मानवता

मानवता सेवा की गतिविधियाँ

पुरालेख (page 23 of 164)

सर्वोत्तम वरदान

अनमोल वचन :-# अच्छा स्वास्थ्य एवंम अच्छी समझ जीवन में दो सर्वोत्तम वरदान है l *
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आचरण शुद्धता

अनमोल वचन :-# आचरण की शुद्धता ही व्यक्ति को प्रखर बनाती है l*
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अनीति मार्ग

अनमोल वचन :-# अनीति के रास्ते पर चलने वाले का बीच राह में ही पतन हो जाता है l*
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व्यक्ति परिचय

अनमोल वचन :-# दो चीजें आपका परिचय कराती हैं : आपका धैर्य, जब आपके पास कुछ भी न हो और...
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प्रभु की समीपता

अनमोल वचन :-# धर्यता और विनम्रता नामक दो गुणों से व्यक्ति की ईश्वर से समीपता बनी रहती है l*
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उच्च विचार

अनमोल वचन :-# दिनरात अपने मस्तिष्क को उच्चकोटि के विचारों से भरो जो फल प्राप्त होगा वह निश्चित ही अनोखा...
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मुस्कराना

अनमोल वचन :-# मुस्कराना, संतुष्टता की निशानी है इसलिए सदा मुस्कराते रहो l*
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प्रभु कृपा

अनमोल वचन :-# सच्चाई, सात्विकता और सरलता के बिना भगवान् की कृपा कदापि प्राप्त नहीं की जा सकती l*
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जीवन महत्व

अनमोल वचन :-# आप अपने जीवन का महत्व समझकर चलो तो दूसरे भी महत्व देंगे l*
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जीवन महत्व

अनमोल वचन :-# आप अपने जीवन का महत्व समझकर चलो तो दूसरे भी महत्व देंगे l*
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गुरुकुल शिक्षा पद्दति और संस्कार

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आलेख – परम्परागत गुरुकुल शिक्षा मातृवन्दना जुलाई 2019

प्राचीन भारतीय निशुल्क शिक्षा-प्रणाली अपने आप में विशाल हृदयी होने के कारण विश्वभर में जानी और पहचानी गई थी l भारत विश्वगुरु कहलाया था l भारतीय शिक्षा गुरुकुल परंपरा पर आधारित थी जिसमे सहयोग, सहभोज, सत्संग, लोकानुदान की पवित्र भावना, सद्विचार, सत्कर्मों से विश्व का कल्याण होता था l
गुरुकुल कभी किसी का शोषण नहीं, मात्र पोषण ही करते थे l तभी तो “सारी धरती गोपाल की है” भारत मात्र उद्घोष ही नहीं करता है, सारे विश्व को एक परिवार भी मानता है l गुरुकुल में राजा, रंक और भिखारी सभी के होनहार बच्चों को अपने जीवन में आगे बढ़ने का एक समान सुअवसर प्राप्त होता था l उनके साथ एक समान व्यवहार होता था l गुरु व आचार्य जन शिष्यों के अँधेरे जीवन में तात्विक विषय ज्ञान-विज्ञान, ध्यान, लग्न, मेहनत, योग्यता, निपुणता, प्रतिभा और शुद्ध अचार-व्यवहार जैसे सद्गुणों का प्रकाश करके उन्हें दीप्तमान करते थे l इससे बच्चों के जीवन की नींव ठोस होती थी l उनके शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा का संतुलित विकास होता था l बच्चे विश्व बंधू बनते थे जो गुरु व आचार्य के आशीर्वाद और बच्चों की लग्न तथा मेहनत का ही प्रतिफल होता था l
भारतीय गुरुकुलों में शिक्षण-शुल्क प्रथा का अपना कोई भी महत्व नहीं था l गुरुकुलों में शुल्क रहित शिक्षण-प्रथा से ही गुरु तथा शिष्य का निर्वहन, साधना, समृद्धि और विकास होता था l स्वेच्छा से सामर्थ्यानुसार, बिना किसी भय के, ख़ुशी-ख़ुशी से दिया जाने वाला लोक अनुदान बच्चों के जीवन का निर्माण करता था l
कोई भी प्राचीन गुरुकुल प्राचीन गुरुकुल एक वह दिव्य कार्यशाला थी जहाँ बच्चों में योग्यता पनपती थी l वहां उन्हें दुःख-सुख का सामना करने का अनोखा साहस मिलता था l जीवन के हर क्षेत्र में आत्म सम्मान के साथ सर उठाकर चलने और समय पड़ने पर शेर की तरह दहाड़ करने के साथ-साथ जीने और मरने की भी एक अनोखी मस्ती प्राप्त होती थी l इन गुणों को प्रदान करता था – आचार्यों, अभिभावकों, राजनीतिज्ञों और प्रशासकों का योगदान l गुरुकुलों की गरिमा अविरल जलधारा समान प्रवाहित होती रहती थी l गुरुकुलों को अनुदान से प्राप्त अन्न, धन, वस्त्र और भूमि आदि पर मात्र गुरुकुल में कार्यरत मानी आचार्यों का जितना स्वामित्व होता था, अध्ययनरत, अध्ययनकाल तक उस पर शिष्यों का भी उतना ही स्वामित्व रहता था l दोनों में प्रेम, सहयोग, त्याग और बलिदान की पवित्र भावना होती थी l आचार्य शिष्यों के जीवन का निर्माण करते थे, उनका मार्गदर्शन करते थे l जबकि शिष्य पूर्ण ज्ञानार्जित करने के पश्चात मात्र कर्तव्य परायण होकर अपने माता-पिता गाँव, समाज, शहर और राष्ट्र ही की सेवा करते थे l भारतीय शिक्षा क्षेत्र मात्र निःस्वार्थ सेवा क्षेत्र रहा है जिसमें निष्कामी आचार्य तथा ज्ञान पिपासु विद्यार्थियों की महती आवश्यकता बनी रहती थी l वह तो सदैव सबके लिए ज्ञान का प्रणेता और मार्ग दर्शक ही था l आचार्य भली प्रकार जानते थे – उन्हें विद्यार्थियों को किस प्रकार का शिक्षण देने के साथ प्रशिक्षण भी देना है l
वैसे शिक्षण-प्रशिक्षण लेने की कोई आयु सीमा नहीं होती है l आवश्यकता है तो मात्र तुम्हारे (विद्यार्थी) दृढ़ निश्चय की कि तुम जीवन में क्या करना चाहते हो, क्या कर रहे हो ? तुम क्या बनना चाहते हो, क्या बन गए हो ? तुम क्या पाना चाहते हो, तुमने अभी तक पाया क्या है ? अगर तुम अपना उद्देश्य पाने में बारबार असफल रहे हो, उसके लिए तुम्हें किसी प्रकार की सहायता की आवश्यकता है, किसी शंका का समाधान ही करवाना हो तो आओ ! उसका निवारण करने को l गुरुकुल के आचर्यों की शरण लो l वहां तुम्हें हर समस्या का हल मिलेगा l
तुम जब भी आना अपने साथ श्रद्धा, प्रेम, भक्ति और विश्वास अवश्य लाना, भूल न जाना l हमारे आचार्य यही शुल्क लेते हैं l बिना इनके तुम्हें वहां उनसे कुछ भी नहीं है, मिलने वाला l भारत माता के तन पर लिपटा हुआ वस्त्र जगह-जगह से कटा हुआ है l भारतीय शिक्षा सदियों से आक्रान्ताओं, अत्याचारियों की बर्बरता, क्रूरता का शिकार हुई है l उसकी व्यवस्था अस्त-व्यस्त हो चुकी है l कपड़ा तो ठोस है, घिसा नहीं है, मात्र कटा हुआ है l वह तो अब भी हर मौसम का सामना करने में पूर्ण सक्षम है l भारतीय शिक्षा अव्यवस्थित होते हुए भी किसी अन्य राष्ट्र की शिक्षा-प्रणाली की तुलना में अब भी कम नहीं, श्रेष्ठ ही है l जरुरी है – उस कपड़े की सिलाई करना l उसे पुनः साफ-सुथरा करके फिर से उपयोगी बनाना l शिक्षा का पुनर्गठन करना, उसे उचित नेतृत्व प्रदान करना l
क्या हमें किसी अन्य तन का मात्र सुंदर कपड़ा देख अपने तन का उपयोगी एवंम सुखदायी कपड़े का त्याग कर देना चाहिए ? हमें अपनी जीवनोपयोगी भारतीय शिक्षा-प्रणाली को भुला देना चाहिए ? उसके स्थान पर किसी अन्य राष्ट्र से उपलब्ध शिक्षा-प्रणाली को स्वीकार कर लेना चाहिए ? नहीं , कभी नहीं l हमें भारतीय शिक्षा प्रणाली को पुनः समझना होगा l उसे आधुनिक नई कसौटी पर परखना होगा l तभी वह एक दिन देश, काल और पात्र के अनुकूल तथा जन मानस के अनुरूप, उपयोगी सिद्ध होगी l वैसे किसी कमजोर रोगी के तन से लिया हुआ कोई भी का कपड़ा एक हृष्ट-पुष्ट निरोगी काया को मात्र रोगों के अतिरिक्त कुछ और दे भी क्या सकता है ? ऐसे कपड़े की तरह ली गई अन्य राष्ट्र की शिक्षा-प्रणाली भारत वर्ष के लिए किसी भयानक संक्रामक रोग से कम नहीं है l इससे उसे दूर रखने में ही हम सबका हित है l
आज हम वर्तमान शिक्षा-प्रणाली को अँधेरे का कारण मान रहे हैं लेकिन अँधेरे को दोष देने से कहीं अच्छा है – कोई एक दीप जला देना l कभी-कभी भारतीय शिक्षा का मंद गति से प्रवाहित होने वाला मदमाती महक का मधुर झोंका न जाने कहाँ से आकर कोमल मन को स्पर्श कर जाता है ? मन आनंदित हो जाता है l लगता है वह कुछ कह रहा हो –
गुण छुपाये चुप नहीं पाता, गुण का स्वभाव है यही,
फुलवारी अपनी फूलों भरी, सुगंध कभी रूकती है नहीं l

चेतन कौशल “नूरपुरी”

ज्ञान के चालीस स्रोत  

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आलेख - शिक्षा कश्मीर टाइम्स 16.11.2008

योग्य गुरु एवंम योग्य विद्यार्थी के संयुक्त प्रयास से प्राप्त विद्या से विद्यार्थी का हृदय और मस्तिष्क प्रकाशित होता है l अगर विद्या प्राप्ति हेतु प्रयत्नशील द्वारा बार-बार प्रयत्न करने पर भी असफलता मिले तो उसे कभी जल्दी हार नहीं मान लेनी चाहिए बल्कि ज्ञान संचयन हेतु पूर्ण लगनता के साथ और अधिक श्रम करना चाहिए ताकि उसमें किसी प्रकार की कोई कमी न रह जाये l
1. लोक भ्रमण करने से विषय वस्तु को भली प्रकार समझा जाता है l
2. साहित्य एवंम सदग्रंथ पड़ने से विषय वस्तु का बोध होता है l
3. सुसंगत करने से विषयक ज्ञान-विज्ञान का पता चलता है l
4. अधिक से अधिक जिज्ञासा रखने से ज्ञान-विज्ञान जाना जाता है l
5. बड़ों का उचित सम्मान और उनसे शिष्ट व्यवहार करने से उचित मार्गदर्शन मिलता है l
6. आत्म चिंतन करने से आत्मबोध होता है l
7. सत्य निष्ठ रहने से संसार का ज्ञान होता है l
8. लेखन-अभ्यास करने से आत्मदर्शन होता है l
9. अध्यात्मिक दृष्टि अपनाने से समस्त संसार एक परिवार दिखाई देता है l
10. प्राकृतिक दर्शन करने से मानसिक शांति प्राप्त होती है l
11. सामाजिक मान-मर्यादाओं की पालना करने से जीवन सुगन्धित बनता है l
12. शैक्षणिक वातावरण बनाने से ज्ञान विज्ञान का विस्तार होता है l
13. कलात्मक अभिनय करने से दूसरों को ज्ञान मिलता है l
14. कलात्मक प्रतियोगिताओं में भाग लेने से आत्मविश्वास बढ़ता है l
15. दैनिक लोक घटित घटनाओं पर दृष्टि रखने से स्वयं को जागृत किया जाता है l
16. समय का सदुपयोग करने से भविष्य प्रकाशमान हो जाता है l
17. कलात्मक शिक्षण-प्रशिक्षण लेने से योग्यता में निखार आता है l
18. उच्च विचार अपनाने से जीवन में सुधार होता है l
19. आत्मविश्वास युक्त कठोर श्रम करने से जीवन विकास होता है l
20. मानवी ऊर्जा ब्रह्मचर्य का महत्व समझ लेने और उसे व्यवहार में लाने से कार्य क्षमता बढ़ती है l
21. मन में शुद्धभाव रखने से आत्म विश्वास बढ़ता है l
22. कर्मनिष्ठ रहने से अनुभव एवंम कार्य कुशलता बढ़ती है l
23. दृढ निश्चय करने से मन में उत्साह भरता है l
24. लोक परम्पराओं का निर्वहन करने से कर्तव्य पालन होता है l
25. स्थानीय लोक सेवी संस्थाओं में भाग लेने से समाज सेवा करने का अवसर मिलता है l
26. संयुक्त रूप से राष्ट्रीय पर्व मनाने से राष्ट्र की एकता एवंम अखंडता प्रदर्शित होती है l
27. स्वधर्म निभाने से संसार में अपनी पहचान बनती है l
28. प्रिय नीतिवान एवंम न्याय प्रिय बनने से सबको न्याय मिलता है l
29. स्वभाव से विनम्र एवंम शांत मगर शूरवीर बनने से जीवन चुनौतिओं का सामना किया जाता है l
30. निडर और धैर्यशील रहने से जीवन का हर संकट दूर होता है l
31. दुःख में प्रसन्न रहना ही शौर्यता है l वीर पुरुष दुःख में भी प्रसन्न रहते है l
32. निरंतर प्रयत्नशील रहने से कार्य में सफलता मिलती है l
33. परंपरागत पैत्रिक व्ययवसाय अपनाने से घर पर ही रोजगार मिल जाता है l
34. तर्क संगत वाद-विवाद करने से एक दूसरे की विचारधारा जानी जाती है l
35. तन, मन, और धन लगाकर कार्य करने से प्रशंसकों और मित्रों की वृद्धि होती है l
36. किसी भी प्रकार अभिमान न करने से लोकप्रियता बढ़ती है l
37. सदा सत्य परन्तु प्रिय बोलने से लोक सम्मान प्राप्त होता है l
38. अनुशासित जीवन यापन करने से भोग सुख का अधिकार मिलता है l
39. कलात्मक व्यवसायिक परिवेश बनाने से भोग सुख और यश प्राप्त होता है l
40. निःस्वार्थ भाव से सेवा करने से वास्तविक सुख व आनंद मिलता है l


चेतन कौशल “नूरपुरी”

परंपरागत शिक्षा-संस्कृति संरक्षण की आवश्यकता

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आलेख – शिक्षा व्यवस्था मातृवंदना फरवरी 2017 
यह शाश्वत सत्य है कि हम जैसी संगत करते हैं, हमारी वैसी भावना होती है l हमारी जैसी भावना उत्पन्न होती है, हमारा वैसा विचार होता है l हमारा जैसा विचार पैदा होता है, हमसे हमारा वैसा ही कर्म होने लगता है और जब हम जैसा कर्म करते हैं, तब हमें उसका वैसा फल भी मिलता है l  
गृहस्थ जीवन में गर्भादान के पश्चात् एक माँ के गर्भ में जब शिशु पूर्णतया विकसित हो जाता है तब उसके साथ ही उसके सभी अंग भी सुचारू ढंग से अपना-अपना कार्य करना आरंभ कर देते हैं l माँ के सो जाने पर शिशु भी सो जाता है और उसके जाग जाने पर वह भी जाग जाता है l इस अवस्था में माँ-बाप के द्वारा उसे जो कुछ सिखाया जाता है शिशु सहजता से सीख जाता है l
इसका उदाहरण हमें महाभारत के पात्र वीर अभिमन्यु से मिलता है l तब अभिमन्यु अपनी माँ सुभद्रा की कोख में पल रहा था l एक दिन महारथी अर्जुन अपनी भार्या सुभद्रा को चक्रव्यूह बेधने की विधि सुनाने लगे l सुभद्रा ने उसे चक्रव्यूह में प्रवेश करने तक तो सुन लिया, पर इससे आगे सुनते-सुनते वह बीच में सो गई, शिशु भी सो गया l चक्रव्यूह से बाहर कैसे निकलना है ? वह बात माँ और बेटा दोनों नहीं सुन पाए l अतः महाभारत युद्ध की अनिवार्यता देखते हुये और चक्रव्यूह बेधन का अपूर्ण ज्ञान होते हुए भी अभिमन्यु को गुरु द्रोणाचार्य द्वारा रचित चक्रव्यूह में प्रवेश करना पड़ा l वह उसमें प्रवेश तो कर गया पर बाहर निकलने के मार्ग का उसे ज्ञान न होने के कारण, वह बाहर नहीं निकल सका l अतः वह वीरगति को प्राप्त हो गया l
जन्म लेने के पश्चात् शिशु सबसे पहले माँ को पहचानता है l ज्यों-ज्यों उसे संसार का बोध होता होने लगता है त्यों-त्यों वह घर के अन्य सदस्यों को भी पहचानने लगता है और उनसे बहुत सा कुछ सीख लेता है l शिशु के साथ सीखने-सिखाने के इस कर्म में सबसे पहले माँ-बाप की सबसे बड़ी भूमिका रहती है l उसके सामने माँ-बाप जैसा कार्य करते हैं, वह उन्हें जैसा कार्य करते हुए देखता है, वह उन्हें जैसा बोलते हुए सुनता है, वह तत्काल उसका अनुसारण भी करने लगता है l हर माँ-बाप चाहते हैं कि उनकी सन्तान उनसे अच्छी हो l वह भविष्य में उनसे भी अधिक बढ़-चढ़कर उन्नति करे l इसी बात का ध्यान रखते हुए उन्हें अपने बच्चो के लिए एक अच्छा वातावरण बनाना होता है l एक अच्छे वातावरण में ही बच्चों को अच्छे संस्कार मिलते हैं और वे अपने जीवन में दिन दुगनी-रात चौगुनी उन्नति करते हैं l
घर से बच्चों को अच्छे संस्कार मिलने के पश्चात विद्यालय में गुरुजनों की बड़ी भूमिका होती है l विद्यालय में अच्छे संस्कारों का संरक्षण होता है, होना भी चाहिए l यह कार्य कभी भारत के परंपरागत गुरुकुल किया करते थे l वहां गुरुजनों के द्वारा ऐसी होनहार प्रतिभाओं को भली प्रकार परखा और तराशा जाता था जो युवा होकर अपने-अपने कार्य क्षेत्र में जी-जान लगाकर कार्य करते थे l परिणाम स्वरूप हमारा भारत विश्व मानचित्र पर अखंड भारत बनकर उभरा और वह सोने की चिड़िया के नाम से सर्व विख्यात हुआ l उन्नति के पश्चात पतन होना निश्चित है, देश का पतन हुआ l वर्तमान भारत जिसे हम सब देख रहे हैं, वह वास्तविक भारत नहीं है जो विश्व मानचित्र पर अखंड महाभारत दिखता था l विभिन्न षड्यंत्रों के कारण उसके कई महत्वपूर्ण क्षेत्र अब उससे कटकर विभिन्न राष्ट्र बन चुके हैं l देश में अब भी अनेकों षड्यंत्र जारी हैं l ऐसी स्थिति में सरकारों को देशहित में कठोर निर्णय लेने होते हैं, लेने भी चाहिए और जनता द्वारा उन्हें अपना भरपूर सहयोग देना चाहिए l भविष्य में सावधान रहने की आवश्यकता है l
भारत में अंग्रेजी साम्राज्य की स्थापना के पश्चात अंग्रेजों ने भारतीय परंपरागत गुरुकुलों की मान्यता समाप्त कर दी थी l और उसके स्थान पर उन्होंने पाश्चात्य शिक्षा-प्रणाली जारी की थी l पाश्चात्य शिक्षा-संस्कृति पर आधारित वर्तमान शिक्षा-व्यवस्था से भारतीय सनातन धर्म, शिक्षा-संस्कृति पर बुरा प्रभाव पड़ा है, पड़ रहा है और निरंतर जारी है l
भारतीय परंपरागत गुरुकुलों की विशेषता यह थी कि ब्रह्मचर्य जीवन में जब बच्चे पूर्णतया विद्या प्राप्त करके स्नातक बनकर युवाओं के रूप में गुरुकुल छोड़ने के पश्चात समाज में आगमन करते थे तब वे समाज की दृष्टि में सच्चे ज्ञानवीर, शूरवीर, धर्मवीर तथा कर्मवीर होते थे l लोग उनका हार्दिक सम्मान करते थे l परन्तु पराधीनता से मुक्ति पाने के पश्चात् भी भारतवर्ष में आज हर युवा अव्यवस्था के दंश से दुखी, अपनी इच्छा का कार्य, कार्य क्षेत्र न मिल पाने के कारण असहाय सा अनुभव कर रहा है l
यह हम सबका दुर्भाग्य ही है कि भारत में परंपरागत गुरुकुल नहीं हैं l वर्तमान शिक्षा के निम्न स्तर तथा शिक्षा व्यवस्था का तेजी से व्यपारीकरण एवंम राजनीतिकरण होने से बच्चों को माँ-बाप से मिलने वाले संस्कारों को कहीं संरक्षण नहीं मिल रहा है l घर पर बच्चों को अच्छे संस्कार तो मिल जाते हैं पर उनका पालन-पोषण करने वाली परंपरागत गुरुकुल प्रधान शिक्षा व्यवस्था आज कहीं दिखती नहीं है l पाश्चात्य शिक्षा व्यवस्था और उसके अधीनस्थ कार्य करने वाले समस्त छोटे तथा बड़े असमर्थ विद्यालय, विद्यालय केन्द्रों से युवा वर्ग दशा और दिशा दोनों से भ्रमित हो रहा है l उसका भविष्य अंधकारमय हो गया है l फिर भी वह अपना हित चाहता है पर उसकी श्रेष्ठता किसमें है ? यहाँ हमें इस बात का विश्लेषण करके देखना अति आवश्यक है l
हम लोगों में कुछ लोग मात्र अपना ही भला चाहते हैं l कुछ लोग अपना और अपने रिश्तेदारों का भला चाहते हैं l कुछ लोग अपना और कुछ लोगों का भला चाहते हैं l जो लोग मात्र अपना भला चाहते हैं, अपने रिश्तेदारों का भला चाहते हैं, अपना और कुछ लोगों का भला चाहते हैं, उनमें निज स्वार्थ भी दिखाई देता है l वे कभी सबका भला होता हुआ नहीं देख सकते l मगर हममें कुछ ऐसे भी लोग हैं जो सब लोगों का भला चाहते हैं l इसमें उनका अपना कोई भी हित नहीं दिखता l वे दूसरों के हित में अपना हित समझते हैं, चाहते हैं l इसलिए सबका भला करने वाले लोग सन्यासी, सर्व श्रेष्ठ लोग होते हैं l
मन के विकार और इच्छाएं बड़ी प्रबल होती हैं l वानप्रस्थ जीवन में उनका अपने विवेक द्वारा सयंमन करने और उनके प्रति हर समय जागरूक रहने की निरंतर आवश्यकता रहती है l वैसे तो हर व्यक्ति स्वतंत्र रहना चाहता है पर स्वतंत्रता का अर्थ यह नहीं है कि प्रभावशाली होने पर भी मर्यादाओं का उल्लंघन किया जाये या हर किसी को उसकी मनमर्जी करने की छूट हो, बल्कि स्वतंत्रता का अर्थ है कि व्यक्ति के द्वारा उन मर्यादाओं की पालना करने के साथ-साथ समाजिक दायित्वों का भी भली प्रकार निर्वहन हो l समर्थवान बनने के लिए हर व्यक्ति ईश्वर से प्रार्थना करके, उसका कृपा-पात्र बन सकता है l
वह प्रार्थना कर सकता है – हे ईश्वर ! हमारे मन में सुसंगत करने का साहस उत्पन्न हो l कुसंगत से हमारी निरंतर दूरी बनी रहे l सुसंगत हमारे मन में शुद्ध भावना पैदा करे l शुद्ध भावना से हमारी हर दुर्बलता, दुर्भावना का नाश हो l शुद्ध भावना से हमारे मन में शुद्ध विचारों की वृद्धि हो l भूलकर भी हमारे मन कोई कुविचार न आये l शुद्ध विचार हमारे सत्कर्मों की सदा वृद्धि करें l आपका हमें कभी विस्मरण न हो l हमसे कभी कोई दुराचार न हो l सत्कर्मों से हमारा सदैव आत्मोत्थान हो l हमारा कभी आत्म-पतन न हो l आप हमें सदा आत्मोन्मुख बनाये रखें l आपकी कृपा से हम सदैव दूसरों की भलाई करने हेतु निमित मात्र बने रहें l यह मनोकामना हम सबकी पूर्ण हो l
सर्वजन हिताय - सर्वजन सुखाये नीति के अंतर्गत परंपरागत सन्यासी और शासक, जन प्रतिनिधि, राजनेता का जीवन एक ही समान होता है, भारत में पहले ऐसा होता था और अब भी है l उनका कार्य, कार्य क्षेत्र अलग-अलग होने पर भी उनकी रचनात्मक एवंम सकारात्मक सोच एक ही समान रहती है l वास्तविक सन्यासी ज्ञानी, भक्त और वैरागी होता है l वह सदैव दूसरों का मार्गदर्शन करता है l यही कारण था कि भारत विश्व गुरु बना l
सर्वजन हिताय - सर्वजन सुखाये नीति के अंतर्गत सबका एक समान विकास करना, विकास किया जाना सरकारी और गैर सरकारी संस्थानों का दायित्व है l आज देशहित में आवश्यकता इस बात की है कि बच्चों को माँ-बाप के द्वारा मिलने वाले शिक्षा संस्कारों का समस्त विद्यालयों में भली प्रकार पालन-पोषण हो, संरक्षण हो l यह कार्य वहां तभी साकार हो सकता है जब भारत सरकार और देश की राज्य सरकारें आपस में परंपरागत गुरुकुलों की भाँती कोई एक ठोस राष्ट्रीय शिक्षा-नीति की घोषणा करके उसे व्यवहारिकता प्रदान करें l इससे भारतवर्ष विश्व मानचित्र पर पुनः अखंड महाभारत एवंम विश्व गुरु बन सकता है l इसके बिना न तो भारतवर्ष का हित है और न ही किसी देशवासी का

चेतन कौशल “नूरपुरी”

स्टार्ट अप कंपनियां दे रही रोजगार के अवसर

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आलेख – साक्षात्कार मातृवन्दना जुलाई 2023

आलस्य, निद्रा, कर्महीनता और नशा मनुष्य जीवन के महान शत्रु हैं l जहाँ एक ओर आज का एक युवावर्ग इन शत्रुओं का शिकार हो रहा है, वहीं दूसरी ओर एक अन्य पुरुषार्थी और कर्मठ युवा वर्ग दिन-रात एक करके अपने कार्य में निरंतर प्रयत्नशील भी है l आज मुझे एक आईटी कंपनी के सीईओ से साक्षात्कार करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ l उनसे  प्राप्त जानकारी के कुछ महत्वपूर्ण अंश इस प्रकार हैं -


1. प्रश्न - आपके द्वारा आईटी कंपनी की शुरुआत कैसे हुई और आरंभ में आपकी सोच क्या थी ?


उत्तर – मैं अपने बिजनेस पार्टनर के साथ रात में बैठा था l हमने पहले एक प्रशिक्षण संस्थान खोलने की योजना बनाई थी l उसके लिए हमें कुछ परिसर लेने थे, भुगतान करने के लिए पैसे की आवश्कता थी l जो हमारे पास नहीं थे l हमने उस विचार को छोड़ दिया l फिर हमने और शोध किया और इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि हमें घर से ही अपने आप काम शुरू करना चाहिए । इस तरह हमारे पास स्टार्टअप खोलने के लिए पैसे का बैकअप बन जायेगा । इस बार भगवान की कृपा से  हम सफल हुए ।


2. प्रश्न - आपके मन में आईटी कंपनी से ही संबंधित कार्य करने का विचार क्यों आया जबकि आप के समक्ष अन्य कार्य  करने के भी हजारों विकल्प उपलब्ध थे ?


उत्तर - दुनिया बहुत तेजी से आगे बढ़ रही है और अब सब कुछ डिजिटल भी हो रहा है । मैं कंप्यूटर एप्लीकेशन में मास्टर हूं । इसलिए मैंने केवल और केवल अपनी शिक्षा से संबंधित स्टार्टअप खोलने की योजना बनाई ।


3. प्रश्न – आपने आईटी कंपनी का शुभ आरंभ कब किया ? उसमें सर्व प्रथम कितने कर्मचारी थे, अब कितने हैं ? वैसे हर किसी को अपने कर्मचारियों को खुश रखना बड़ा कठिन होता है, आप सालभर उन्हें प्रसन्न कैसे रखते हैं ?


उत्तर – मैंने 2013 में कंपनी शुरू की थी जिसमें मैंने अपने बिजनेस पार्टनर के साथ खुद काम करना शुरू किया था । हम शुरुआत में कंपनी के मात्र तीन ही सदस्य थे और अब हम चालीस सदस्य हैं । हम अपने कर्मचारियों को अधिक से अधिक सुविधाएं दे रहे हैं । हमारे पास प्रति सप्ताह पांच कार्य दिवस हैं । हमारे यहाँ हर महीने के अंत में एक पार्टी होती है । हम प्रत्येक कर्मचारी का जन्मदिन एक साथ मनाते हैं । हम उन्हें पुरस्कार आदि देते हैं और खुश रखने के लिए हम हर साल चार-पांच दिनों के लिए  वार्षिक यात्रा भी आयोजित करते हैं ।


4. प्रश्न – आपकी कंपनी को आरंभ करने का श्रेय किसे जाता है, इसके लिये आपको किसका सहयोग मिला ? उनके  बारे में कुछ क्या कहना चाहेंगे आप ?


उत्तर – मैं इसका श्रेय अपने बिजनेस पार्टनर, माता-पिता और अपनी पत्नी को दूंगा जिन्होंने मुझे बहुत प्रोत्साहित किया ।


5. प्रश्न – आपके समक्ष आईटी कंपनी प्रारंभ करने के समय क्या-क्या समस्याएं आईं थीं ?


उत्तर – हमें विशेष रूप से वित्त से संबंधित बहुत सारी समस्याओं का सामना करना पड़ा था । हमने एक ग्राहक के आधार पर कार्यालय खोला और पहले ही दिन उस ग्राहक ने हमें छोड़ दिया । वह समय हमारे लिए बहुत कठिन था जिसे मैं जीवन भर  कभी नहीं भूलूंगा  l


6. प्रश्न – क्या आपका आईटी कंपनी का कार्य चुनाव आपकी भावनाओं/आशाओं के अनुरूप रहा है ?


उत्तर –  हाँ l


7. प्रश्न -  इस समय आपकी कंपनी को किन-किन समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है ?


उत्तर - वर्तमान में हम सेवा करने के लिए डेवलपर्स और डिजाइनरों की बहुत कमी का सामना कर रहे हैं क्योंकि अधिकांश युवा अपना स्टार्टअप खोलने की कोशिश कर रहे हैं ।


8. प्रश्न - चंडीगढ़ में ऐसी कौन-कौन सी कंपनियां हैं जो युवाओं को स्वरोजगार आरंभ करने के लिये प्रेरित कर रही  हैं ?


उत्तर – ट्राई सिटी में बहुत सारी कंपनियाँ हैं जो युवाओं को अपना स्टार्टअप शुरू करने के लिए प्रोत्साहित करती हैं l


9. प्रश्न - आपकी आईटी कंपनी क्या कार्य करती है, इस समय उसकी कितनी शाखायें/उपशाखाएं उपलब्ध हैं ?


उत्तर – हम वेब डिजाइनिंग, डेवलपमेंट और एसईओ करते हैं । वर्तमान में हमारे पास केवल एक शाखा है और दुनिया भर में सेवा कर रही है l
10. प्रश्न – आप सीईओ की दृष्टि में एक अच्छी आईटी कंपनी कैसी होनी चाहिए ?
उत्तर – सफल होने के लिए आपको पहले अपने ग्राहकों की ज़रूरतों को समझना होगा, सीमाओं को तोड़ना होगा और उन्हें अपने पास सबसे अच्छा समाधान देना होगा । कंपनी और ग्राहक के बीच एक आपसी समझ अपरिहार्य है क्योंकि इससे आपको अपने प्रोजेक्ट लक्ष्यों पर ध्यान केंद्रित करने में मदद मिलेगी और आप जो कुछ भी करते  हैं, उसमें सर्वश्रेष्ठ प्रदान करेंगे ।


11. प्रश्न - भविष्य में अपनी आईटी कंपनी का विस्तार करने की आपकी भावी मनसा/योजना क्या है ?


उत्तर - हम टीम का विस्तार करने की योजना बना रहे हैं और भविष्य में अपनी कंपनी को मल्टी नेशन कंपनी बनाना चाहेंगे ताकि हम बेरोजगार युवाओं को रोजगार दे सकें l


12. प्रश्न – जैसे कि आपने भी देखा है - आज का नवयुवावर्ग दिन-प्रतिदिन दिशाहीन, लक्ष्यहीन होता जा रहा है l वह दुर्व्यसनों का भी शिकार हो रहा है l आप आईटी कंपनी के एक सीईओ होने के नाते अपने मार्ग से  भटके हुए उन नवयुवाओं को क्या संदेश देना चाहते हैं ?


उत्तर - मैं नवयुवाओं को जीवन के सकारात्मक पक्ष के बारे में सोचने का सुझाव देना चाहूंगा। आज की दुनिया पूरी तरह से डिजिटलाइजेशन की ओर बढ़ रही है, इसलिए हमें इसका हिस्सा बनना होगा । बेहतर होगा कि वे प्रौद्योगिकियों की ओर आएं और उन्हें अपनाएं जो उन्हें भविष्य में फलदायी परिणाम देंगी l


चेतन कौशल "नूरपुरी"

                                                    

जय भारत देश महान

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आलेख - राष्ट्रीय भावना दैनिक जागरण 18 अगस्त 2007 
वह भारत का स्वर्णयुग ही था जब देश का कोई भी नौजवान अपने बल, साहस, सुझबुझ और विद्या-ज्ञान आदि गुणों से सदैव परिपूर्ण रहता था l इसी कारण वह स्थानीय क्षेत्र से बढ़कर राष्ट्रीय, अंतर्राष्ट्रीय और समस्त विश्व स्तर पर भी पहुँच जाता था l वहां वह अपनी अद्भुत प्रतिभा और अपार प्रभावी क्षमताओं के कारण जाना-पहचाना जाता था l 

उसका अपेक्षित संकल्प पूजनीय माता-पिता व् गुरु को कभी शारीरिक अथवा मानसिक कष्ट पहुँचाने वाला नहीं होता था l उसकी अपनी कोई भी स्वार्थपूर्ण भावना प्यारे बहन भाई को बलात पीड़ा अथवा क्षति पहुँचाने वाली नहीं होती थी l उसका कोई भी विचार किसी व्यक्ति, जाति, वंश, मत, पंथ, सम्प्रदाय का ही नहीं बल्कि किसी भाषा, स्थानीय क्षेत्र, समाज और राष्ट्र के लिए भी कल्याणकारी होता था l वह सदैव वाद-विवाद से ऊँचा उठकर स्थानीय क्षेत्र, समाज और राष्ट्र की एकता एवंम अखंडता बनाये रखने में सहायक होता था l उसकी वाणी से कदाचित दूसरों का मन आहत और व्यथित नहीं होता था l वह किसी की उन्नति से घृणा, अथवा द्वेष नहीं करता था बल्कि उससे प्रेरणा और सहयोग लेकर अपने सन्मार्ग पर आगे बढ़ने का निरंतर प्रयास किया करता था l उसका अपना हर आचार-व्यवहार सर्व सुख-शांति प्रदाता होता था l वह वन सम्पदा, समस्त जीव जंतुओं और प्राकृतिक सौन्दर्य से भी उतना ही अधिक प्रेम किया करता था जितना कि अपने परिवार से l उसके दोनों हाथ सदैव किसी असहाय, पीड़ित, अपाहिज, बाल, वृद्ध रोगी, नर-नारी की निस्वार्थ सेवा सुश्रुसा और सहायता हेतु हर समय तत्पर रहते थे l उसका आहार सदैव बलवर्धक और पौष्टिकता से भरपूर रहता था l उसके पराक्रमी साहस के समक्ष स्थानीय क्षेत्र, समाज और राष्ट्र विरोधी तत्व भूलकर भी कोई अपराध करने का दुस्साहस नहीं कर पाते थे l इसी कारण स्थानीय क्षेत्र, समाज और राष्ट्र में सब ओर सुख-शांति और समृद्धि होने से भारत विश्व में सोने की चिड़िया के नाम से सर्व विख्यात हुआ था l


आइये ! हम सब मिलकर आज कुछ ऐसा कर दिखाएँ कि जिससे भारत को उसका पुरातन खोया हुआ हुआ गौरव फिर से प्राप्त हो सके और विश्वभर में ये प्यारा संगीत सदा अनवरत, अविरल चहुँ ओर गूंजता रहे ---- “जय भारत देश महान , ऊँची तेरी शान----- ऊँची तेरी शान l”

चेतन कौशल “नूरपुरी”
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