मानवता

मानवता सेवा की गतिविधियाँ

पुरालेख (page 19 of 164)

सर्वोत्तम वरदान

अनमोल वचन :-# अच्छा स्वास्थ्य एवंम अच्छी समझ जीवन में दो सर्वोत्तम वरदान है l *
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आचरण शुद्धता

अनमोल वचन :-# आचरण की शुद्धता ही व्यक्ति को प्रखर बनाती है l*
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अनीति मार्ग

अनमोल वचन :-# अनीति के रास्ते पर चलने वाले का बीच राह में ही पतन हो जाता है l*
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व्यक्ति परिचय

अनमोल वचन :-# दो चीजें आपका परिचय कराती हैं : आपका धैर्य, जब आपके पास कुछ भी न हो और...
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प्रभु की समीपता

अनमोल वचन :-# धर्यता और विनम्रता नामक दो गुणों से व्यक्ति की ईश्वर से समीपता बनी रहती है l*
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उच्च विचार

अनमोल वचन :-# दिनरात अपने मस्तिष्क को उच्चकोटि के विचारों से भरो जो फल प्राप्त होगा वह निश्चित ही अनोखा...
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मुस्कराना

अनमोल वचन :-# मुस्कराना, संतुष्टता की निशानी है इसलिए सदा मुस्कराते रहो l*
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प्रभु कृपा

अनमोल वचन :-# सच्चाई, सात्विकता और सरलता के बिना भगवान् की कृपा कदापि प्राप्त नहीं की जा सकती l*
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जीवन महत्व

अनमोल वचन :-# आप अपने जीवन का महत्व समझकर चलो तो दूसरे भी महत्व देंगे l*
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जीवन महत्व

अनमोल वचन :-# आप अपने जीवन का महत्व समझकर चलो तो दूसरे भी महत्व देंगे l*
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ख़ुशी का पर्व – दीपावली

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आलेख – धर्म अध्यात्म संस्कृति मातृवन्दना अक्तूबर 2019

वसंत, ग्रीष्म, वर्षा, शरद, हेमंत, और शिशिर विभिन्न ऋतुओं का देश है l वर्षा ऋतु के अंत में जैसे ही शरद ऋतु का आरम्भ होता है उसके साथ ही नवरात्रि – दुर्गा पूजन और रामलीला मंचन भी एक साथ आरम्भ हो जाते हैं l दुर्गा पूजन एवं राम लीला मंचन का नववें दिन समाप्त हो जाने के पश्चात् दसवें दिन विजय दसवीं को दशहरा मनाया जाता है l भारतीय परम्परा के अनुसार विजय दसवीं का पर्व लंकापति रावण (बुराई) पर भगवान श्रीराम (अच्छाई) के द्वारा विजय का प्रतीक माना जाता है l यह पर्व श्रीराम का रावण पर विजय पाने के पश्चात् अयोध्या आगमन की ख़ुशी में उनका हर घर में दीपमाला जलाकर स्वागत किया जाता है l

धर्म परायण, ईश्वर भक्त और अपने कर्तव्यों के प्रति सदैव जागरूक रहने वाला मनुष्य अपने जीवन में दीपावली को सार्थक कर सकता है l


सार्थक दीपावली
नगर देखो ! सबने दीप जलाये हैं
द्वार-द्वार पर, घर आने की तेरी ख़ुशी में मेरे राम !
अँधेरा मिटाने, मेरे राम !
आशा और तृष्णा ने घेरा है मुझको]
स्वार्थ और घृणा ने दबोचा है मुझको,
सीता को मुक्ति दिलाने वाले राम !
विकारों की पाश काटने वाले राम !
दीप बनकर मैं जलना चाहुँ,
दीप तो तुम प्रकाशित करोगे, मेरे राम !
अँधेरा खुद व खुद दूर हो जायेगा,
हृदय दीप जला दो मेरे राम !
सार्थक दीपावली हो मेरे मन की,
घर-घर ऐसे दीप जलें, मेरे राम !
रहे न कोई अँधेरे में संगी – साथी,
दुनियां में सबके हो तुम उजागर, मेरे राम !


चेतन कौशल "नूरपुरी"

गुरु का महत्व

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आलेख – शिक्षा दर्पण मातृवंदना नवंबर 2019

भारतीय संस्कृति में गुरु का स्थान सर्वोपरी है l घर पर माता-पिता और विद्यालय में गुरु को उच्च स्थान प्राप्त है l शास्त्रों में इन तीनों को गुरु कहा गया है l “मातृदेवो भवः, पितृ देवो भवः, गुरु देवो भवः l गुरु माता को सर्व प्रथम स्थान प्राप्त है क्योंकि वह बच्चे को नव मास तक अपनी खोक में रखे उसका पालन-पोषण करती है l जन्म के पश्चात ज्यों-ज्यों शिशु बड़ा होता जाता है त्यों-त्यों वह उसे आहार लेने तथा बात करना सिखाने के साथ-साथ उठने, बैठने, और चलने के योग्य भी बनाती है l गुरु पिता परिवार के पालन-पोषण हेतु घरेलू सुख-सुविधायें जुटाने का कार्य करता है और परिवार को अच्छे संस्कार देने का भी ध्यान रखता है l विद्यालय में गुरुजन विद्यार्थी में पनप रहे अच्छे संस्कारों की रक्षा करने के साथ-साथ उसे धीरे-धीरे बल भी प्रदान करते हैं ताकि वह भविष्य में आने वाली जीवन की हर चुनौती का डटकर सामना कर सके l

गुरु भले ही घर का हो या विद्यालय का, वह राष्ट्र के प्रति समर्पित भाव वाला होता है l उसके द्वारा किये जाने वाले किसी भी कार्य में राष्ट्रीय भावना का दर्शन होता है जिससे देश-प्रेम छलकता है l गुरु के मन, वचन और कर्म में सदैव निर्भीकता हिलोरे लेती रहती है l वह जनहित में निष्कपट भाव से सोचने, बोलने और कार्य करने वाला होता है l गुरु को अपने विषय का पूर्ण ज्ञान होता है l एक तत्व ज्ञानी या गुरु ही किसी विद्यार्थी को उसकी आवश्यकता अनुसार उचित शिक्षण-प्रशिक्षण देकर उसे सफल स्नातक और अच्छा नागरिक बनाता है l


गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णु गुरुर्देवो महेश्वरः गुरु साक्षात् परम ब्रह्म तस्मै श्री गुरुवै नमः l शास्त्रों में गुरु को ब्रह्मा ,विष्णु, और महेश देवों के तुल्य माना गया है l जिनमें सामाजिक संरचना, पालना और बुराईयों का नाश करने की अपार क्षमता होती है l गुरु आत्मोत्थान करता हुआ अपने विभिन्न अनुभवों के आधार पर विद्यार्थी को उच्च शिक्षण-प्रशिक्षण देकर समर्थ बनाता है l


आदिकाल से सनातनी व्यवस्था अनुसार सनातन समाज में दो गुरु माने गए हैं – धर्मगुरु और राजगुरु l
धर्मगुरु समाज को धर्म की दीक्षा देते थे जबकि राजगुरु राज्य व्यवस्था को सुचारू बनाये रखने हेतु राजा का उचित मार्गदर्शन करते थे l


धर्मगुरु एक हाथ में वेद और दूसरे हाथ में शस्त्रास्त्र धारण करते थे ताकि आवश्यकता पड़ने पर उनसे सर्वजन, जीव-जंतुओं और समाज के शत्रुओं से रक्षा की जा सके l
वे धर्मात्मा होने के साथ-साथ शूरवीर भी कहलाते थे l वे भक्ति और शक्ति दोनों के स्वामी अर्थात धर्म-योद्धा होते थे l


वे गुरुकुल में विद्यार्थियों के संग वेद का पठन-पाठन करते थे और ब्रह्मज्ञान देने के साथ-साथ कला शिक्षण-प्रशिक्षण अभ्यास और प्रतियोगिताएं भी करवाते थे l इससे उनका सर्वांगीण विकास होता था l वहां से स्नातक बनने के पश्चात् विद्यार्थी बदले में गुरु को गुरु-दक्षिणा भी देते थे l
शांति काल में गुरु एकांत में रहकर भजन, आत्मचिंतन-मनन, लेखन कार्य किया करते थे और संकट कल में वे स्वयं शस्त्रास्त्र भी धारण करते थे l


समाज या देश पर आंतरिक या बाह्य संकट काल का सामना करने के लिए वे पूर्वत ही स्वयं और राजा को सेना सहित तैयार रखते थे l संकट पड़ने पर वे युद्ध जीतने के उद्देश्य से राजा को सेना सहित युद्ध नीति अनुसार शस्त्रास्त्रों का भरपूर उपयोग करते और करवाते थे l सिख गुरु परंपरा में सनातन संस्कृति की रक्षा करने हेतु त्याग और बलिदान की अनेकों अद्भुत घटनाएँ इतिहास में विद्यमान हैं l


तत्कालीन मुस्लिम शासकों द्वारा भारतं के लोगों पर घोर अत्याचार किये जा रहे थे, जब गुरु सहवान उनका विरोध करते तब उन्हें भी असहनीय कष्ट भोगने पड़ते थे l दसवें गुरु श्री गोविन्द सिंह जी का तीन पीढ़ियों का अतुलनीय इतिहास रहा है l

चेतन कौशल “नूरपुरी”

कल्याणकारी वैदिक चिंतन-धारा

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आलेख – शिक्षा दर्पण मातृवंदना 9.9.2021 

बहुत समय पूर्व भारत आर्यों का देश “आर्यवर्त” था l हमारे पूर्वज आर्य (श्रेष्ठ) थे l सन्यासी जन वेद सम्मत कार्य करते थे l वे गृहस्थियों के कल्याणार्थ वेद-वाणी सुनाते थे l हम सब भारतवासी आर्य वंशज, आर्य हैं l ब्रह्मज्ञान, पराक्रम, मानवता प्रेम और पुरुषार्थ भारत को पुनः सोने की चिड़िया बनाने का मूल मन्त्र है l ब्रह्मज्ञान से मनुष्य जागरूक होता है l उसका हृदय एवं मस्तिष्क ज्ञान के प्रकाश से प्रकाशित होता है l जब मनुष्य इस स्थिति पर पहुँच जाता है, तब वह स्वयं के शौर्य और पराक्रम को भी पहचान लेता है l वह समाज को संगठित करके उसमें नवजीवन का संचार करता है l जिससे समाज और उसकी धन-संपदा की रक्षा एवंम सुरक्षा सुनिश्चित होती है l

भारत की आत्मा वेद हैं, वेद ज्ञान-विज्ञान के स्रोत हैं l वेदों से भारत की पहचान है l वेद जो देववाणी पर आधारित हैं, उन्हें ऋषि-मुनियों द्वारा श्रव्य एवंम लिपिबद्ध किया हुआ माना गया है l वेदों में ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्वेद प्रमुख हैं l वे सब सनातन हैं l वेद पुरातन होते हुए भी सदैव नवीन हैं l उनमें कभी परिवर्तन नहीं होता है l वे कभी पुराने नहीं होते हैं l भौतिक ज्ञान-विज्ञान अर्जित करने के लिए राजगुरु, शिक्षक एवंम अध्यापक अपने पुरुषार्थी शिष्य, शिक्षार्थियों के साथ मिल-बैठकर एच्छिक एवंम रुचिकर विषयक ज्ञान-विज्ञान के पठन-पाठन का कार्य करते हैं l वे उन्हें शिक्षित-प्रशिक्षित करते हैं l उस समय वे दोनों अपनी पवित्र भावना के अनुसार परमात्मा से प्रार्थना करते हैं – “हे ईश्वर ! हम दोनों, गुरु, शिष्य की रक्षा करे l हम दोनों का उपयोग करें l हम दोनों एक साथ पुरुषार्थ करें l हमारी विद्या तेजस्वी हो l हम एक दूसरे का द्वेष न करें l ॐ शांतिः शांतिः शांतिः l संस्कृत देवों की भाषा वेद भाषा है l ब्राह्मण वेद भाषा संस्कृत पढ़ते-पढ़ाते थे, देश में सभी जन विद्वान थे l इसलिए वेद पढ़ो, वेद पढ़ाओ l भारत को सर्वश्रेष्ठ बनाओ l


अंग्रेजों के आगमन से पूर्व भारत में गुरुकुल शिक्षा-प्रणाली का प्रचलन था l घर से बच्चों को अच्छे संस्कार मिलने के पश्चात विद्यालय में गुरुजनों की बड़ी भूमिका होती थी l विद्यालय में अच्छे संस्कारों का संरक्षण होता था l भारत के परंपरागत गुरुकुलों में गुरुजनों के द्वारा ऐसी होनहार प्रतिभाओं को भली प्रकार परखा और फिर तराशा जाता था जो युवा होकर अपने-अपने कार्य क्षेत्र में जी-जान लगाकर कार्य करते थे l परिणाम स्वरूप हमारा भारत विश्व मानचित्र पर अखंड भारत बनकर उभरा और वह सोने की चिड़िया के नाम से सर्वविख्यात हुआ l भारतीय शिक्षा गुरुकुल परंपरा पर आधारित थी जिसमें सहयोग, सहभोज, सत्संग, लोक अनुदान की पवित्र भावना, सद्विचार, सत्कर्मों से विश्व का कल्याण होता था l


समस्त वादिक पाठशालाओं एवंम गुरुकुलों में विद्यार्थियों को आत्मज्ञान, पराक्रम, मानवता प्रेम और पुरुषार्थ से विभिन्न अनेकों जीवनोपयोगी विद्याओं का शिक्षण-प्रशिक्षण दिया जाता था l इससे उनके शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा का संतुलित विकास होता था, बदले में विद्यार्थी गुरु को गुरु दक्षिणा देते थे l


2 फरवरी 1835 को लार्ड मैकाले द्वारा दिए गए सुझाव के अनुसार अंग्रेजों ने सन 1840 ई0 में कानून बनाकर भारत की जीवनोपयोगी गुरुकुल प्रधान शिक्षा-प्रणाली को अवैध घोषित कर दिया, जो भारतीय छात्र-छात्राओं एवंम साधकों में वैदिक धर्म, ज्ञान, कर्मनिष्ठा, शौर्यता और वीरता जैसे संस्कारों का संचार करने के कारण राष्ट्रीय एकता एवंम अखंडता के रूप में उसकी रीढ़ थी l उसके स्थान पर उन्होंने ब्रिटिश साम्राज्य हित की पोषक अंग्रेजी भाषी शिक्षा-प्रणाली लागू की, जो भविष्य में ब्रिटिश साम्राज्य का विस्तार करने में अत्यंत कारगर सिद्ध हुई, दुर्भाग्यवश वह आज भी हम सबपर प्रभावी है l


समर्थ विद्यार्थी एवंम नागरिकों के द्वारा पुरुषार्थ करके मात्र धन अर्जित करना, अपने परिवार का पालन-पोषण करना और उसके लिए सुख-सुविधाएँ जुटाना ही पर्याप्त नहीं होना चाहिए, व्याक्ति के द्वारा किसी समय की तनिक सी चूक से मानवता के शत्रु को मानवता पीड़ित करने, उसे कष्ट पहुँचाने का अवसर मिल जाता है l वह अधर्म, अन्याय, अत्याचार, शोषण और आक्रमण का सहारा लेता है l उसके द्वारा व्यक्तिगत, पारिवारिक, आर्थिक, सामाजिक, शैक्षणिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक, और राष्ट्रीय हानि पहुंचाई जाती है l आर्यजन भली प्रकार जानते थे, समाज में बिना भेदभाव के, आपस में सुसंगठित, सुरक्षित, सतर्क रहना और निरंतर सतर्कता बनाये रखना नितांत आवश्यक है l ऐसा करना साहसी वीर, वीरांगनाओं का कर्तव्य है l वह हर चुनौती का सामना करने के लिए हर समय तैयार रहते हैं और उचित समय आने पर वे उसका मुंहतोड़ उत्तर भी देते हैं l अगर यह सब गुरुकुल शिक्षा-प्रणाली की देन रही है तो आइये ! हम राष्ट्र में प्रायः लुप्त हो चुकी इस व्यवस्था को सुव्यवस्थित करने का पुनः प्रयास करें ताकि आर्य समाज और राष्ट्र में तेजी से बढ़ रहे अधर्म, अन्याय, अत्याचार, शोषण, और भ्रष्टाचार का जड़ से सफाया हो सके l राष्ट्र में फिर से आदर्श समाज की संरचना की जा सके l
गुरुकुल में अध्यात्मिक एवंम भौतिक ज्ञान प्राप्त कर लेने के पश्चात् मनोयोग से पुरुषार्थी नवयुवाओं के द्वारा किया जाने वाला कोई भी कार्य सफल, श्रेष्ठ और सर्वहितकारी होता था l इसी आधार पर साहसी पुरुषार्थी व्यक्ति, निर्माता, अन्वेषक, विशिष्ट व्यक्ति, कलाकार, वास्तुकार, शिल्पकार, साहित्यकार, रचनाकार, कवि, विशेषज्ञ, दार्शनिक, साधक, ब्रह्मचारी, गृहस्थी, वानप्रस्थी, योगी और सन्यासी अपने जीवन पर्यंत अभ्यास एवंम प्रयास करते थे l इससे उनके द्वारा मानवता की सेवा तो होती ही थी, सबका कल्याण भी होता था l आइये ! हम आधुनिक शिक्षा के साथ-साथ परंपरागत वैदिक शिक्षा-प्रणाली भी अपनाएं, भारत को पुनः विश्वगुरु बनाएं l ब्रह्मज्ञान, पराक्रम, मानवता प्रेम और पुरुषार्थ से ही भारत को पुनः सोने की चिड़िया बनाया जा सकता है l गाँव-गाँव मैं वैदिक पाठशालायें स्थापित करें, प्रतिभाओं को आगे बढ़ने का सुअवसर प्रदान करें, उन्हें प्रोत्साहन दें, ताकि हमारे देश का चहुमुखी विकास हो सके l


वेद स्वयं में भारत की सत्य सनातन संस्कृति के भंडार हैं l वैदिक सोच, संस्कृत भाषा, वैदिक विचार धारा और वैदिक जीवन शैली, ब्रह्मज्ञान, पराक्रम, मानवता प्रेम और पुरुषार्थ से भारत का चहुंमुखी विकास हुआ था, ऐसा आगे भी हो सकता है l भारत को सशक्त बनाने के लिए हमें बच्चो को आधुनिक शिक्षा देने के साथ-साथ परंपरागत वैदिक शिक्षा भी अवश्य देनी चाहिए l

चेतन कौशल “नूरपुरी”

कला-साधना जीवनोपयोगी है

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आलेख – मानव जीवन दर्शन मातृवन्दना जुलाई अगस्त 2020 

जीना भी एक कला है l जो व्यक्ति भली प्रकार जीना सीख जाता है, वह मानों उसके लिए सोने पर सुहागा l भली प्रकार जीने के लिए व्यक्ति का किसी न किसी कला के साथ जुड़े रहना अति आवश्यक है भी l मनुष्य को मांस-मदिर और धुम्रपान से सदैव दूर रहना चाहिए l सनातन धर्म इन्हें सेवन करने की किसी को आज्ञा नहीं देता है अपितु सावधान करता है l जिन्दगी से कला जोड़ो, नशा नहीं l कला से प्रेम करो, नशे से नहीं l नशे का त्याग करो, जिन्दगी का नहीं l नशे से नाता तोड़ो, जिन्दगी से नहीं l कला प्रेम से जिन्दगी संवरती है, नशे से नहीं l अतः कला प्रेमी को नशा नहीं करना चाहिए l

मानव शरीर उस मशीन के समान है जिसमें पांच कर्मेन्द्रियाँ, पांच ज्ञानेन्द्रियाँ, मैं का भाव, मन और बुद्धि होती है l मुंह, उपस्थ गुदा, हाथ और पैर उसकी कर्मेन्द्रियाँ कर्म करती हैं जबकि जिह्वा, आँखें, नाक, कान, त्वचा ज्ञानेन्द्रियाँ उसके लिए ज्ञानार्जित करती हैं l यह सब कार्य एक इंटरनैट की तरह मात्र बुद्धि के नियंत्रण में होते हैं l

प्राचीन काल से ही भारत की गुरु-शिष्य परंपरा पर आधारित सर्वश्रेष्ठ विश्वसनीय कला-सृजन करने वाली वैदिक शिक्षा-प्रणाली अंग्रेजी साम्राज्य तक प्रभावी रही थी l इतिहास में श्रीकृष्ण–बलराम जी के गुरु का संदीपनी, श्रीराम-लक्ष्मण के गुरु का विश्वामित्र, लव-कुश के गुरु वाल्मीकि के आश्रम जैसे अनेकों आश्रमों का उल्लेख मिलता है l स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् बोट बैंक और दलगत राजनीति के कारण उसे भारी हानि पहुंची है l गुरुओं में पहला गुरु माता, दूसरा पिता और तीसरा विद्यालय के गुरु एवं अध्यापक माने जाते हैं l जीवन निर्माण में इनकी महान भूमिका रहती है l माँ-बाप तो मात्र बच्चे को जन्म देते हैं जबकि जीवन में उसे गुरु ही योग्य पात्र बनाते हैं l माँ के गर्व में विकसित हो रहा शिशु जन्म लेने से पूर्व अपने कानों से दूसरों की बातें श्रवण करना आरम्भ कर देता है l महाभारत के पात्र वीर अभिमन्यु इसका जीता-जागता उदाहरण है l उन्होंने जन्म लेने से पूर्व ही अपने पिता अर्जुन से माता सुभद्रा को सुनाई गई गाथा के माध्यम से चक्रव्यूह बेधने की कला सीख ली थी और उससे महाभारत में द्रोणाचार्य द्वारा रचाया गया चक्रव्यूह भी बेध डाला था l माँ के द्वारा प्रसंग पूरा न सुन पाने के कारण वे चक्रव्यूह बेधना/उससे बाहर निकलना नहीं जान सके थे l उनकी माँ गाथा सुनते-सुनते बीच में सो गई थी l अतः वे वीरगति को प्राप्त हुए थे l इसलिए कहा जाता है कि किसी भी गर्ववति महिला/स्त्री को ज्ञान-रस, वीर-रस की गाथाएँ सुनाने के साथ-साथ उससे धार्मिक और सदाचार ही की बातें करनी चाहियें l उसके शयन-कक्ष में धार्मिक और महान पुरुषों के चित्र लगाने चाहिए l इससे अच्छा और संस्कारवान बच्चा पैदा होता है l

जन्म लेने के पश्चात् बच्चा धीरे-धीरे अपने गुरु माता–पिता से खाना-पीना, बोलना, खड़े होना, चलना, दौड़ना सब कुछ सीख लेता है l ज्यों-ज्यों बच्चा बड़ा होता जाता है, त्यों-त्यों वह बालक या बालिका के रूप में तीन-चार वर्ष की आयु में पाठशाला जाना आरम्भ कर देता है l वहां वह लिखना, पढ़ना, बोलना संवाद करना, नाचना, गाना, अनुशासन व शिष्टाचार इत्यादि अन्य कलाएं भी सीखता है l यही नहीं, परंपरागत गुरुकुलों में तो आत्म-रक्षा हेतु छात्र-छात्राओं को युद्ध कला भी सिखाई जाती थी l कोई भी कला साधना आत्म साक्षात्कार करने का संसाधन है, साध्य नहीं l वही कला तब तक जीवित रहती है, जब तक उसका किसी के द्वारा एकलव्य की भांति सृजन, पोषण, और वर्धन हेतु अभ्यास किया जाता है l वही व्यक्ति कला का सफलता पूर्वक सृजन, पोषण और वर्धन हेतु अभ्यास कर सकता है जिसके पास कला के प्रति आत्म समर्पण की भावना, धैर्य, एकाग्रता और आत्म विश्वास होता है l जीवन में सफलता की ऊँचाइयाँ छूने और कला में प्रवीणता पाने के लिए दृढ़ इच्छा शक्ति का होना अति आवश्यक है l कलात्मक शिक्षण-प्रशिक्षण लेने से योग्यता में निखार आता है l कलात्मक अभिनय करने से दूसरों को ज्ञान मिलता है l

कलात्मक प्रतियोगिताओं में भाग से व्यक्ति का आत्मविश्वास बढ़ता है l लोकहित में कलात्मक व्यवसायिक परिवेश बनाने से भोग, सुख और यश प्राप्त होता है l कला-संस्कृति से ही किसी व्यक्ति, परिवार, समाज, क्षेत्र, प्रान्त और देश की पहचान होती है l कला संस्कृति को जीवित रखने का एक मात्र सरल उपाय यह है कि गुरु की उपस्थिति में प्रशिक्षित प्रशिक्षु के द्वारा नये प्रशिक्षु को शिक्षण-प्रशिक्षण दिया जाये l उनके द्वारा समय-समय पर कला-अभ्यास हो और निश्चित स्थान पर उनकी कला-प्रदर्शन का आयोजन भी किया जाये l किसी कला का सम्मान कलाप्रेमी ही करते हैं, कोई बाजार नहीं l कला का सम्मान करने से ही किसी कलकार का वास्तविक सम्मान होता है l जिस स्थान पर कला का सम्मान न हो, वहां आयोजक को भूलकर भी किसी कलाकार से उसकी कला का प्रदर्शन नहीं करवाना चाहिए और न ही किसी कलाकार को उसमें भाग लेना चाहिए l कला-प्रेमियों के हृदय में कहीं न कहीं कला के प्रति सम्मान अवश्य होता है जिस कारण वे उससे संबंधित कलामंच की ओर आकर्षित होते हैं l किसी भी कला को जीवंत बनाये रखने के लिए दर्शकों, कला प्रेमियों को उस कला का सम्मान अवश्य करना चाहिए l

समय-समय पर नालंदा, तक्षशिला, विश्वविद्यालयों और उनकी शाखाओं व उप-शाखाओं की तरह वर्तमान सरकारी अथवा गैर सरकारी शिक्षण संस्थाओं द्वारा अपने विभिन्न कलाकार छात्र-छात्राओं का उत्साह बढ़ाने के लिए उससे संबंधित मंचों का आयोजन करवाकर उन्हें सम्मानित भी करना चाहिए l जो युवाजन अपने जीवन में शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक तथा आत्मिक शक्तियों का विकास करना चाहते हैं, उन्हें स्वयं में छिपी हुई किसी न किसी कला (वादक-यंत्र वादन, नृत्य, संगीत, अभिनय, भाषण, साहित्य लेखन, जैसी अन्य कला) से प्रेम अवश्य करना चाहिये l जीवन निर्वहन करने के साथ-साथ उनके पास अपना मानव जीवन संवारने के लिए इससे बढ़िया अन्य और संसाधन क्या हो सकता है !

चेतन कौशल “नूरपुरी”

डिह्बकेश्वर महादेव मंदिर परिसर में समरसता

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आलेख – धर्म संस्कृति मातृवन्दना मार्च अप्रैल 2020  

ऋषि-मुनि, सिद्ध, सन्यासी, साधु-सन्त, महात्मा और परमात्मा के साथ जुड़े माणिकों एवं अलंकारों से सुशोभित, भारत माता के सरताज, देव और वीरभूमि हिमाचल प्रदेश की तराई में राष्ट्रीय राजमार्ग पर स्थित है जिला कांगड़ा, का प्रवेश द्वार नूरपुर, के उत्तर में सहादराबान से सर्पाकार एवं घुमावदार सड़क द्वारा लेतरी, खज्जन, हिंदोरा-घराट, सदवां से घने निर्जन चीड़ के जंगल पार, गांव सिम्बली से होते हुए नूरपुर से लगभग चोदह किलोमीटर के अंतराल पर स्थित है - सुल्याली गांव।

अपनी हरियाली की अपार सुंदरता एवं स्वच्छता के कारण भारत की देव भूमि हिमाचल प्रदेश विश्व विख्यात है। यहां पर स्थित विभिन्न प्रसिद्ध धार्मिक स्थल देश व विदेश में अपनी अलग पहचान बनाए हुए हैं। प्रदेश के विभिन्न धार्मिक स्थलों में सुल्याली गांव का डिह्बकेश्वर महादेव मंदिर अथवा प्राकृतिक शिवाला डिह्बकेश्वर धाम अत्यंत सुंदर, शांत तथा रमणीय स्थल है।


यह प्राकृतिक शिवाला अपने अस्तित्व में कब आया? कोई नहीं जानता है। परंतु यहां विराजित साक्षात देवों के देव महादेव परिवार की गांव सुल्याली में वसने वाले लोगों पर असीम कृपा अवश्य है। लोगों में एक दूसरे के प्रति प्रेम व सदभावना कूटकूट कर भरी हुई है।


डिह्बकेश्वर महादेव मंदिर परिसर के स्नानों में स्नान सोमवार की अमावसया, वैसाखी की अमावसया, बुध पूर्णिमा, गुरु पूर्णिमा, चन्द्र ग्रहण, सूर्य ग्रहण, पितर तर्पण, सावन मास के सोमवारों के स्नान होते हैं। श्रीकृष्ण जन्माष्टमी, राधाष्टमी, शीतला पूजन के साथ-साथ यहां शिवरात्रि हर वर्ष बड़ी धूम-धाम से मनाई जाती है जिसमें हर वर्ण के लोग यथाशक्ति बढ़-चढ़ कर भाग लेते हैं।


यहां पर गृह शांति हेतु हवन करवाये जाते हैं। बच्चों के मुंडन संस्कार होते हैं। यहां मास के हर रविवार को लंगर लगवाने की व्यवस्था भी है जिसमें कोई भी गृहस्थी अपनी इच्छा से यहां की व्यवस्था के अनुसार हवन, संकीर्तन करवाने के साथ-साथ लंगर भी लगवा सकता है।


भरमौर निवासी गद्दी समुदाय के लोग अंधेरा होने पर डिह्बकेश्वर महादेव मंदिर परिसर में शिव विवाह जिसे वे अपनी स्थानीय भाषा में नवाला कहते हैं, का हर वर्ष जनवरी मास में आयोजन करते हैं। वे शिव पूजन करके लोक-नृत्य सहित शिव विवाह के भजन गाते हैं। जो देखने योग्य होता है। इसे देखने हेतु यहां पर दूर-दूर से लोग आते हैं। दूसरे दिन वे यहां आए हुए श्रद्धालु-भक्तों के लिए भोले शंकर का लंगर लगाते है जिसे लोग सप्रेमपूर्वक प्रसाद रूप में ग्रहण करते हैं।


स्व0 मास्टर गिरीपाल शर्मा जी ने अपनी स्वर्गीय धर्मपत्नी की याद में पादुका स्थित सुल्याली गांव में शिवरात्रि के दिन इस यज्ञ का शुभारम्भ किया था। जो वहां हर वर्ष किया जाता था। इसे बाद में बंद कर दिया गया और फिर डिह्बकेश्वर महादेव मंदिर परिसर में आरम्भ कर दिया गया। स्व0 मास्टर हंस राज शर्मा, जी ने सन् 1967.68 ई0 से शिवरात्रि पर्व से लोगों को जोड़ने का महत्वपूर्ण कार्य किया था। यज्ञ में दाल, चावल, खट्टा, मीठा, मह्दरा आदि बनना आरम्भ हो गया। इससे पूर्व यहां आषाढ़ मास की संक्रांति को चपाती, आम की लाहस तथा माश की दाल बना कर सहभोज करने की प्रथा प्रचलित थी। जिसे ग्रहण करके सभी लोग आनन्द उठाते थे।
यहां हर वर्ष शिवरात्रि से दो - तीन दिन पूर्व ही उसकी तैयारी होना आरम्भ हो जाती है। शिवरात्रि से एक दिन पूर्व यहां हवन-यज्ञ किया जाता है। रात को भजन कीर्तन होता है और दूसरे दिन सहभोज-भण्डारा किया जाता है जिसका आयोजन एवं समापन बिना किसी भेदभाव से संपूर्ण होता है। इन दिनों डिह्बकेश्वर महादेव मंदिर परिसर में बहुत ज्यादा चहल-पहल रहती है। यहां स्थानीय लोग ही नहीं दिल्ली, पंजाब और जम्मू-कश्मीर राज्यों के दूर-दूर से आए हुए श्रद्धालू-भक्त जन भी अपनी-अपनी यथाशक्ति से अन्न, तन, मन और धन द्वारा सेवा कार्य में बढ़-चढ़ कर भाग लेते हैं।


यहां आने वाले आस्थावान भक्तों पर भोलेनाथ सदा दयावान रहते हैं। जन धारणा के अनुसार शिवरात्रि को शिवभोले नाथ सपरिवार डिह्बकू में विराजमान रहते हैं तथा यहां पधारे हुए भक्तजनों को अपना आशीर्वाद भी देते हैं। स्थानीय लोगों की धारणा है कि शिवरात्रि के पश्चात् शिव भोले नाथ सपरिवार, मणिमहेश कैलाश की ओर प्रस्थान कर जाते हैं।


शिव भोले नाथ के प्रति अटूट श्रद्धा और विश्वास रखने वाले भक्तजन बारह मास - सर्दी, गर्मी और बरसात में शिव दर्शन और उनकी पूजा-अर्चना करते हैं। वे शिवलिंगों को दूध लस्सी से नहलाते हैं तथा उन पर बिल्व-पत्री चढ़ा कर उनकी धूप-दीप, नैवेद्यादि से पूजा अर्चना करके, उनसे आशीर्वाद प्राप्त करते हैं।


साहिल ग्रुप पठानकोट, के सदस्य मिलकर यहां हर वर्ष दिन में पहले सुल्याली बाजार से होते हुए डिह्बकेश्वर महादेव मंदिर परिसर तक संगीत सहित शिवविवाह की मनोरम झांकियां निकालते हैं और फिर देर रात तक शिव विवाह से संबंधित धर्म-सांस्कृतिक कार्यक्रम चलता रहता है जिसे देखने हेतु दूर-दूर से लोग आते हैं। दूसरे दिन वे वहां आने वाले श्रद्धालु-भक्तों के लिए भोले शंकर का लंगर लगाते हैं। लोग प्रसाद ग्रहण करते हैं।


सुल्याली गांव के आसपास के क्षेत्र से अनेकों महिलाएं डिह्बकेश्वर महादेव परिसर में आकर सोमवार की अमावसया, वैसाखी की बड़ी सोमी अमावसया को पीपल वृक्ष का पूजन करती हैं। इस पूजन में पीपल वृक्ष की 108 परिक्रमायें की जाती हैं जिसके अंतर्गत फल, चावल व दाल के दाने, द्रब, दक्षिणा, कच्चा सू़त्र की लड़ियां और जोतें सभी गिनती में 108-108 एक समान नग होते हैं। इसके अतिरिक्त सुहागी, वर्तन और कपड़ा भी होता है जो दान किया जाता है। कच्चा सू़त्र की लड़ियों को पीपल वृक्ष के चारों ओर परिक्रमा करके लपेटा जाता है जो देखने योग्य होता है। इस तरह डिह्बकेश्वर महादेव मंदिर परिसर में अध्यात्मिकता देखने को मिलती है जो समरसता से परिपूर्ण होती है।

चेतन कौशल “नूरपुरी”

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