साधारण तक पहुँचाने में कोई बाधा आ रही है ? अगर हाँ तो हम उसे दूर करने में क्या प्रयास कर रहे हैं ? इस प्रश्न का उत्तर ढूंढना ज्यादा जरूरी है l

मुझे भली प्रकार याद है, दिनाक 29 फरवरी 2008 का दिन था l मैं अपार जन समूह में लघु सचिवालय धर्मशाला की सभागार में बैठा हुआ अति प्रसन्न था l मुझे वहां पहली वार बैठने का अवसर मिला था l हम सब वहां पर आयोजित केन्द्रीय भूजल बोर्ड व सिंचाई एवंम जन स्वास्थ्य विभाग (हि०प्र०) के अधिकारियों/कर्मचारियों की संयुक्त बैठक में भाग लेने गए हुए थे जिसकी अध्यक्षता सिंचाई एवंम जन स्वास्थ्य मंत्री ने की थी l


सभागार में हर कोई खामोश, कार्रवाई प्रारम्भ होने की प्रतीक्षा कर रहा था l राज्य के सिंचाई एवंम जन स्वास्थ्य मंत्री माननीय रविन्द्र रवि जी और चिन्मय स्वामी आश्रम संस्था की निदेशिका डा० क्षमा मैत्रय जी, के आने के पश्चात् सभागार की कार्रवाई शुरू हुई और हमारे कान खड़े हो गए l आरम्भ में, सिंचाई एवंम जन स्वास्थ्य मंत्री माननीय रविन्द्र रवि जी और चिन्मय स्वामी आश्रम संस्था की निदेशिका डा० क्षमा मैत्रय जी, के संभाषण से भारतीयता की झलक अवश्य दिखाई दी l दोनों के संबोधन/भाषण हिंदी भाषा में हुए जिनमें देश के गौरव की महक आ रही थी l


मुझे पूर्ण आशा थी कि भावी कार्रवाई भी इसी तरह चलेगी परन्तु विलायती हवा के तीव्र झोंके से रुख बदल गया और देखते ही देखते सभागार से हिंदी भाषा सूखे पीपल के पत्ते की भान्ति उड़कर अमुक दिशा में न जाने कहाँ खो गई l जिसका वहां किसी ने पुनः स्मरण तक नहीं किया – जो भी बोला, जिस किसी ने किसी से पूछा या जिसने कहा, मात्र अंग्रेजी भाषा में ही था l

उस समय मुझे ऐसा लगा मानों हम सब लधु सचिवालय धर्मशाला की सभागार में नहीं बल्कि ब्रिटिश संसद में बैठे हुए कार्रवाई देख रहे हों, अंतर मात्र इतना था कि हमारे सामने गोरे अंग्रेज नहीं बल्कि काले अंग्रेज – स्वदेशी अपने ही भाई थे l वो समाज को बताना चाहते थे कि वे गोरे अंग्रेजों से कहीं अधिक बढ़िया अंग्रेजी भाषा बोल और समझ सकते हैं l उनकी अंग्रेजी भाषा, हिंदी भाषा से ज्यादा प्रभावशाली है l अंग्रेजी भाषा में उनका ज्ञान देश की आम जनता आसानी से समझ सकती है l मुझे तो वहां अंग्रेजी साम्राज्य की बू आ रही थी – भले ही वह भारत में कब का समाप्त हो चुका था l


अंग्रेजी भाषा का ज्ञान होना कोई बुरी बात नहीं है l उसे बोलने से पूर्व देश, स्थान और श्रोता का ध्यान रखना ज्यादा जरूरी है l वह लघु सचिवालय अपना थल वहां बठे सभी लोग अपने थे फिर भी वहां सबके सामने राजभाषा हिंदी की अवहेलना और अनदेखी हुई l बोलने वाले लोग हिंदी भूल गए, जग जान गया की सचिवालय में राजभाषा हिंदी का कितना प्रयोग होता है और उसे कितना सम्मान दिया जाता है !


ऐसा लगा मानों सचिवालय में मात्र दो महानुभावों को छोड़कर अन्य किसी को हिंदी या स्थानीय भाषा आती ही नहीं है l हाँ, वे सब पाश्चात्य शिक्षा की भट्टी में तपे हुए अंग्रेजी भाषा के अच्छे प्रवक्ता अवश्य थे l वे अंग्रेजी भाषा भूलने वाले नहीं थे क्योंकि उन्होंने गोरे अंग्रेजों द्वारा विरासत में प्रदत भाषा का परित्याग करके उसका अपमान नहीं करना है l वे हिंदी भाषा बोल सकते थे पर उन्होंने सचिवालय में राजभाषा हिंदी का प्रयोग करके उसे सम्मानित नहीं किया, कहीं उनसे गोरे अंग्रेज नाराज हो जाते तो ---!


भारत या उसके किसी राज्य का चाहे कोई लघु सचिवालय हो या बड़ा, राज्य सभा हो या लोकसभा अथवा न्यायपालिका वहां पर होने वाली सम्मानित राजभाषा हिंदी में किसी भी जनहित कार्रवाई, बातचीत अथवा संभाषण के अपरिवर्तित मुख्य अंश मात्र उससे संबंधित विभागीय कार्यालय या अधिकारी तक सीमित न होकर ससम्मान राष्ट्र की विभिन्न स्थानीय भाषाओँ में, उचित माध्यमों द्वारा जन साधारण वर्ग तक पहुँचाने अति आवश्यक हैं l उनमें पारदर्शिता हो ताकि जन साधारण वर्ग भी उनमें सहभागीदार बन सके और सम्मान सहित जी सके l उसके द्वारा प्रदत योगदान से क्या राष्ट्र का नवनिर्माण नहीं हो सकता ? उसका लोकतंत्र में सक्रिय योगदान सुनिश्चित होना चाहिए जो उसका अपना अधिकार है l इससे वह दुनियां को बता सकता है कि भारत उसका भी अपना देश है l वह उसकी रक्षा करने में कभी किसी से पीछे रहने वाला नहीं है l

चेतन कौशल “नूरपुरी”