मानवता सेवा की गतिविधियाँ

लेखक: चेतन कौशल (page 162 of 164)

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सर्वोत्तम वरदान

अनमोल वचन :-# अच्छा स्वास्थ्य एवंम अच्छी समझ जीवन में दो सर्वोत्तम वरदान है l *
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आचरण शुद्धता

अनमोल वचन :-# आचरण की शुद्धता ही व्यक्ति को प्रखर बनाती है l*
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अनीति मार्ग

अनमोल वचन :-# अनीति के रास्ते पर चलने वाले का बीच राह में ही पतन हो जाता है l*
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व्यक्ति परिचय

अनमोल वचन :-# दो चीजें आपका परिचय कराती हैं : आपका धैर्य, जब आपके पास कुछ भी न हो और...
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प्रभु की समीपता

अनमोल वचन :-# धर्यता और विनम्रता नामक दो गुणों से व्यक्ति की ईश्वर से समीपता बनी रहती है l*
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उच्च विचार

अनमोल वचन :-# दिनरात अपने मस्तिष्क को उच्चकोटि के विचारों से भरो जो फल प्राप्त होगा वह निश्चित ही अनोखा...
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मुस्कराना

अनमोल वचन :-# मुस्कराना, संतुष्टता की निशानी है इसलिए सदा मुस्कराते रहो l*
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प्रभु कृपा

अनमोल वचन :-# सच्चाई, सात्विकता और सरलता के बिना भगवान् की कृपा कदापि प्राप्त नहीं की जा सकती l*
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जीवन महत्व

अनमोल वचन :-# आप अपने जीवन का महत्व समझकर चलो तो दूसरे भी महत्व देंगे l*
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जीवन महत्व

अनमोल वचन :-# आप अपने जीवन का महत्व समझकर चलो तो दूसरे भी महत्व देंगे l*
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समाज के प्रति सजगता

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आलेख - सामाजिक चेतना कश्मीर टाइम्स 21.11.1996 
नैतिक शक्ति से व्यक्तित्व निर्माण होता है जबकि अनुशासन से जन शक्ति, ग्राम शक्ति एवं राष्ट्र शक्ति का l इसी प्रकार कुशल नेतृत्व में अनुशासित संगठन शक्ति द्वारा संचालित जो शासन भेदभाव रहित सबके हित के लिए एक समान न्याय करता है, वह सुशासन होता है l 
जन्म लेने के पश्चात् जैसे-जैसे बालक बड़ा होता जाता है उसे सबसे पहले माँ का परिचय मिलता है फिर बाप का l उसे पता चलता है कि उसकी माँ कौन है और बाप कौन ? उसके माता-पिता उसे हर कदम पर उचित कार्य करने और गलत कार्य न करने के लिए उसका साथ देते हैं l इससे वह सीखता है कि उसे क्या अच्छा करना है और क्या बुरा नहीं ?
यही कारण है कि जब बालक बचपन छोड़कर किशोरावस्था में प्रवेश करता है तो वह अपने घर के लिए अच्छे या बुर कार्यों को भली प्रकार समझने लगता है l वह जान जाता है कि घर की संपत्ति पूरे परिवार की संपत्ति होती है l वह तब ऐसा कोई भी कार्य नहीं करता है जिससे उसका अपना या अपने घर का कोई अहित हो l
जब वह रोजगार हेतु सरकारी या गैर सरकारी कार्यक्षेत्र में प्रविष्ट हो जाता है तब वह अपने घर में मिली उस बहुमूल्य शिक्षा को भूल जाता है कि जिस प्रकार माँ-बाप द्वारा बनाई गई सारी संपत्ति पूरे परिवार की अपनी संपत्ति होती है उसी प्रकार सरकारी या गैर सरकारी संस्थान की भी पूरे समाज या राष्ट्र की अपनी संपत्ति होती है तथा वह स्वयं उस संपत्ति का रक्षक होता है l

इसका कारण यह है कि उसे मिली शिक्षा अभी अधूरी है क्योंकि कभी-कभी वह अपने कार्य क्षेत्र में तरह-तरह के फेरबदल, हेराफेरी और गबन इतिआदि कार्य करने से ही नहीं हिचकचाता या डरता बल्कि अपने से नीचे कार्यरत कर्मचारियों का तन, मन, धन संबंधी शोषण और उन पर तरह-तरह के अत्याचार भी करता है, मानों वे उसके गुलाम हों l लालच उसकी नश-नश में भरा हुआ होता है l
मनुष्य की आवश्यकता है – संपूर्ण जीवन विकास l जीवन का विकास मात्र ब्रह्म विद्या कर सकती है l वह सिखाती है कि निष्काम भाव से कार्य कैसे करें और अपनी अभिलाषाएं कैसे कम करें ? जब हमारी इच्छायें कम होंगी तब हम और हमारा समाज सुखी अवश्य होगा l
वन्य संपदा में पेड़-पौधे, जंगल दिन प्रतिदिन कम हो रहे हैं l उनकी कमी होने से जंगली पशु-पक्षियों व जड़ी-बूटियों का आभाव हो रहा है l भूमि कटाव बढ़ रहा है l बाढ़ का प्रकोप सूरसा माई की तरह अपना मुंह निरंतर फैलाये जा रही है l वन्य संपदा के आभाव, धरती कटाव और बाढ़ रोकने के लिए आवश्यक है जंगलों का संरक्षण किया जाना l वन्य पशु-पक्षियों को मारने पर प्रतिबंध लगाना l जड़ी-बूटियों को चोरी से उखाड़ने वालों से कड़ाई से निपटा जाना l यह सब रचनात्मक कार्य ग्राम जन शक्ति से किये जा सकते हैं l
वर्तमान समय में विभिन्न राष्ट्रों के आपसी राजनैतिक मतभेद और संघर्षों के कारण हर राष्ट्र और राष्ट्रवादी दुखी व निराश है l जब भी युद्ध होते हैं, निर्दोष जीव व प्राणी मारे जाते हैं l राष्ट्रों का आपसी विरोध व शत्रुता कम होने के स्थान पर और अधिक बढ़ जाती है l ऐसे संघर्ष रोकने के लिए सारी धरती गोपाल की, भावना का विस्तार करना आवश्यक है l अगर हममें आपसी भाईचारा व बन्धुत्व भाव होगा तो हम अपना दुःख-सुख आपस में बाँटकर कम कर सकते हैं l
संसार में जहाँ प्रतिदिन, प्रतिक्षण के हिसाब से लाखों में जनसंख्या बढ़ रही है तो पौष्टिक पदार्थों के कम होने के साथ-साथ धरती भी सिकुड़ती जा रही है l कारखाने, सड़क, बाँध, भवन बनते जा रहे हैं l युवावर्ग में शारीरिक दुर्बलता, विषय-वासनाओं के प्रति मानसिक दासता बढ़ रही है l हमें चाहिए कि सयंम रहित जनन क्रिया को सामाजिक समस्या समझा जाये l समाज की समस्या परिवार की और परिवार की समस्या अपनी समस्या होती है या वह समस्या बन जाती है l इसलिए परिवार का सीमित होना अति आवश्यक है l
कोई भी रोग किसी को हो सकता है l उसकी दवाई होती है या दवाई बना ली जाती है l रोगोपचार के लिए रोगी को दवाई दी जाती है l उसका उपचार किया जाता है और वह एक दिन रोग-मुक्त भी हो जाता है l विशाल समाज ऐसे विभिन्न रोगों से रोगग्रस्त हो गया है l सब रोगों की एक ही दवाई है ब्रह्म विद्या, जो मात्र सरस्वती विद्या मंदिरों के माध्यम से संस्कारों के रूप में. रोग निदान हेतु वितरित की जा सकती है l आइये ! हम विस्तृत समाज में ब्रह्म विद्या के सरस्वती विद्या मंदिरों की स्थापना करके इस पुनीत कार्य को संपूर्ण करें l

चेतन कौशल "नूरपुरी"

अपने प्रति अपनी सजगता

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आलेख - मानव जीवन दर्शन - कश्मीर टाइम्स 21.10.1996 
मानव मन जो उसे नीच कर्म करने से रोकता है, विपदा आने से पूर्व सावधान भी करता है, वह स्वयं बड़े रहस्यमय ढंग से एक ऐसे आवरण में छुपा रहता है जिसके चारों ओर विषय, वासना और विकार रूपी एक के पश्चात् एक पहली, दूसरी तीसरी और चौथी परत के पश्चात् परत चढ़ी रहती है l जब मनुष्य अपनी निरंतर साधना, अभ्यास और वैराग्य के बल से उन सभी आवरणों को हटा देता है , आत्मा का साक्षात् कर लेता है उसे पहचान लेता है और ये जान लेता है कि वह स्वयं कौन है ? क्यों है ? तो वह समाज का सेवक बन जाता है l उसकी मानसिक स्थिति एक साधारण मनुष्य से भिन्न हो जाती है l 
मनुष्य का मन उस जल के समान है जिसका अपना कोई रंग-रूप या आकार नहीं है l कोई उसे जब चाहे जैसे वर्तन में डाले, वह अपने स्वभाव के अनुरूप स्वयं को उसमें व्यवस्थित कर लेता है l ठीक यही स्थिति मनुष्य के मन की है l चाहे वह उसे अज्ञानता के गहरे गर्त में धकेल दे या ज्ञानता के उच्च शिखर पर ले जाये, ये उसके अधीन है l उसका मन दोनों कार्य कर सकता है, सक्षम है l इनमें अंतर मात्र ये है कि एक मार्ग से उसका पतन होता है और दूसरे से उत्थान l इन्हें मात्र सत्य पर आधारित शिक्षा से जाना जा सकता है l
संसार में भोग और योग दो ऐसी सीढियाँ हैं जिन पर चढ़कर मनुष्य को भौतिक एवंम अध्यात्मिक सुख की प्राप्ति होती है l यह तो उसके द्वारा विचार करने योग्य बात है कि उसे किस सीढ़ी पर चढ़ना है और किस सीढ़ी पर चढ़कर उसे दुःख मिलता है और किससे सुख ?
महानुभावों का अपने जीवन में यह भली प्रकार विचार युक्त जाना-पहचाना दिव्य अनुभव रहा है कि बुराई संगत करने योग्य वस्तु नहीं है l भोग-चिंतन कुसंगति का बुलावा है l भोग-चितन करने से मनुष्य बुरी संगत में पड़ता है l बुरी संगत करने से बुरी भावना, बुरी भावना से बुरे विचार, बुरे विचारों से बुरे कर्म पैदा होते हैं जिनसे निकलने वाला फल भी बुरा ही होता है l
बुराई से दूर रहो ! इसलिए नहीं कि आप उससे भयभीत हो l वह इसलिए कि दूर रहकर आप उससे संघर्ष करने का अपना सहस बढ़ा सको l मन को बलशाली बना सको l इन्द्रियों को अनुशासित कर सको l फिर देखो, बुराई से संघर्ष करके l इससे निकलने वाले परिणाम से आपको ही नहीं आपके परिवार, गाँव, शहर,समाज और राष्ट्र के साथ-साथ विश्व का भी कल्याण होगा l वास्तविक मानव जीवन यही है l
मनुष्य द्वारा अपने मन को भोग से योग में लगाना सम्भवतः एक बहुत बड़ी तपस्या है – भौतिक सुख में लिप्त रहने वाले मनुष्य को वर्तमान काल में ऐसा करना बहुत कठिन लगता है l
मनुष्य द्वारा अपने मन को भोग से योग में लगाना संभवतः एक बहुत बड़ी तपस्या है – भौतिक सुख में लिप्त रहने वाले मनुष्य को वर्तमान काल में ऐसा करना बहुत कठिन लगता है l ये उसकी अपनी दुर्बलता है l जब तक वह अपने आप को बलशाली नहीं बना लेता, तब तक वह स्वयं ही बुराई का शिकार नहीं होगा बल्कि उससे उसका कोई अपना हितैषी बन्धु भी चैन की नींद नहीं सो सकता l
मनुष्य भोग बिना योग और योग बिना भोग सुख को कभी प्राप्त नहीं कर सकता क्योंकि उसे भोग में योग और योग में भोग का व्यवहारिक अनुभव होना नितांत आवश्यक है l वह चाहे पढ़ाई से जाना गया हो या क्रिया अभ्यास से ही सिद्ध किया गया हो l अगर जीवन में इन दोनों का मिला-जुला अनुभव हो जाये तो वह एक अति श्रेष्ठ अनुभव होगा l इसके लिए कोरी पढ़ाई जो आचरण में न लाई जाये, नीरस है और कोरा क्रिया अभ्यास जिसका पढ़ाई किये बिना आचरण किया गया हो - आनंद रहित है l
जिस प्रकार साज और आवाज के मेल से किसी नर्तकी के पैर न चाहते हुए भी अपने आप थिरकने आरम्भ हो जाते हैं, ठीक उसी प्रकार अध्यन के साथ-साथ उसका आचरण करने से मनुष्य जीवन भी स्वयं ही सस्भी सुखों से परिपूर्ण होता जाता है l
प्राचीन काल में ही क्यों आज भी हमारे बीच में ऐसे कई महानुभाव विद्यमान हैं जो आजीवन अविवाहित रहने का प्रण किये हुए हैं और दूसरे गृहस्थ जीवन से निवृत्त होकर उच्च सन्यासी हो गए हैं या जिन्होंने तन, मन और धन से वैराग्य ले लिया है l उनका ध्येय स्थित प्रज्ञ की प्राप्ति अथवा आत्मशांति प्राप्त करने के साथ-साथ सबका कल्याण करना होता है l इनके मार्ग भले ही अलग-अलग हों पर मंजिल एक ही है l
वह ब्रहमचारी या सन्यासी जिसकी बुद्धि किसी इच्छा या वासना के तूफान में कभी अडिग न रह सके, वह न तो ब्रह्मचारी हो सकता है और न ही सन्यासी l उसे ढोंगी कहा जाये तो ज्यादा अच्छा रहेगा – क्योंकि ब्रहमचारी किसी रूप को देखकर कभी मोहित नहीं होता है और सन्यासी किसी का अहित अथवा नीच बात नहीं सोच सकता जिससे उसका या दूसरे का कोई अहित हो l इनमें एक अपने सयंम का पक्का होता है और दूसरा अपने पर्ण का l अपमानित तो वाही होते हैं जो इन दोनों बातों से अनभिज्ञ रहते हैं या वे उनकी उपेक्षा करते हैं l इसलिए समाज में कुछ करने के लिए आवश्यक है अपने प्रति अपनी निरंतर सजगता बनाये रखना और ऐसा प्रयत्न करते रहना जिससे जीवन आत्मोन्मुखी बना रहे l


चेतन कौशल “नूरपुरी”
 

भारतीय शिक्षा की परंपरा

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आलेख - शिक्षा दर्पण दैनिक कश्मीर टाइम्स 9.8.1996  
जिस प्रकार निवार से किसी लकड़ी की चारपाई को कलात्मक ढंग से बुनकर तैयार किया जाता है ठीक उसी प्रकार किसी देश का मानचित्र उसके अनुकूल उपयोगी शिक्षा पर निर्भर करता है l इस काम में अभिभावक, शिक्षक, राजनीतिज्ञ और प्रशासकों के आपसी प्रेम, सहयोग त्याग और बलिदान की भूमिका प्रमुख रहती है l इससे भाषा, विद्या-कला, सभ्यता, संस्कृति और साहित्य का विकास होता है तथा उनकी सदियों-सदियों तक पहचान भी बनी रहती है l  
पुराने समय से ही भारतवर्ष गुरुकुलों का स्वामी रहा है, वह जगत कहलाया है l गुरुकुलों में गुरुजन शिष्यों को शिक्षा देने से पूर्व स्वयं आचरण करके जीवन चरित्रार्थ करते थे l वे विद्यार्थी को आत्मज्ञान देने के साथ-साथ उसे कार्य एवं व्यवहार करने हेतु रचनात्मक तथा सकारात्मक शिक्षण भी देते थे l वह लोक भ्रमण व अनुसन्धान करके दिव्य अनुभव प्राप्त करते थे l वह गुरुकुलों में समय-समय पर कला- प्रतियोगिताओं का आयोजन करते थे जिनसे विद्यार्थियों की कला-निपुणता का पता चलता था l
महऋषि व्यास जी द्वारा रचित महाभारत के अनुसार – एक बार गुरु द्रोणाचार्य जी ने अपने शिष्यों की धनुर्विद्या की परीक्षा लेनी थी l उन्होंने काष्ठ की एक चिड़िया पेड़ पर रखवा दी थी l सभी शिष्यों को बारी-बारी से चिड़िया की आँख में निशाना लगा कर अपनी-अपनी धनुर्विद्या का परिचय देना था l इस प्रतियोगिता में वीर अर्जुन को छोड़ कोई भी शिष्य सफल नहीं हो पाया था l इस कारण वे सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर कहलाये थे l
शिक्षा पूरी होने पर गुरु-इच्छा अनुसार हर विद्यार्थी के द्वारा गुरु जी को गुरु दक्षिणा देना अति आवश्यक होता था l जंगल में भ्रमण करते हुए गुरु द्रोणाचार्य जी ने एक कुत्ते का मुंह घाव रहित तीरों से भरा हुआ देखा l वे सब उस कुत्ते का साथ, उस एकांत स्थान पर जा पहुंचे जहाँ द्रोणमूर्ति के आगे एकलव्य एकाग्रचित होकर अपनी धनुर्विद्या का अभ्यास कर रहा था l उसी ने विद्या अभ्यास में विघ्न डाल रहे (भौकते हुए) कुत्ते के मुंह में एक साथ अनेकों तीर भर दिए थे l
अचानक अपने समक्ष साक्षात् गुरूजी को देख एकलव्य ने उनके आगे ससम्मान अपना सर झुका दिया l गुरूजी के पूछने पर उसने अपना परिचय दिया और बताया कि वे स्वयं द्रोण ही उसके गुरु हैं l गुरु दक्षिणा के रूप में गुरूजी ने एकलव्य से उसका दायें हाथ का अंगूठा माँगा जिसे उसने सहर्ष काटकर उन्हें भेंट कर दिया l
शिक्षा पूरी हो जाने के पश्चात विद्यार्थी गुरु-इच्छा अनुसार मन, कर्म, वचन का जीवन पर्यंत पालन करते थे l
इस काम में उनके अभिभावकों का भी पूर्ण योगदान रहता था l गुरुकुलों से विद्यार्थियों का प्रस्थान इस बात की पहचान करवाता था कि वह अपने जीवन, परिवार, सार्वजनिक जीवन की हर कठिनाई का सामना और समस्याओं का समाधान करने में पूर्ण समर्थ हैं और सक्षम भी l वह शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक एवंम आत्मिक रूप से बलशाली, प्रेमी-भक्त, बुद्धिमान और आत्मीयता के धनी हो गये हैं l
जब कोई विद्यार्थी अपने जीवन की कठिनाइयों और समस्याओं के भय से भयभीत अथवा हताश भी हो जाता तो उसके लिए उसे गुरु आश्रम के कपाट सदा खुले ही मिलते थे l वह गुरूजी से विचार-विमर्श करने और मार्गदर्शन पाने के लिए वहां किसी भी समय आ-जा सकता था l
गुरुकुल में हर विद्यार्थी के हृदय और मस्तिष्क एक विशेष ज्ञानामृत भर दिया जाता था l “हे प्रभु ! मुझे असत्य से सत्य की ओर ले जा l अँधेरे से उजाले की ओर ले जा l मृत्यु से अमरता की ओर ले जा l” परिणाम स्वरूप धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष प्राप्त करना उसके जीवन का मुख्य उद्देश्य होता था l
भारतीय समाज में आदरणीय माता-पिता व गुरुजी का देव तुल्य पूजनीय स्थान है l उनकी सेवा ईश्वर की पूजा समझी जाती है l माँ-बाप अच्छी सुसंस्कृत सन्तान के जनक हैं तो गुरुजन अच्छे राजनेता प्रशासक और सेवकों के निर्माता, प्रणेता और पोषक भी हैं l
स्वयं सीखना और योग्य बनना तथा दूसरों को सिखाना और उन्हें योग्य बनाना भारतीय शिक्षा की परंपरा रही है l उस समय देशभर में अभिभावक, गुरु, राजनेता, प्रशासकों के आपसी ताने-बाने में कमी आ गई थी l महामना आचार्य चाणक्य जी ने पुरानी चारपाई समान चरमराता हुआ राष्ट्र स्वरूप देखा l उन्होंने नन्हें परन्तु योग्य शिष्य चन्द्रगुप्त को शिक्षित करके न्यायप्रिय, दूरदर्शी, कुशल राजनीतिज्ञ बनाया और उसके मन में राष्ट्रीय एकता, अखंडता, देशप्रेम, त्याग और बलिदान की पवित्र भावना का बीज रोपित किया l उन्होंने साम, दाम, दंड और भेद पर आधारित राजनीति की भारत में लोकतान्त्रिक नींव रख दी जिस पर चन्द्रगुप्त ने विशाल भवन निर्माण करके उसे उच्च शिखर तक पहुँचाने में अथक प्रयास किये ताकि अखंड भारत का सपना साकार हो सके l काश मार्गदर्शन करने हेतु आज हमारे बीच में कोई आचार्य चाणक्य जैसा किसी माँ का लाल और शिष्यों का गुरु होता ! सावधान ! स्थान-स्थान पर पैदा हो रहे हैं – लार्ड मैकाले l उस जैसा सोचने वाले, देखने वाले, बोलने वाले और सुनने वाले l वही लूट रहे हैं अपने ही राष्ट्र को, समाज को और गांवों को l दे रहे हैं धोखा भी अपने ही आपको दिन-रात एक करके l वर्तमान शिक्षा-प्रणाली की अव्यवस्था आज किसी राष्ट्रभक्त को दिखाई नहीं दे रही है क्या ?
ज्ञान-विज्ञान, धन संपदा, सुख-समृद्धि और शांति का सृजन, पोषण, रक्षा और विकास करने के लिए आज देश भक्तों से राष्ट्र को चाहिए – प्रेम, सहयोग, त्याग, और बलिदान l ये कार्य मात्र देशभक्त अभिभावक, गुरु, राजनीतिज्ञ और प्रशासक ही कर सकते हैं l जो सोये हुए हैं, उन्हें जगाना होगा और जो जागे हुए हैं, उनको अपने जीवन में उच्च आदर्श अपनाकर स्वयं बनने का प्रयास करना चाहिए l पति श्री राम – चिंतन करे जो मात्र अपनी पत्नी का l पत्नी सीता – दिन-रात मग्न रहे पति-प्रेम में l पुत्र श्रवण कुमार – नित सेवा करे माता-पिता की l सेवक हनुमान - व्यस्त रहे सेवा में, स्वामी की l भक्त प्रहलाद – भक्ति ही शक्ति माने l शिष्य एकलव्य – गुरु में अटूट श्रद्धा रखे l भ्राता लक्ष्मण – भाई संग बराबर दुःख-सुख बाँट सके l त्यागी भरत – राजपाट रज सम समझे l गुरु चाणक्य – सबको सही राह दिखा सके l विदेही जनक – मोह देह का छोड़ सके l लोक नायक सुभाष, भगत, शेखर - देश हित अपना सर्वस्व बलिदान कर सके l दूर नहीं हैं सब, अब भी तुमसे, हैं बीच में वे छुपे हुए l प्रयत्न करो तुम सब मिलकर, बेड़ा पार हो जाये भारत का l
मत भूलो ! भारतीय शिक्षा सर्व गुण संपन्न, सर्व शक्तिमान, सर्व सुख दायक है l उसकी दृष्टि में विश्व का गूढ़ से गूढ़ रहस्य मात्र रहस्य बनकर न तो कभी रहा है और न रह ही सकता है l आओ ! हम सब मिलकर प्रभु से प्रार्थना करें कि इस लोक कल्याणकारी संकल्प को साकार करने हेतु वो हमें दृढ़ता, साहस, निर्भयता और शक्ति दें और हमें सफल भी बनाएं l चैन की बंशी बजेगी, जब भ्रष्टाचार का दूर होगा अँधेरा, सदाचार का पालन करेगा बच्चा बच्चा, तब होगा फिर नया सवेरा l शिक्षा ही एक ऐसा दिव्य अस्त्र-शस्त्र है जिससे अशिक्षा, अज्ञानता, और विश्व की किसी भी बुराई का सहजता से सामना किया जा सकता है l इस कार्य में मात्र भारतीय शिक्षा अपने आप में ग्यानी-विज्ञानी, आचार्यों के कुशल नेतृत्व में पूरी सक्षम और समर्थ है l

चेतन कौशल "नूरपुरी"

लोक विकास – समस्या और समाधान

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आलेख - राष्ट्रीय भावना असहाय समाज वर्ग जनवरी जून 1996 
इस सृष्टि की संरचना कब हुई ? कहना कठिन है l सृष्टि के रचयिता ने जहाँ प्रत्येक प्राणी को जीवित रहने के लिए आहार की व्यवस्था की है, वहां मनुष्य के जीवन से संबंधित हर पक्ष के साथ एक विपरीत पहलू भी जोड़ा है l जहाँ सुख है, वहां दुःख भी है l रात है तो दिन भी है l इसी प्रकार सृष्टि में उत्थान और पतन की अपनी-अपनी कार्य शैलियाँ हैं l उत्थान की सीढ़ी चढ़कर मनुष्य आकाश की ऊँचाइयां छूने लगता तो पतन की ढलान से फिसलकर वह इतना नीचे भी गिर जाता है कि एक दिन उसे अपने आप से लज्जा आने लगती है l मनुष्य विवेकशील, धैर्यवान और प्रयत्नशील प्राणी होने के कारण अपना प्रयत्न जारी रखता है l वह गिरता अवश्य है परन्तु कड़ी मेहनत करके वह पुनः पूर्वत स्थान की प्राप्ति भी कर लेता है l कई बार वह उससे भी आगे निकल जाता है l यह उसकी अपनी लग्न और मेहनत पर निर्भर करता है l 
विकास प्रायः दो प्रकार के होते हैं – अध्यात्मिक तथा भौतिकी l जब वेद पथ प्रेमी साधक आंतरिक विकास करता है तो सत्य ही का विकास होता है – वह विकास जिसका कभी नाश नहीं होता है l शरीर नष्ट हो जाता है परन्तु आत्मा मरती नहीं है l अभ्यास और वैराग्य को आधार मानकर निरंतर साधना करके, साधक मायावी संसारिक बन्धनों से मुक्त अवश्य हो जाता है l
साधक भली प्रकार जानता है कि देहांत के पश्चात् उसके द्वारा संग्रहित भौतिक सम्पदा का तो धीरे-धीरे परिवर्तन होने वाला है परन्तु अपरिवर्तनशील आत्मा अपनी अमरता के कारण, अपना पूर्वत अस्तित्व बनाये रखती है l नश्वर शरीर क्षणिक मात्र है जबकि आत्मा अनश्वर, अपरिवर्तनशील और चिरस्थाई है l
जीवन यापन करने के लिए भौतिक विकास तो जरुरी है पर मानसिक प्रगति उस जीवन को आनंदमयी बनाने के लिए कहीं उससे भी ज्यादा जरुरी है l घर में सर्व सुख-सुविधाएँ विद्यमान हों पर मन अशांत हो तो वह भौतिक सुख-सुविधाएँ किस काम की ? मानसिक अप्रसन्नता के कारण ही संसार अशांति का घर दिखता है l
भौतिक विकास में साधक जन, धन, जीव-जन्तु, बल, बुद्धि, विद्या, अन्न, पेड़-पौधे, जंगल, मकान, कल-कारखाने और मिल आदि की संरचना, उत्पादन और उनको वृद्धि करते हैं जो पूर्णतया नश्वर हैं l इनकी उत्पति धरती से होती है l धरती से उत्पन्न और धरती पर विद्यमान कोई भी वस्तु स्थिर नहीं है, परिवर्तनशील है l जो स्थिर नहीं है, वह सत्य कहाँ ? अस्थिर या असत्य वस्तु को साधक अपना कैसे कह सकता है ? उसका तो अपना वही है जो सत्य है, स्थिर है, अपरिवर्तनशील है, अमर है और कभी मिटता नहीं है l वह तो मात्र आत्मा है
सृष्टि में भौतिक विकास, मानसिक कामनाओं की देन है l उसमें निर्मित कोई भी वस्तु, चाहे वह रसोई में प्रयोग करने वाली हो या शयन कक्ष की, कार्यालय-कर्मशाला की हो या खेल-मैदान की, धरती-जल की हो या खुले आकाश की – वह मात्र मनुष्य की विभिन्न भावनाओं, विचारों, और व्यवहारिक मानसिक प्रवृत्तियों की उपज है l जन साधारण लोग उनकी ओर आकर्षित होते हैं l वे उन्हें पाकर अति प्रसन्न होते हैं l साधकों को यह शक्ति, विकास की ओर उन्मुख मानसिक प्रवृत्ति से प्राप्त होती है l
भोजन से शरीर, भक्ति-प्रेम से मन, स्वाध्यय से बुद्धि और भजन से आत्मा को बल मिलता है l इससे पराक्रम, वीर्य, विवेक और तेज वर्धन होने के साथ-साथ साधक की आयु लम्बी तो होती है पर साथ ही साथ उसके लिए लोक-परलोक का मार्ग भी प्रशस्त होता है l “जैसा खावे अन्न, वैसा होवे मन” कहावत इस कार्य को पूरा करती है l इस प्रकार विचारानुसार कर्म, कर्मानुसार निकलने वाला अच्छा – बुरा परिणाम या फल साधक की मानसिक प्रवृत्ति पर निर्भर करता है l वह जैसा चाहता और करता है – बन जाता है l
जिस प्राणी ने मनुष्य जीवन पाया है, उसे जीवन लक्ष्य पाने के लिए प्रयत्नशील व्यक्ति को पुरुषार्थी अवश्य बनना चाहिए l उसे जीवन का विकास, साधना, मेहनत और प्रयत्न करना चाहिए l बिना पुरुषार्थ के सृष्टि में रहकर उससे कुछ भी प्राप्त कर पाना असंभव है l उसमें सभी पदार्थ हैं पर वे मात्र पुरुषार्थी के लिए, पुरुषार्थ से उत्पन्न किये जाने वाले हैं l जो जिज्ञासु पुरुषार्थ करता है, उन्हें प्राप्त कर लेता है l
ऐसा कोई भी जिज्ञासु तब तक किसी आत्म स्वीकृत कला के प्रति समर्पित एक सफल पुरुषार्थी नहीं बन सकता, जब तक वह प्राकृतिक गुण, संस्कारानुसार दृढ़ निश्चय करके कार्य आरम्भ नहीं कर देता l पुरुषार्थी को जीवन लक्ष्य की प्राप्ति के लिए समर्पित होना अति आवश्यक है l वह जीवनोपयोगी कलाओं में से किसी को भी अपनी सामर्थ्या एवम् रुचि अनुसार चुन सकता है – भले ही वह धार्मिक हो या राजनैतिक, आर्थिक हो या शैक्षणिक, पारिवारिक हो या सामाजिक – बिना सामर्थ्या एवम् अभिरुचि के, जीवन में सफल हो पाना असम्भव है l देखने में आया है कि प्रायः पुरुषार्थी का मन उसके द्वारा किये जाने वाले कार्यों में नहीं लगता है जो उससे करवाए या किये जाते हैं l उसका ध्यान अन्य कार्यों की ओर आकृष्ट रहता है जिनमें उसकी अभिरुचि होती है l इसके पीछे उसकी आर्थिक विषमता, प्रतिकूल परिस्थितियाँ, प्रोत्साहन का आभाव और उसे समय पर उचित मार्गदर्शन न मिल पाना – विवशता होती है l इस कारण अनचाहे उसका मन अशांत, परेशान और अप्रसन्न रहता है l
आवश्यकता है – किसी भी कलामंच या कार्यक्षेत्र के किसी कलाकार या श्रमिक को कभी मानसिक पीड़ा ना हो l अतः उससे उसकी इच्छानुसार, मनचाह कार्य लिया जाना सर्वश्रेष्ठ है l भले ही उस कला साधना अथवा कार्य से संबंधित प्रशासन द्वारा उसका कार्यक्षेत्र ही क्यों न बदली करना पड़े l ऐसा कलाकार जो अपने श्रम के प्रति समर्पित न हो, उसमे उसकी लग्न न हो, तो क्या कभी दर्शक उसे एक अच्छा कलाकार या श्रमिक कहेंगे ? क्या वह अपनी कला अथवा श्रम में सफल हो पाएगा ? क्या दर्शक उसके प्रशसंक बन पाएंगे ?
ऐसे कलाकारों या श्रमिकों से विकास का क्या अर्थ जो स्वयं ही को संतुष्ट नहीं कर सकते – समाज या राष्ट्र को संतुष्ट कौन करेगा ? कहने का तात्पर्य यह है कि वह न तो किया जाने वाला कार्य भली प्रकार कर सकते हैं और न ही उस कार्य को जिसे वह करना ही चाहते हैं l वह अपने जीवन में कुछ तो कर दिखाना चाहते हैं पर कर नहीं पाते हैं l इस प्रकार समाज ऐसे होनहार कलाकारों और श्रमिकों के नाम से वंचित और अपरिचित भी रह जाता है जिन्होंने उसे गौरवान्वित करना होता है l साधक के पास उसे जन्म से प्राप्त कोई भी प्राकृतिक अभिरुचि – प्रतिभा जो उसके गुण, संस्कार और स्वभाव से युक्त होती है – जीवन साध्य उद्देश्य को प्राप्त करने में पूर्ण सक्षम, समर्थ होती है l उसे सफलता के अंतिम बिंदु तक पंहुचाने के लिए उपयोगी और उचित संसाधनों का होना अति आवश्यक है l
कला-क्षेत्र में, कला-सम्राटों के सम्राट संगीत-सम्राट तानसेन जैसे साधक कलाकार, कला-साधना की सेवा के लिए अपने तन, मन, धन और प्राणों से समर्पित होते हैं l वह स्वयं अपनी कला-साधना को न तो किसी बाजार की वस्तु बनाते हैं और न ही बनने देते हैं l उनकी कला में स्वतः ही आकर्षण होता है l वे अपनी लग्न और कड़ी मेहनत से कला का विकास करते हैं l वे भली प्रकार जानते हैं कि विश्व में मात्र उनकी अपनी क्षेत्रीय कला विद्या, संस्कृति सभ्यता और साहित्य से राष्ट्र, क्षेत्र, गाँव, समाज, परिवार और उनकी अपनी भी पहचान होती है l तरुण साधक कला साधना में मग्न रहकर, उसकी गरिमा बनाये रखते हैं वह कला का प्रदर्शन करने से पूर्व, उसे समाज की पसंद नहीं बनाते हैं और न ही उसकी मांग की चिंता करते हैं अपितु वह साधना से समस्त समाज को अपनी कला की ओर आकर्षित करते हैं l समाज स्वयं ही उनकी कला का प्रेमी, प्रशंसक, सहयोगी और अनुयायी बनता है l इससे विकास की गाड़ी निश्चित मंजिल की ओर बढ़ती जाती है l

चेतन कौशल “नूरपुरी”

साधक मन और साधना

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आलेख - मानव जीवन दर्शन कश्मीर टाइम्स 9 जुलाई 1996
साधना-प्रगति के अंतिम बिंदु तक पहुँचने के लिए जो जिज्ञासु प्रयत्नशील रहता है, वह कभी थकने या रुकने का नाम नहीं लेता है – साधक कहलाता है l वह भली प्रकार जानता है कि साधना के मार्ग पर फूल कम और कांटे अधिक मिलते हैं l फिर भी जिज्ञासु साधक अपने अदम्य साहस के साथ उन काँटों को अपने पैरों तले रौन्दता हुआ मात्र फूलों को ही चुनता है और अपनी विकास–यात्रा जारी रखता है l इस प्रकार अविलंब प्रयत्न करते हुए एकाएक उसके जीवन में वह भी सुअवसर आ जाता है जब वह विभिन्न प्रकार के फूल एकत्रित करके उन्हें किसी एक मनोहारी माला का स्वरूप प्रदान कर देता  है l साधक की साधना साकार हो जाती है l उसे उसकी निश्चित मंजिल मिल जाती है l  
साधना मार्ग में यह बात सुनिश्चित है कि साधक मन उस समय अपनी रचनात्मक साधना प्रगति–मार्ग से भ्रमित हो जाता है जब उसकी बुद्धि मन के अधीन विषयासक्त होकर उचित निर्णय लेने में असमर्थ हो जाती है l विषय भोगी चंचल मन इच्छा वश होकर इन्द्रिय विषय – शब्द, रूप, रस, स्पर्श और गंध का रसास्वादन करने हेतु दौड़ता है, ललायत रहता है l वह इन्द्रिय इच्छापूर्ति का माध्यम बनता है पर अल्पकालिक इन्द्रिय सुख उसके लिए दुःख का कारण बनता है l परिणाम स्वरूप बुद्धि का नाश होता है l साधक की साधना अवरुद्ध होने के कारण, आगे नहीं बढ़ पाती है l साधक पूर्णता प्राप्त करने से वंचित रह जाता है l इसी कारण इन्द्रिय विषय अल्पकालिक सुख देने वाले, साधना-मार्ग के शत्रु होते हैं l श्रीकृष्ण जी के कथनानुसार – “साधक को अपना मन अभ्यास या वैराग्य के द्वारा सयंत करके उसे सर्वजन हिताय – सर्वजन सुखाय नीति के अंतर्गत रचनात्मक कार्यों में समर्पित करना चाहिए l”
पांच ज्ञानेंद्रियाँ – त्वचा, रसना, आँख, कान और नाक स्पर्श करना, रस चखना, रूप देखना, शब्द सुनना, गंध सूंघना और पांच कर्मेन्द्रियाँ – हाथ, मुंह, उपस्थ, गुदा और पैर कर्म करना, भोजन करना, जनन, मल विच्छेदन, तथा चलना अपने स्वाभाविक गुणानुकुल कार्य करती हैं l इन्द्रियों का समयबद्ध अनुशासित और सयंत करके साधक पुरुष उन्हें बुद्धि द्वारा, अपने जीवन के प्रगति–पथ पर जीवन का निश्चित लक्ष्य पाने के लिए रचनात्मक कार्यों में लगाता है l इससे उसकी हर प्रकार की प्रगति होने के साथ-साथ उसे पूर्णता भी प्राप्त होती है
कोई भी साधक पुरुष शरीर रूपी मकान को अंदर की अपेक्षा उसके बाहरी सौन्दर्य को निखारने में बिना कारण अपनी शारीरिक शक्ति, अमूल्य समय और धन कभी नष्ट नहीं करता है l वह दैवी गुणों से विमुख नहीं रहता है l वह नित गुरु की देख-रेख में, उनके मार्ग-दर्शन और आदेशानुसार अपने दैवी गुणों की सतत वृद्धि ही करता है l इनका सदुपयोग करने से उसका अपना तो भला होता है, साथ ही साथ दूसरों का भी भला होता है परन्तु दुरूपयोग करने से सबको पीड़ा और दुःख ही मिलते हैं l जो साधक पुरुष मान्यवर गुरु की उपेक्षा करते हैं, उनकी उन्नति पर ईर्ष्या करते हैं और उनसे अधिक स्वयं को श्रेष्ठ समझते हैं – वे अपने जीवन में विकास अथवा लाभ पाने के नाम पर पतन-हानि ही पाते हैं l कायर, आलसी, और चापलूस साधक पुरुष की साधना कभी साकार नहीं होती है l
साधक पुरुष प्रायः सयंमित, शांत, त्यागी, समद्रष्टा, विनम्र और अनुशासित होता है l वह अध्यात्मिक तथा भौतिक प्रगति में संतुलन बनाये रखता है l वह मानसिक विकारों के वेगों के प्रति सदैव सचेत रहता है l वह जानता है कि मानसिक विकारों के वेग उसकी उन्नति में वाधक हैं l जो प्रगति की उंचाई की ओर बढ़ते हुए उसके क़दमों को लड़खड़ा देते हैं l परिणाम स्वरूप साधक का पतन होना आरम्भ हो जाता है l
इसलिए पति-पत्नी के अतिरिक्त पराये नर-नारी का चिंतन-मनन, दर्शन और संग करना जैसे आचार-व्यवहारों से न केवल काम वासना जागृत होती है, बल्कि वह और अधिक बढ़ती है l इससे समाज में माँ, बहन, बहु, बेटी भरजाई और उनके समान अन्य की भी मान-मर्यादा नष्ट होती है l साधक पुरुष मान-मर्यादा के रक्षक होते हैं, भक्षक नहीं l वह ऐसा कोई भी कार्य नहीं करते हैं जिनसे समाज में अपहरण, बलात्कार, देह प्रदर्शन, देह व्यपार, और गुंडागर्दी को बढ़ावा मिलता हो l वह स्वयं तो सयमित रहते हैं, समय समय पर दूसरों को भी सावधान करते रहते हैं l
छोटी-छोटी बातों के पीछे बौखला जाना, अपशब्द कहना और लड़ाई-झगड़े करना जैसे आचार-व्यवहार क्रोध के ही विभिन्न रूप हैं l यह सब क्रोध को बढ़ावा देते हैं l विकराल रूप न धारण हो, इसी बात का ध्यान रखते हुए साधक पुरुषों के द्वारा शांतभाव में गंभीर से गंभीर समस्या का हल ढूँढना होता है l क्रोध किसी समस्या का हल नहीं है l साधक द्वारा क्रोध करने की आवश्यकता आ भी पड़े तो वह ज्ञान, कर्तव्य, नीति, और न्याय संगत होता है l इनके बिना किया गया क्रोध किसी को लाभान्वित करने के स्थान पर हानि ही पहुंचाता है l
अपने लिए अपनी आवश्यकता से अधिक चल-अचल धन-संपदा, अन्न, वस्त्र का उत्पादन निर्माण, संग्रहण करना और उन पर मात्र अपना एकाधिकार जताना जैसे अचार-व्यवहार व्यक्तिगत स्वार्थ और लोभ ही के स्वरूप हैं l साधक पुरुष असंग्रही, बुद्धिमान, सदाचारी, न्यायप्रिय और कर्तव्य-परायण होते हैं l वह स्वयं उदाहरण बनकर, दूसरों को भी वैसा ही बनने का मार्ग प्रशस्त करते हैं l इससे चारों ओर प्रसन्नता, प्रेम और सुख-समृद्धि देखने को मिलती है l
नशा–धुम्रपान जान-बुझकर मौत के कुएं में छलांग लगाने के समान है l इससे तन, मन, धन, और स्वयं का नाश होता है l तन के जर-जर हो जाने पर, उसे कई प्रकार के रोगों का सामना करना पड़ता है l नशा–धुम्रपान करने वाले पुरुष की बुद्धि का नाश हो जाता है l उसकी विचार करने की शक्ति नष्ट हो जाती है l उसे आर्थिक संकट घेर लेता है l साधक पुरुष ऐसा करने से दूर रहते हैं और दूसरों को इस संकट से सावधान भी करते हैं l
साधक पुरुष सृष्टि में – पति-पत्नी, संतान, धन-संपदा, सुख-सुविधा, पद, वेतन, सत्ता सुख को ही अपना सब कुछ नहीं मानते हैं l यह सब उन्हें भौतिक सुख तो दे सकते हैं पर आत्मिक शांति नहीं l साधक पुरुष को भौतिक सुख के साथ-साथ अध्यात्मिक सुख की भी आवश्यकता होती है l साधक पुरुष ऐसे आचार-व्यवहार जिनसे अशांति होने का भय या संदेह हो, उनमें अपने मन से कभी आसक्त नहीं होते हैं बल्कि निज मन को अभ्यास और वैराग्य के अंतर्गत उसे अध्यात्मिक उन्नति की साधना में व्यस्त रखते हैं l इससे उन्हें आत्मिक सुख और आनंद मिलता है l
मैं और मैंने शब्दों का बात-बात पर उच्चारण, व्यवहार में प्रदर्शन करना ही अहंकारी पुरुष का अहंकार है l उसमें अपने से बड़ों के प्रति सम्मान की भावना का आभाव रहता है l वह छोटों के प्रति अप्रिय होता है l साधक पुरुष विनम्र होते हैं l विनम्रता के कारण वह सबको प्रिय होते हैं l विनम्रता ही मैं और मैने के के अहंकारी भावों का अस्तित्व मिटाती है l उससे आत्मसमर्पण का भाव जागृत होता है तथा आत्मा और परमात्मा का ज्ञान होता है जिससे साधक पुरुष के लिए मुक्ति का मार्ग प्रशस्त होता है l
साधक पुरुष साधना में मग्न रहकर मानवता ही की सेवा करते हैं और समय-समय पर वे समाज तथा प्रशासन के द्वारा सम्मानित भी होते हैं l साधक पुरुषों का सुख-दुःख सबका अपना सुख-दुःख बन जाता है l साधक साधना से दूसरों को अपना बना लेते हैं l उनकी चिंता सभी करते हैं l वह हर मन प्यारे बन जाते हैं l सारा संसार उनका अपना घर होता है और वे होते हैं, विश्व परिवार के सदस्य – विश्व बंधू l
साधक पुरुष सबको एक ही परमात्मा की संतान मानते हैं, देखते हैं, सुनते हैं, बोलते हैं और सबके लिए प्रिय ही कार्य कार्य करते हैं l उनका जीवन चिंता मुक्त होता है l वास्तव में चिंता मुक्त विकसित चिंतनशील मन ही साधक पुरुष के जीवन को सार्थक, पूर्ण, साकार, सफल, आत्मज्ञानी और सुखी-समृद्ध बनाने के साथ-साथ उसे मुक्ति भी प्रदान करता है l
काश ! ऐसी प्रभु कृपा सभी पर हो l

चेतन कौशल “नूरपुरी”

 
 
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