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आलेख – शिक्षा व्यवस्था मातृवंदना फरवरी 2017 
यह शाश्वत सत्य है कि हम जैसी संगत करते हैं, हमारी वैसी भावना होती है l हमारी जैसी भावना उत्पन्न होती है, हमारा वैसा विचार होता है l हमारा जैसा विचार पैदा होता है, हमसे हमारा वैसा ही कर्म होने लगता है और जब हम जैसा कर्म करते हैं, तब हमें उसका वैसा फल भी मिलता है l  
गृहस्थ जीवन में गर्भादान के पश्चात् एक माँ के गर्भ में जब शिशु पूर्णतया विकसित हो जाता है तब उसके साथ ही उसके सभी अंग भी सुचारू ढंग से अपना-अपना कार्य करना आरंभ कर देते हैं l माँ के सो जाने पर शिशु भी सो जाता है और उसके जाग जाने पर वह भी जाग जाता है l इस अवस्था में माँ-बाप के द्वारा उसे जो कुछ सिखाया जाता है शिशु सहजता से सीख जाता है l
इसका उदाहरण हमें महाभारत के पात्र वीर अभिमन्यु से मिलता है l तब अभिमन्यु अपनी माँ सुभद्रा की कोख में पल रहा था l एक दिन महारथी अर्जुन अपनी भार्या सुभद्रा को चक्रव्यूह बेधने की विधि सुनाने लगे l सुभद्रा ने उसे चक्रव्यूह में प्रवेश करने तक तो सुन लिया, पर इससे आगे सुनते-सुनते वह बीच में सो गई, शिशु भी सो गया l चक्रव्यूह से बाहर कैसे निकलना है ? वह बात माँ और बेटा दोनों नहीं सुन पाए l अतः महाभारत युद्ध की अनिवार्यता देखते हुये और चक्रव्यूह बेधन का अपूर्ण ज्ञान होते हुए भी अभिमन्यु को गुरु द्रोणाचार्य द्वारा रचित चक्रव्यूह में प्रवेश करना पड़ा l वह उसमें प्रवेश तो कर गया पर बाहर निकलने के मार्ग का उसे ज्ञान न होने के कारण, वह बाहर नहीं निकल सका l अतः वह वीरगति को प्राप्त हो गया l
जन्म लेने के पश्चात् शिशु सबसे पहले माँ को पहचानता है l ज्यों-ज्यों उसे संसार का बोध होता होने लगता है त्यों-त्यों वह घर के अन्य सदस्यों को भी पहचानने लगता है और उनसे बहुत सा कुछ सीख लेता है l शिशु के साथ सीखने-सिखाने के इस कर्म में सबसे पहले माँ-बाप की सबसे बड़ी भूमिका रहती है l उसके सामने माँ-बाप जैसा कार्य करते हैं, वह उन्हें जैसा कार्य करते हुए देखता है, वह उन्हें जैसा बोलते हुए सुनता है, वह तत्काल उसका अनुसारण भी करने लगता है l हर माँ-बाप चाहते हैं कि उनकी सन्तान उनसे अच्छी हो l वह भविष्य में उनसे भी अधिक बढ़-चढ़कर उन्नति करे l इसी बात का ध्यान रखते हुए उन्हें अपने बच्चो के लिए एक अच्छा वातावरण बनाना होता है l एक अच्छे वातावरण में ही बच्चों को अच्छे संस्कार मिलते हैं और वे अपने जीवन में दिन दुगनी-रात चौगुनी उन्नति करते हैं l
घर से बच्चों को अच्छे संस्कार मिलने के पश्चात विद्यालय में गुरुजनों की बड़ी भूमिका होती है l विद्यालय में अच्छे संस्कारों का संरक्षण होता है, होना भी चाहिए l यह कार्य कभी भारत के परंपरागत गुरुकुल किया करते थे l वहां गुरुजनों के द्वारा ऐसी होनहार प्रतिभाओं को भली प्रकार परखा और तराशा जाता था जो युवा होकर अपने-अपने कार्य क्षेत्र में जी-जान लगाकर कार्य करते थे l परिणाम स्वरूप हमारा भारत विश्व मानचित्र पर अखंड भारत बनकर उभरा और वह सोने की चिड़िया के नाम से सर्व विख्यात हुआ l उन्नति के पश्चात पतन होना निश्चित है, देश का पतन हुआ l वर्तमान भारत जिसे हम सब देख रहे हैं, वह वास्तविक भारत नहीं है जो विश्व मानचित्र पर अखंड महाभारत दिखता था l विभिन्न षड्यंत्रों के कारण उसके कई महत्वपूर्ण क्षेत्र अब उससे कटकर विभिन्न राष्ट्र बन चुके हैं l देश में अब भी अनेकों षड्यंत्र जारी हैं l ऐसी स्थिति में सरकारों को देशहित में कठोर निर्णय लेने होते हैं, लेने भी चाहिए और जनता द्वारा उन्हें अपना भरपूर सहयोग देना चाहिए l भविष्य में सावधान रहने की आवश्यकता है l
भारत में अंग्रेजी साम्राज्य की स्थापना के पश्चात अंग्रेजों ने भारतीय परंपरागत गुरुकुलों की मान्यता समाप्त कर दी थी l और उसके स्थान पर उन्होंने पाश्चात्य शिक्षा-प्रणाली जारी की थी l पाश्चात्य शिक्षा-संस्कृति पर आधारित वर्तमान शिक्षा-व्यवस्था से भारतीय सनातन धर्म, शिक्षा-संस्कृति पर बुरा प्रभाव पड़ा है, पड़ रहा है और निरंतर जारी है l
भारतीय परंपरागत गुरुकुलों की विशेषता यह थी कि ब्रह्मचर्य जीवन में जब बच्चे पूर्णतया विद्या प्राप्त करके स्नातक बनकर युवाओं के रूप में गुरुकुल छोड़ने के पश्चात समाज में आगमन करते थे तब वे समाज की दृष्टि में सच्चे ज्ञानवीर, शूरवीर, धर्मवीर तथा कर्मवीर होते थे l लोग उनका हार्दिक सम्मान करते थे l परन्तु पराधीनता से मुक्ति पाने के पश्चात् भी भारतवर्ष में आज हर युवा अव्यवस्था के दंश से दुखी, अपनी इच्छा का कार्य, कार्य क्षेत्र न मिल पाने के कारण असहाय सा अनुभव कर रहा है l
यह हम सबका दुर्भाग्य ही है कि भारत में परंपरागत गुरुकुल नहीं हैं l वर्तमान शिक्षा के निम्न स्तर तथा शिक्षा व्यवस्था का तेजी से व्यपारीकरण एवंम राजनीतिकरण होने से बच्चों को माँ-बाप से मिलने वाले संस्कारों को कहीं संरक्षण नहीं मिल रहा है l घर पर बच्चों को अच्छे संस्कार तो मिल जाते हैं पर उनका पालन-पोषण करने वाली परंपरागत गुरुकुल प्रधान शिक्षा व्यवस्था आज कहीं दिखती नहीं है l पाश्चात्य शिक्षा व्यवस्था और उसके अधीनस्थ कार्य करने वाले समस्त छोटे तथा बड़े असमर्थ विद्यालय, विद्यालय केन्द्रों से युवा वर्ग दशा और दिशा दोनों से भ्रमित हो रहा है l उसका भविष्य अंधकारमय हो गया है l फिर भी वह अपना हित चाहता है पर उसकी श्रेष्ठता किसमें है ? यहाँ हमें इस बात का विश्लेषण करके देखना अति आवश्यक है l
हम लोगों में कुछ लोग मात्र अपना ही भला चाहते हैं l कुछ लोग अपना और अपने रिश्तेदारों का भला चाहते हैं l कुछ लोग अपना और कुछ लोगों का भला चाहते हैं l जो लोग मात्र अपना भला चाहते हैं, अपने रिश्तेदारों का भला चाहते हैं, अपना और कुछ लोगों का भला चाहते हैं, उनमें निज स्वार्थ भी दिखाई देता है l वे कभी सबका भला होता हुआ नहीं देख सकते l मगर हममें कुछ ऐसे भी लोग हैं जो सब लोगों का भला चाहते हैं l इसमें उनका अपना कोई भी हित नहीं दिखता l वे दूसरों के हित में अपना हित समझते हैं, चाहते हैं l इसलिए सबका भला करने वाले लोग सन्यासी, सर्व श्रेष्ठ लोग होते हैं l
मन के विकार और इच्छाएं बड़ी प्रबल होती हैं l वानप्रस्थ जीवन में उनका अपने विवेक द्वारा सयंमन करने और उनके प्रति हर समय जागरूक रहने की निरंतर आवश्यकता रहती है l वैसे तो हर व्यक्ति स्वतंत्र रहना चाहता है पर स्वतंत्रता का अर्थ यह नहीं है कि प्रभावशाली होने पर भी मर्यादाओं का उल्लंघन किया जाये या हर किसी को उसकी मनमर्जी करने की छूट हो, बल्कि स्वतंत्रता का अर्थ है कि व्यक्ति के द्वारा उन मर्यादाओं की पालना करने के साथ-साथ समाजिक दायित्वों का भी भली प्रकार निर्वहन हो l समर्थवान बनने के लिए हर व्यक्ति ईश्वर से प्रार्थना करके, उसका कृपा-पात्र बन सकता है l
वह प्रार्थना कर सकता है – हे ईश्वर ! हमारे मन में सुसंगत करने का साहस उत्पन्न हो l कुसंगत से हमारी निरंतर दूरी बनी रहे l सुसंगत हमारे मन में शुद्ध भावना पैदा करे l शुद्ध भावना से हमारी हर दुर्बलता, दुर्भावना का नाश हो l शुद्ध भावना से हमारे मन में शुद्ध विचारों की वृद्धि हो l भूलकर भी हमारे मन कोई कुविचार न आये l शुद्ध विचार हमारे सत्कर्मों की सदा वृद्धि करें l आपका हमें कभी विस्मरण न हो l हमसे कभी कोई दुराचार न हो l सत्कर्मों से हमारा सदैव आत्मोत्थान हो l हमारा कभी आत्म-पतन न हो l आप हमें सदा आत्मोन्मुख बनाये रखें l आपकी कृपा से हम सदैव दूसरों की भलाई करने हेतु निमित मात्र बने रहें l यह मनोकामना हम सबकी पूर्ण हो l
सर्वजन हिताय - सर्वजन सुखाये नीति के अंतर्गत परंपरागत सन्यासी और शासक, जन प्रतिनिधि, राजनेता का जीवन एक ही समान होता है, भारत में पहले ऐसा होता था और अब भी है l उनका कार्य, कार्य क्षेत्र अलग-अलग होने पर भी उनकी रचनात्मक एवंम सकारात्मक सोच एक ही समान रहती है l वास्तविक सन्यासी ज्ञानी, भक्त और वैरागी होता है l वह सदैव दूसरों का मार्गदर्शन करता है l यही कारण था कि भारत विश्व गुरु बना l
सर्वजन हिताय - सर्वजन सुखाये नीति के अंतर्गत सबका एक समान विकास करना, विकास किया जाना सरकारी और गैर सरकारी संस्थानों का दायित्व है l आज देशहित में आवश्यकता इस बात की है कि बच्चों को माँ-बाप के द्वारा मिलने वाले शिक्षा संस्कारों का समस्त विद्यालयों में भली प्रकार पालन-पोषण हो, संरक्षण हो l यह कार्य वहां तभी साकार हो सकता है जब भारत सरकार और देश की राज्य सरकारें आपस में परंपरागत गुरुकुलों की भाँती कोई एक ठोस राष्ट्रीय शिक्षा-नीति की घोषणा करके उसे व्यवहारिकता प्रदान करें l इससे भारतवर्ष विश्व मानचित्र पर पुनः अखंड महाभारत एवंम विश्व गुरु बन सकता है l इसके बिना न तो भारतवर्ष का हित है और न ही किसी देशवासी का

चेतन कौशल “नूरपुरी”