धर्म और अधर्म - समय सूचक यंत्र की भांति समय वृत्त निरंतर घूम रहा है l परिवर्तन प्रकृति का नियम है l दिन के पश्चात रात और रात के पश्चात दिन का आगमन अवश्य होता है l विश्व में कभी धर्म का राज स्थापित होता है तो कभी अधर्म का l सृष्टि में सत्सनातन धर्म का होना नितांत आवश्यक है l असत्य, अधर्म, अन्याय और दुराचार को अधर्म पसंद करता है लेकिन धर्म नहीं l युद्ध चाहे राम - रावण का हो या महाभारत का, धर्म और अधर्म के महा युद्ध में धर्म ही की जीत होती है, अधर्म की नहीं l
मानव जाति का पतन और उत्थान - प्राणी जगत में जब एक ओर मनुष्य जाति के मानसिक विकार अपना उग्र रूप धारण करते हैं तो दूसरी ओर उसका बौध्दिक पतन भी होता है l काम - कामुकता वश नर के द्वारा स्थान - स्थान पर नारी जाति का अपमान, उसका शारीरिक - मानसिक शोषण होता है l उसका अपहरण, बलात्कार, धर्मांतरण किया जाता है, इससे अब नर जाति भी अछूती नहीं रही है l मदिरा पान से नर-नारी अपना - पराया संबंध भूल जाते हैं l क्रोध में वह झगड़े, मारपीट, करते हैं l वह आतंकी, उग्रवादी, जिहादी बनते हैं l वह हिंसा, तोड़फोड़, अग्निकांड करते हैं l लोभ में वह चोरी, ठगी, तस्करी, धन गबन, घोटाले करते हैं l वह छल - कपट, षड्यंत्र भी करते हैं l मोह में वह अपना और अपनों ही का हित चाहते हैं, उससे संबंधित चेष्टायें करते हैं l अहंकार में वह दूसरों को तुच्छ और स्वयं को सर्वश्रेष्ठ मानते हैं l
“जैसा खावे अन्न, वैसा होवे मन” कहावत अपने आप में बहुत कुछ कहती है l संगत से भावना और भावना से विचार उत्पन्न होते हैं l विचारानुसार कर्म, कर्मानुसार निकलने वाला अच्छा और बुरा परिणाम उसका फल - मनुष्य की मानसिक प्रवृत्ति पर निर्भर करता है l वह जैसा चाहता है, बन जाता है l पौष्टिक संतुलित भोजन से शरीर, श्रद्धा, प्रेम - भक्ति भाव से मन, स्वाध्यय से बुद्धि और भजन, समर्पण से उसकी आत्मा को बल मिलता है l इससे मनुष्य के पराक्रम, यश, मान और प्रतिष्ठा का वर्धन होता है l मनुष्य की आयु बढ़ती है l उसके लिए लोक - परलोक का मार्ग प्रशस्त होता है l
समर्थ सामाजिक वर्ण व्यवस्था - प्राचीन भारत को सोने की चिड़िया कहा जाता था, क्योंकि यह अपने समृद्ध संसाधनों, सत्सनातन धर्म, वैभवशाली संस्कृति और सम्पन्न अर्थ-व्यवस्था के कारण विश्व की सबसे धनी सभ्यताओं में से एक था l इसके पीछे सत्सनातन धर्म का रक्षण – पोषण, वर्धन करने वाली आर्यवर्त मनीषियों की सर्व कल्याणकारी सोच थी जो कर्म आधारित व्यापक और सशक्त वैश्विक सत्सनातनी सामाजिक वर्ण - व्यवस्था के नाम से जानी गई है l इसके अनुसार मानव शरीर के चार अवयव प्रमुख माने गए हैं l मुख से ब्राह्मण, पेट से वैश्य, बाजुओं से क्षत्रिय और पैरों से शूद्र की उत्पत्ति हुई, मानी जाती है l यह एक दूसरे के पूरक हैं l जिस प्रकार शरीर के चार अवयवों में से किसी एक अवयव के बिना किसी अन्य अवयव का कभी पोषण, रक्षण नहीं हो सकता, उसी प्रकार समाज की वर्ण - व्यवस्था में जो उसके चार अभिन्न वर्ण विभाग रहे हैं - एक दूसरे के पूरक, पोषक और रक्षक हैं l
सर्व व्यापक सामाजिक वर्ण - व्यवस्था आर्यवर्त काल से सुचारू रूप से चली आ रही थी जिसके अंतर्गत वर्ण - व्यवस्था के चार वर्ण विभाग ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्ण अपने - अपने गुण, संस्कार और स्वभाव के अनुसार सबके लिए कर्म करते हुए सुख - शांति का माध्यम बनते थे l उससे राष्ट्र वैभव सम्पन्न और समृद्धशाली बना था l समय के थपेड़ों ने इस कर्म प्रधान वर्ण - व्यवस्था को जातियों में विभक्त किया है l उसने उसमें छुआछुत वाली गहरी खाई खोदी है l उसकी मनचाही कहानी गढ़कर, उसे ठेस पहुंचाई है जो किसी नीच सोच का ही परिणाम है l समर्थ सामाजिक वर्ण - व्यवस्था कर्म आधारित, कर्म प्रधान थी, न कि जन्म आधारित या जाति आधारित l
ब्राह्मण आचार्य - वह व्यक्ति ब्राह्मण / आचार्य कहलाता था जो वैदिक ज्ञान का सृजन, पोषण, वर्धन करता था l जो ब्रह्म विद्या का पंडित होता था l जो ईश्वरीय तत्व के ज्ञान का सृजन करता था l जो असत्य, अधर्म, अन्याय और अनाचार के विरूद्ध कलम उठाता था l जो लोगों को जागरूक करता था, उनका मार्ग दर्शन करता था l
सत्सनातन धर्म का संवाहक होने के नाते ब्राह्मण / आचार्य समाज में वैदिक ज्ञान - विज्ञान वृद्धि हेतु हर गाँव के विशाल मंदिर में एक गुरुकुल, एक धार्मिक पुस्तकालय, एक गौशाला और एक आयुर्वेदिक चिकित्सालय की स्थापना करते थे l वह सत्सनातन धर्म - संस्कृति, समाज, राष्ट्र की सेवा और रक्षा के प्रति विद्यार्थियों को गुण, संस्कार और स्वभाव अनुसार शिक्षण – प्रशिक्षण देते थे l वह समाज के सभी बच्चों की बिना भेदभाव निशुल्क शिक्षा, चिकित्सा प्रदान करते थे l वह ब्रह्मभाव में स्थिर रहकर शस्त्र - शास्त्र संबंधी सभी विद्याओं से युक्त सर्व कल्याणकारी कार्य करने हेतु विद्यार्थियों को विद्वान्, – ज्ञानवीर, शूरवीर, धर्मवीर और कर्मवीर बनाते थे l
स्थानीय अभिभावक, आचार्य, प्रशासक, सेवक, नेता और अभिनेता गुरुकुल में अपनी आय में से कुछ न कुछ अंश दान अवश्य करते थे जिसमें उनके बच्चों / विद्यार्थियों को आवश्यक विषयों का शिक्षण - प्रशिक्षण मिलता था l उससे सत्सनातन धर्म, समाज सशक्त बनता था और राष्ट्र का भी विकास होता था l
वह सत्सनातन धर्म – संस्कृति, वैदिक ज्ञान - विज्ञान सेवा हेतु प्रतिपल तत्पर रहते थे l वह ज्ञानवीर, तत्व ज्ञानी बनकर विश्व कल्याणकारी कार्य करते थे, मार्ग दर्शन करते थे l वह प्रतिवर्ष अभिभावकों से मेल-मिलाप व विचार विमर्श हेतु कार्यक्रम का आयोजन करते थे l वह महापुरुषों जैसे भगवान् परशुराम की जयंती मनाने हेतु वार्षिक कार्यक्रम तथा इस अवसर पर यज्ञोपवीत संस्कार आदि का आयोजन करते थे l वह गाँव के चहुँमुखी विकास से संबंधित ज्ञान प्रचार - प्रसार हेतु कार्यशालाओं का आयोजन करते थे l वह गाँव में अध्यात्मिक विकास हेतु मंदिर परिसरों का उचित रख – रखाव करते थे l वह वैदिक विद्या मंदिर परिसर के आस - पास मदिरा एवं मांस का क्रय - विक्रय निषेद्ध करते थे l वह देव मंदिर परिसर में खंडित मूर्तियों के स्थान पर नई मूर्तियों की स्थापना करते थे और सुनिश्चित करते थे कि कोई असामाजिक तत्व उन्हें कभी हानि न पहुंचाये l वह देव मंदिर तथा मंदिर - परिसर में परंपरागत पूजा करने की व्यवस्था करते थे l
विद्यार्थी चयन और शिक्षण - प्रशिक्षण नीति - योग्य ब्राह्मण / आचार्य समाज में प्रतिभाओं की खोज एवं योग्य विद्यार्थी का चयन करते थे l वह प्रतिभाओं को अपना संरक्षण और उन्हें जीवन में आगे बढ़ने का प्रोत्साहन देते थे l वह प्रतिभाओं के जीवन में विद्यमान सर्व कलाओं का विकास करने में सहयोग करते थे l वह प्रतिभागियों के लिए वैदिक ज्ञान - विज्ञान की प्रतियोगिताओं का आयोजन करते थे l वह जीवन में आने वाले संकट, चुनौतियां, विपदाओं से निपटने हेतु विद्यार्थियों को आत्म - रक्षा हेतु तैयार करते थे l उन्हें वैदिक शिक्षण – प्रशिक्षण देकर समर्थवान बनाते थे l
सशक्त सत्सनातन आर्य समाज - विश्व स्तर पर वैश्विक सत्सनातन आर्य समाज को सशक्त करने हेतु स्थानीय स्तर पर विभिन्न ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र सभाओं का गठन किया जाता था l समाज को सशक्त बनाने हेतु - सभी लोग मिल बैठकर रामायण, गीता और वैदिक साहित्य का पठन - पाठन करते थे l प्रत्येक सनातनी के घर पर एक आवश्यक मंदिर होता था, जहाँ बच्चे अभिभावकों संग सुबह - शाम पूजा करते थे l इससे बच्चों को उच्च संस्कार मिलते थे l
स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात देशहित में समय - समय पर परम्परागत गुरुकुल शिक्षा - प्रणाली की समीक्षा होनी चाहिए थी, कभी हुई नहीं l सत्तारूढ़ राजनेताओं के पास गत 60 वर्षों से देश में असत्य, अधर्म अन्याय और अनीति का राज करने का तो समय था, लेकिन समीक्षा करने का नहीं l देश के गद्दार नेताओं का एक ही उद्देश्य रहा है - अत्याचारी, जिहादी, आतंकी मानसिकता के लोगों को शरण दो l सनातनी परिवार, समाज और राष्ट्र को ऊँच-नीच, धर्म और जातियों में बांटो, उन्हें आपस में लड़वाओ और फिर अवसर मिलते ही काटना / मिटाना आरम्भ कर दो l उन्हें तो किसी तरह सत्सनातन धर्म मिटाना ही है l
संतोष की बात है कि सन 2014 के पश्चात राष्ट्रवादी, सनातनी विचारधारा के अभिभावक आचार्य, प्रशासक, राजनेता और मतदाता लोग इस गुप्त कार्यक्रम को समय रहते समझ गए ओर परिवर्तन लाने हेतु संगठित होने लगे हैं l इससे अब परिवर्तन की अस्पष्ट सी एक झलक दिखाई देने लगी है l आशा है भारत अपना पुरातन गौरव पुनः अवश्य प्राप्त करेगा l विश्व स्तर पर सत्सनातन आर्य समाज सशक्त होगा l इस कार्य में सहयोग देने हेतु देशभर के ब्राह्मण अभिभावक, ब्राह्मण आचार्य, ब्राह्मण, प्रशासक और ब्राह्मण राजनेताओं की एक “अखिल भारतीय ब्राह्मण सभा” – जो गैर सरकारी होगी, के नेतृत्व में प्रांतीय और स्थानीय स्तर पर ब्राह्मण सभाओं का शिघ्रातिशीघ्र पुनर्गठन किया जायेगा l