मानवता

मानवता सेवा की गतिविधियाँ

पुरालेख (page 24 of 164)

सर्वोत्तम वरदान

अनमोल वचन :-# अच्छा स्वास्थ्य एवंम अच्छी समझ जीवन में दो सर्वोत्तम वरदान है l *
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आचरण शुद्धता

अनमोल वचन :-# आचरण की शुद्धता ही व्यक्ति को प्रखर बनाती है l*
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अनीति मार्ग

अनमोल वचन :-# अनीति के रास्ते पर चलने वाले का बीच राह में ही पतन हो जाता है l*
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व्यक्ति परिचय

अनमोल वचन :-# दो चीजें आपका परिचय कराती हैं : आपका धैर्य, जब आपके पास कुछ भी न हो और...
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प्रभु की समीपता

अनमोल वचन :-# धर्यता और विनम्रता नामक दो गुणों से व्यक्ति की ईश्वर से समीपता बनी रहती है l*
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उच्च विचार

अनमोल वचन :-# दिनरात अपने मस्तिष्क को उच्चकोटि के विचारों से भरो जो फल प्राप्त होगा वह निश्चित ही अनोखा...
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मुस्कराना

अनमोल वचन :-# मुस्कराना, संतुष्टता की निशानी है इसलिए सदा मुस्कराते रहो l*
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प्रभु कृपा

अनमोल वचन :-# सच्चाई, सात्विकता और सरलता के बिना भगवान् की कृपा कदापि प्राप्त नहीं की जा सकती l*
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जीवन महत्व

अनमोल वचन :-# आप अपने जीवन का महत्व समझकर चलो तो दूसरे भी महत्व देंगे l*
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जीवन महत्व

अनमोल वचन :-# आप अपने जीवन का महत्व समझकर चलो तो दूसरे भी महत्व देंगे l*
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क्या स्वराज ही लोकराज की इकाई है ?

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आलेख - स्वराज  कश्मीर टाइम्स  8.11.1996

जब कभी हम एकाकी जीवन में निराशा अनुभव करते हैं तब उस समय हमारी ऐसी भी भावना पैदा हो जाती है कि चलो कहीं किसी सज्जन के पास हो आयें या कहीं किसी रमणीय स्थल पर घूम आयें l यही नहीं हम थोड़ी देर पश्चात् वहां चल भी देते हैं l ऐसा क्यों होता है ? यहाँ पहले हम इसी बात पर विचार करेंगे l

जब हम अपने घर से बाहर निकलते हैं तो उससे कुछ समय पूर्व जहाँ हमने जाना होता है, उस स्थान का दृश्य हमारे मानस पटल पर उभरता है l


वह कोई गाँव होता है या शहर, व्यक्ति होता है या जन सभा l सिनेमा घर होता है या कोई अन्य स्थान l उसका हमारे साथ अपना कोई पुराना संबंध होता है या हमने उससे नया ही संबंध बनाना होता है l वह हमारा पुराना संबंध हो या नया, पुराने के साथ पुरातन और नये साथ नवीनतम संबंध के आकर्षण का ही समावेश होता है l भावना के अनुसार किसी वाधा के कारण जब कभी ऐसा न हो सके तो हमें अशांति का ही मुंह देखना पड़ता है l


जब हममें से कोई व्यक्ति किसी दूरस्थ महानुभाव से मिलता है तो वह उससे उसकी दो बातें सुनता है जबकि अपनी चार सुनाता भी है l ऐसा मात्र ख़ुशी के समय में या विचार विमर्श के समय में ज्ञान के आधार पर होता है l परन्तु जब वहां रोगी होता है तो उस समय आगंतुक अपनी कोई बात न करके मात्र रोगी की द्वा-दारु, सेवा-श्रुषा या उसके स्वास्थ्य से संबंधित बातें करता है l इस प्रकार किन्हीं दो प्रेमियों में उनका प्रेम ही नहीं बनता है बल्कि बढ़ता भी है l वह एक दुसरे से बात कह, सुनकर अपना दुःख-सुख आपस में बाँट लेते हैं l


नेता के रूप में जब कभी हम में से किसी व्यक्ति को किसी जन सभा में बोलने का सुअवसर मिलता है तो वह तब तक बोलता है जब तक सुनने वालों का झुकाव उसके भाषण की ओर रहता है l वह भाषण का आनंद लेते हैं l सिनेमा या रमणीय स्थलों को देखने वाला कोई भी प्रेमी महानुभाव तो उसे देखता ही रहता है l जब वह उन्हें देखकर लौटता है तब राह में या उसके घर में मिलने वालों के साथ वह अपनी पसंद के दृश्यों के बारे में बातें करता है कि उसे वहां क्या अच्छा लगा और क्यों ? तब उसे मिलने वाले उसकी बात का अनुमोदन करते हैं या कोई तर्क देकर ही उसे समझाते हैं l


बाढ़, सुखा, आकाल, अग्निकांड, भूकंप जैसे दुखद समय में आस-पड़ोस, गाँव, शहर और राष्ट्र की यही एक भावना होती है कि किसी तरह पीड़ा ग्रस्त लोगों का दुःख दूर हो l वे यथा शक्ति तन, मन से धन, विस्तर, वस्त्र का दान देकर उनकी सहायता करते हैं l


युद्ध काल में किसी राष्ट्र, समाज के हर व्यक्ति की यही एक भावना होती है कि किसी तरह शत्रु पक्ष हार जाये और उसके अपने ही पक्ष की जीत हो l


विश्व में हर महानुभाव का मन उसका अपना मन होता है l इस कारण विभिन्न मन के स्वामियों की आपनी-अपनी आस्थायें होती हैं l वह आस्थायें सुख के समय भले ही अलग-अलग हों पर दुःख के समय पर वे सब एक समान हो जाती हैं l उस समय ऐसा भी लगने लगता है मानों चारों ओर से ऐसा सुनाई दे रहा हो कि हमें इसी समानता को सदैव स्थिर बनाये रखना है l इसलिए कि हम किसी का दुःख बाँट सकें l दुखिया भी दुःख से राहत अनुभव कर सके l दुखियों तक सुख-सुविधाएँ पहुँच सकें l वे भी सुख का आनंद ले सकें l वे यह जान सकें कि उन्हें दुखी ही नहीं रहना है, वह भी सुखी हो सकते हैं l यह सत्य है कि अगर हम ऐसा कुछ करते हैं तो हमें अपने राष्ट्र, समाज और परिवार का सदस्य कहलाने का अधिकार स्वयं ही प्राप्त हो जाता है l


मन के अधीन रहना हर मानव का अपना स्वभाव है l मन का स्वामी बनने के लिए उसे अभ्यास या वैराग्य की शरण लेनी होती है, कड़ी मेहनत करनी पड़ती है l अपनी पवित्र भावना, सद्गुण और संस्कारों के विपरीत अन्य कार्य किया जाना उचित नहीं है l इसी बात को ध्यान में रखकर जिन-जिन महानुभावों के द्वारा पवित्र लोकतंत्र की कल्पना और उसकी पुनर्स्थापना की गई है, उसका संबंध स्वराज ही से है जिसका नियंत्रण अंतरात्मा से होता है l


स्वराज्य का अर्थ है – अपने शरीर पर अपना राज्य l यह कार्य अपनी सजगता, सतर्कता, तत्परता और अपनी सुव्यवस्था द्वारा संचालित होता है l स्व तथा राज्य इन दोनों शब्दों के आपसी मेल से तो अर्थ स्पष्ट है ही पर इसे यहाँ और स्पष्ट करने की नितांत आवश्यकता है l


बुद्धि के द्वारा मन को अपनी दस इन्द्रियों के विषयों से बचाना जिनसे कि मन अपने पांच अश्व रूपी विकारों पर चढ़कर पल-पल में पथ-भ्रष्ट होता रहता है, बुद्धि को भी भ्रमित कर देता है – इन्द्रिय दमन कहलाता है यह क्रिया मन को इन्द्रियों के विषयों में भागीदार न बनाने से होती है l बुद्धि द्वारा मन की बहुत सी इच्छाओं पर नियंत्रण करके या उनका त्याग करके किसी एक अति बलशाली इच्छा को ही पूर्ण करने का योगाभ्यास करने से मनोनिग्रह होता है l इससे मन की भटकन समाप्त होती है l उसे कोई एक कार्य करने के लिए असीमित बल मिल जाता है जिसमें वह मग्न रहता है और उसे सफलता भी मिलती है l


अंत में हमें अपनी बुद्धि का भी जो कभी-कभी मन के विकारों में फंसकर चंचल हो जाती है, उसे स्थितप्रज्ञ बनाये रखने के लिए अपनी आत्मा का ही सहारा लेना चाहिए l उसे आत्म-चिंतन के रूप में मग्न रखना आवश्यक है l अन्यथा विषयों और विकारों का बुद्धि द्वारा चिंतन होने से स्वराज्य या आत्मा का अपना प्रशासन भ्रष्ट होने लगता है l उसकी सुव्यवस्था और सुरक्षा के लिए स्थिर बुद्धि ही की आवश्यकता पड़ती है l हमें अपनी बुद्धि को स्थिर बनाये रखने के लिए सतत प्रयत्नशील रहना चाहिए l इसके लिए हमें सत्संग अर्थात जो सत्य है – उसकी संगत करना अनिवार्य है l सत्संग करने से सत्य की भावना, सत्य की भावना से सत्य विचार, सत्य विचारों से सत्कर्म और सत्कर्मों से निकलने वाला परिणाम भी सत्य ही होता है l इससे नैतिक शक्ति को बल मिलता है l


वर्तमान काल में स्वराज्य के साथ – साथ लोकराज को भी जोड़ दिया गया है अर्थात आत्म सयंम द्वारा संचालित समाज की भलाई l स्वराज्य में कोई भी व्यक्ति स्वयं का निर्माता, पालक और संहारक भी होता है l उसे अपने लिए करना क्या है ? यह निर्णय पर पाना उसकी अपनी बुद्धि पर निर्भर करता है l लोकराज तो बहुत लोगों का जनसमूह है जिसमें विभिन्न अंतरात्माओं के द्वारा सर्वसम्मत भिन्न-भिन्न कार्य करने की व्यवस्था होती है जो मात्र स्वतन्त्रता पर आधारित होती है l


अगर कभी किसी प्रकार की कोई त्रुटि लोकराज्य में आ जाती है तो हमें स्वराज्य ही का निरीक्षण करना चाहिए l अगर स्वराज्य दोषपूर्ण है तो लोकराज में दोष का आना स्वभाविक ही है l लोकतंत्र को दोषमुक्त बनाये रखने के लिए स्वराज्य या आत्म नियंत्रित प्रशासन व्यवस्था पर कड़ी दृष्टि रखना आवश्यक है l ऐसा किये बिना न तो स्वराज्य और न ही लोकतंत्र की सुरक्षा सुनिश्चित रह सकती है l भ्रष्टाचार फ़ैलने और अव्यवस्था होने का मात्र यही एक कारण है l यह सब व्यक्ति और समाज की व्यवहारिक बातें हैं जिनका उन्हें ध्यान रखना अनिवार्य है l

चेतन कौशल “नूरपुरी”

कब तक होती रहेगी राजभाषा की अनदेखी

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आलेख – संस्मरण कश्मीर टाइम्स 9.11.2008

क्या हिंदी “हिन्द की राजभाषा” को व्यवहारिक रूप में जन साधारण तक पहुँचाने में कोई बाधा आ रही है ? अगर हाँ तो हम उसे दूर करने में क्या प्रयास कर रहे हैं ? इस प्रश्न का उत्तर ढूंढना ज्यादा जरूरी है l

मुझे भली प्रकार याद है, दिनाक 29 फरवरी 2008 का दिन था l मैं अपार जन समूह में लघु सचिवालय धर्मशाला की सभागार में बैठा हुआ अति प्रसन्न था l मुझे वहां पहली वार बैठने का अवसर मिला था l हम सब वहां पर आयोजित केन्द्रीय भूजल बोर्ड व सिंचाई एवंम जन स्वास्थ्य विभाग (हि०प्र०) के अधिकारियों/कर्मचारियों की संयुक्त बैठक में भाग लेने गए हुए थे जिसकी अध्यक्षता सिंचाई एवंम जन स्वास्थ्य मंत्री ने की थी l


सभागार में हर कोई खामोश, कार्रवाई प्रारम्भ होने की प्रतीक्षा कर रहा था l राज्य के सिंचाई एवंम जन स्वास्थ्य मंत्री माननीय रविन्द्र रवि जी और चिन्मय स्वामी आश्रम संस्था की निदेशिका डा० क्षमा मैत्रय जी, के आने के पश्चात् सभागार की कार्रवाई शुरू हुई और हमारे कान खड़े हो गए l आरम्भ में, सिंचाई एवंम जन स्वास्थ्य मंत्री माननीय रविन्द्र रवि जी और चिन्मय स्वामी आश्रम संस्था की निदेशिका डा० क्षमा मैत्रय जी, के संभाषण से भारतीयता की झलक अवश्य दिखाई दी l दोनों के संबोधन/भाषण हिंदी भाषा में हुए जिनमें देश के गौरव की महक आ रही थी l


मुझे पूर्ण आशा थी कि भावी कार्रवाई भी इसी तरह चलेगी परन्तु विलायती हवा के तीव्र झोंके से रुख बदल गया और देखते ही देखते सभागार से हिंदी भाषा सूखे पीपल के पत्ते की भान्ति उड़कर अमुक दिशा में न जाने कहाँ खो गई l जिसका वहां किसी ने पुनः स्मरण तक नहीं किया – जो भी बोला, जिस किसी ने किसी से पूछा या जिसने कहा, मात्र अंग्रेजी भाषा में ही था l

उस समय मुझे ऐसा लगा मानों हम सब लधु सचिवालय धर्मशाला की सभागार में नहीं बल्कि ब्रिटिश संसद में बैठे हुए कार्रवाई देख रहे हों, अंतर मात्र इतना था कि हमारे सामने गोरे अंग्रेज नहीं बल्कि काले अंग्रेज – स्वदेशी अपने ही भाई थे l वो समाज को बताना चाहते थे कि वे गोरे अंग्रेजों से कहीं अधिक बढ़िया अंग्रेजी भाषा बोल और समझ सकते हैं l उनकी अंग्रेजी भाषा, हिंदी भाषा से ज्यादा प्रभावशाली है l अंग्रेजी भाषा में उनका ज्ञान देश की आम जनता आसानी से समझ सकती है l मुझे तो वहां अंग्रेजी साम्राज्य की बू आ रही थी – भले ही वह भारत में कब का समाप्त हो चुका था l


अंग्रेजी भाषा का ज्ञान होना कोई बुरी बात नहीं है l उसे बोलने से पूर्व देश, स्थान और श्रोता का ध्यान रखना ज्यादा जरूरी है l वह लघु सचिवालय अपना थल वहां बठे सभी लोग अपने थे फिर भी वहां सबके सामने राजभाषा हिंदी की अवहेलना और अनदेखी हुई l बोलने वाले लोग हिंदी भूल गए, जग जान गया की सचिवालय में राजभाषा हिंदी का कितना प्रयोग होता है और उसे कितना सम्मान दिया जाता है !


ऐसा लगा मानों सचिवालय में मात्र दो महानुभावों को छोड़कर अन्य किसी को हिंदी या स्थानीय भाषा आती ही नहीं है l हाँ, वे सब पाश्चात्य शिक्षा की भट्टी में तपे हुए अंग्रेजी भाषा के अच्छे प्रवक्ता अवश्य थे l वे अंग्रेजी भाषा भूलने वाले नहीं थे क्योंकि उन्होंने गोरे अंग्रेजों द्वारा विरासत में प्रदत भाषा का परित्याग करके उसका अपमान नहीं करना है l वे हिंदी भाषा बोल सकते थे पर उन्होंने सचिवालय में राजभाषा हिंदी का प्रयोग करके उसे सम्मानित नहीं किया, कहीं उनसे गोरे अंग्रेज नाराज हो जाते तो ---!


भारत या उसके किसी राज्य का चाहे कोई लघु सचिवालय हो या बड़ा, राज्य सभा हो या लोकसभा अथवा न्यायपालिका वहां पर होने वाली सम्मानित राजभाषा हिंदी में किसी भी जनहित कार्रवाई, बातचीत अथवा संभाषण के अपरिवर्तित मुख्य अंश मात्र उससे संबंधित विभागीय कार्यालय या अधिकारी तक सीमित न होकर ससम्मान राष्ट्र की विभिन्न स्थानीय भाषाओँ में, उचित माध्यमों द्वारा जन साधारण वर्ग तक पहुँचाने अति आवश्यक हैं l उनमें पारदर्शिता हो ताकि जन साधारण वर्ग भी उनमें सहभागीदार बन सके और सम्मान सहित जी सके l उसके द्वारा प्रदत योगदान से क्या राष्ट्र का नवनिर्माण नहीं हो सकता ? उसका लोकतंत्र में सक्रिय योगदान सुनिश्चित होना चाहिए जो उसका अपना अधिकार है l इससे वह दुनियां को बता सकता है कि भारत उसका भी अपना देश है l वह उसकी रक्षा करने में कभी किसी से पीछे रहने वाला नहीं है l

चेतन कौशल “नूरपुरी”

आर्य जन

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सशक्त समाज 

# हम सब आर्य पुत्र/पुत्रियाँ हैं, हमें अपने देश भारत पर गर्व है l*

# हम आर्यों का राष्ट्र – “आर्यावर्त” ही महान “अखंड भारत” है l*


# हम आर्यों का राष्ट्र - गांवों का देश, हमारी कर्म भूमि है l*


# हम आर्यों के गाँव की संपदा - जल, जंगल और जमीन हम सब आर्यों का हित करने वाली है l*


# ग्राम्य संपदा का लंबे समय तक उपयोग करने के लिए, उसका संरक्षण, पोषण, संवर्धन करना हम आर्यों का दायित्व है l*


# माता - पिता, गुरु, गंगा, गौ, गीता, पति, वृद्ध, ब्राह्मण, संत और अतिथि की सेवा, रक्षा करना हम आर्यों दायित्व है l*


# समग्र प्रकृति की सृजनहार स्वयं माँ जगदंबा हैं l माँ जगदंबा की कृपा से समग्र प्रकृति का दिया हुआ हम आर्यों के पास सब कुछ है l*


# प्राकृतिक संसाधनों का सुनियोजित ढंग से दोहन करके अभाव ग्रस्तों तक पहुंचाना और उनकी तन, मन, धन से सेवा करना हम सब आर्यों का कर्तव्य है l*


# हम सब आर्य हैं जो ज्ञान में ब्राह्मण भाव, वीरता में क्षत्रिय भाव, व्यापार में वैश्य भाव और सेवा में शुद्र भाव रखते हैं,, हाँ, हाँ हम ही आर्य हैं l*


# हम आर्यों ने कर्माधारित वर्ण व्यवस्था को जन्माधारित जातियां समझने की भूल कर दी, वरना विश्व हमें आर्य संबोधन से पहचानता था l*
# देश में जब तक पाश्चात्य शिक्षा जारी रहेगी तब तक युवा आर्य नौकर ही बनेंगे, लेकिन जब उन्हें परंपरागत वैदिक शिक्षा मिलेगी वे नौकर नहीं, फिर से स्वामी बन जायेंगे l*


# हम सब आर्य हैं, इसलिए हम सब एक हैं l*


# अगर 30 करोड़ का पाकिस्तान इस्लामिक देश बन सकता है तो 100 करोड़ आर्यों का भारत भी दृढ़ राजनैतिक इच्छा शक्ति से पुनः आर्यवर्त हो सकता है l*


# आर्य बिना कारण किसी का अहित नहीं करता है, कोई उसे छेड़ता है तो वह उसे कभी छोड़ता भी नहीं है l*


# दुश्मन, कभी आर्यों का हित नहीं चाहता है, वह उनके विरुद्ध हर समय कोई न कोई षड्यंत्र रचता रहता है l*


# आर्य की किसी के प्रति दुर्भावना नहीं हो सकती और दुश्मन की आर्यों के प्रति कभी सद्भावना नहीं होती है l*


# आर्य ही देश, धर्म – संस्कृति और सभ्यता के प्रति सजग और सतर्क रह सकते हैं l*


# आर्य धर्मयोद्धा ही देश, धर्म - संस्कृति की आन, वान और शान हैं l*


# आर्य भारत के वंशज थे, वंशज हैं और वंशज ही रहेंगे l*


# भारत भूमि की रक्षा हेतु जीवन समर्पित करने वाला हर बलिदानी, क्रन्तिकारी आर्य है, हमें उस पर गर्व है l*


# देश, धर्म – संस्कृति और सभ्यता की रक्षा हेतु खड़ा होने वाला हर व्यक्ति धर्म योद्धा आर्य है l*

चेतन कौशल "नूरपुरी"

जल संकट और उसका समाधान

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आलेख – हमारा पर्यावरण मातृवन्दना आगस्त 2019 
भारत पाक विभाजन के पश्चात् बंगलादेशी और रोहिंग्या शरणार्थी मुसलमानों का भारत में तेजी के साथ आगमन हुआ है l मुसलमानों में बहु विवाह करने, अनेकों पत्नियाँ रखने और हर पत्नी से दर्जनों बच्चे पैदा करने की परंपरा, का आज भी प्रचलन जारी है l इस कारण छह-सात दशकों से देश के राज्यों में उनकी जनसंख्या टिड्डी दल की भांति बड़ी तीव्र गति से बढ़ी है, जब कि हिन्दुओं की जनसंख्या में निरंतर कमी आई है l इस तरह देश के कई राज्य जिनमें कभी हिन्दू बहु-संख्यक थे, अब अल्प संख्यक हो गये हैं l

निरंतर जन संख्या के बढ़ने, उचित मात्रा में इमारती और फलदार पोध-रोपण न हो पाने, लोगों को रहने के लिए स्थान कम पड़ने के कारण सबके लिए मकान तथा सड़क निर्माण हेतु बार-बार अनगिनत पेड़ों के कटने से जंगलों का वृत्त सिमटता जा रहा है l बहुत से जंगली जीव लुप्तप्राय हो गये हैं अथवा लुप्त होने के कगार पर पहुँच गए हैं l इससे पर्यावरण में असंतुलन पनपा है l वन्य जीव-जन्तु व वन्य संपदा निरंतर अभाव की ओर अग्रसर है l


देशभर में तेजी से शहरीकरण और सडकों का निर्माण होने के कारण धरती की सतह सीमेंट व तारकोल से ढकती जा रही है जिससे वर्षा जल का बहुत सा भाग किसी नाली, नाला, या नदी में बेकार बह जाने से भूमि में प्रवेश नहीं हो पाता है l हाँ असंख्य नलकूपों से पानी अवश्य निकाला जाता है, पर कहीं कृत्रिम भू-जल पुनर्भरण नाम मात्र ही होता है l निर्माण कार्य हेतु खनिजों की आपूर्ति के लिए नदी, नालों से खनिजों का दिन-रात भारी मात्रा में खनन जारी है जिससे उनमें निरंतर गहराई बढ़ रही है l बदले भु-जल स्रोत प्रभावित हो रहे हैं और क्षेत्रीय भू-जल संकट बढ़ रहा है l


धरती के तापमान में निरंतर वृद्धि होने से वर्षभर जल आपूर्ति करने वाले ग्लेशियर, हिमनद, दिनों दिन पिघल ही नहीं रहे हैं, सिकुड़ भी रहे हैं l बारहमासी बहने वाली परंपरागत झीलें, झरने, नदियां और नहरें जो देश के लिए जल की आपूर्ति किया करती थीं, के जलस्तर में भारी कमी आई है l हर वर्ष गर्मी बढ़ने से प्राकृतिक जल स्रोत सूखते एवं सिकुड़ते जा रहे हैं l


ग्लेशियर, हिमनद, नदियाँ और नहरें जैसे सतही जल स्रोत जो वर्षभर निरंतर प्रवाहित होते थे, उनसे तालाब, कूप, डैम और नहरों का जल-स्तर पर्याप्त मात्रा में भरा रहता था l मानव के द्वारा आधुनिकता की अंधी दौड़ में पर्यावरण के साथ अनुचित छेड़-छाड़ करने से उसका सौन्दर्य बिगड़ा है l आवश्यकता है प्राकृतिक जल स्रोतों का अस्तित्व बचाने की, उन्हें निरंतर सक्रिय बनाये रखने की l आज इनके अस्तित्व पर संकट के बादल छाने के पीछे मानव की महत्वाकांक्षा और पर्यावरण के प्रति उसकी उपेक्षा का हाथ स्पष्ट रूप से दिखाई दे रहा है l मनुष्य तीव्र गर्मी से राहत पाने के लिए जब-जब पहाड़ी क्षेत्रों की शीतल हरी-भरी बादियों, उनके रमणीय स्थलों की ओर भ्रमण करने निकलता है तो वह वापसी के दौरान वहां ढेरों गंदगी – पालीथीन लिफ़ाफ़े, प्लास्टिक बोतले और उनसे संबंधित अन्य कचरा भी छोड़ आता है जो पर्यावरण के लिए बड़ा घातक सिद्ध होता है l निर्माण कार्य करने, जीव जंतुओं को पीने के लिए, साफ-सफाई रखने और खेत, पेड़-पौधों की सिंचाई करने के लिए शुद्ध सतही जल ही काम आता है l मनुष्य को प्राकृतिक जल स्रोतों के किनारों पर साफ-सफाई का ध्यान रखना, फलदार और इमारती लकड़ी की पौध लगाना और उसके प्रति स्वयं जागरूक रहना अति आवश्यक है l


बंगलादेशी और रोहिंग्या शरणार्थी मुसलमानों की जन संख्या बढ़ने से भू-जल की मांग बढ़ी है l उससे अंधाधुध भू-जल दोहन होने लगा है l प्रदुषण फैल रहा है l निरंतर खनन होने व वन्य संपदा में कमी आने से जंगलों का वृत्त सिकुड़ रहा है l संतुलित वर्षा न हो पाने के कारण भी शुद्ध भू जल स्तर में कमी आ रही है l ऐसे में - कूप, नल कूप, नल, हस्त चालित नल, और बावड़ियाँ अपना-अपना अस्तित्व खो रहे हैं l सृष्टि में स्वच्छ जल की निरंतर हो रही कमी के कारण प्राणियों का जीवन संकट ग्रस्त है l


हमें जल उपयोग करने के लिए कठोर नियमों का पालन करना आवश्यक हो गया है l इसलिए नल या भू-जल का उपयोग समय पर और परिवार की आवश्यकता अनुसार ही करें l घर या सार्वजनिक नल अथवा भू-जल पाइप कभी लीक न होने दें l परिवार के सदस्य घर अथवा सार्वजनिक स्थलों पर सदैव बाल्टी और माघ से ही स्नान करें l जूठे वर्तनों और घर की साफ-सफाई तथा कपड़ों की धुलाई सदैव संग्रहित जल से ही करें l निर्माण कार्य हमेशा सतही जल- किसी झील, झरना, जलाशय, तालाब कूप, नदी या नहर से ही करें l ऐसा करने से हमें भूजल बचाने में कुछ लम्बे और अधिक समय तक सहायता अवश्य मिल सकती है l
हमारा भारत मुख्यतः छः ऋतुओं का देश है l उनमें वर्षा ऋतु का अपना ही महत्व है l आज देश भर में स्थिति ऐसी हो गई है कि कहीं वर्षा होती है तो कहीं होती ही नहीं है l जहाँ वर्षा होती है, वहां इतनी ज्यादा और भयानक होती है कि बाढ़ आ जाती है और वह अपने साथ जन, धन, सब कुछ बहाकर ले जाती है l यह सब अचानक इतनी जल्दी होता है कि किसी को अपनी स्थिति संभालने का समय भी नहीं मिलता है l जलधारा सायं-सायं करती हुई नाली, नाला, नदी का रूप धारण कर पहाड़ से जंगल और मैदान की ओर बढ़ जाती है l वह पहाड़ से निकलकर जलाशय की ओर बहती है और फिर सागर से मिलकर एकाकार हो जाती है l उसे तो बस बहना है l वर्षा जल आंधी बनकर आता है और तुफान् बनकर आगे बढ़ जाता है l इस तरह वह तीव्रगामी जलधारा धरती को विनाश के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं देती है l उससे कहीं भी भू-जल पुनर्भरण नहीं होता है l


भूजल बैक निरंतर खाली होता जा रहा है l इसका मुख्य कारण यह है कि हम भूजल बैंक से निरंतर अंधाधुंध जल दोहन किये जा रहे हैं पर उसमें कभी क़िस्त नहीं डालते हैं, कभी भी जल संग्रहण करने का प्रयास नहीं करते हैं l हमें जलस्तर में वृद्धि करनी होगी l जल संचयन करने हेतु परंपरागत बावड़ी, कूप, तालाब, जलाशयों का संरक्षण एवं उनका नव निर्माण करना होगा l खेत का पानी खेत में रहे, उसे वहीं रोककर, नदियों को स्वच्छ बनाकर, पर्यावरण का प्रदूषण भी हटाना होगा और सदाबहार नदी या नालों के जल को डैम या चैकडैम में बाँधकर तथा हर घर की छत के वर्षाजल का पाइप द्वारा भूमि में कृत्रिम भूजल पुनर्भरण करना होगा l भारत में मुस्लिम समुदाय की टिड्डी दल की भांति बढ़ रही जन संख्या पर नियंत्रण रखना होगा l इसके साथ ही साथ हमें हर वर्षा काल में अपने खेतों की मेड़ों पर तथा खाली पड़ी सरकारी और गैर सरकारी भूमि पर इमारती एवं फलदार पौध लगानी होगी l वर्षभर उनका पोषण करना होगा ताकि भावी पीढ़ियों के लिए प्राकृतिक जंगल और वन्य संपदा को लम्बे समय तक बचाया जा सके l
मनवा प्यासी धरती करे पुकार, सुरक्षित भूजल भंडार सबका करे उद्दार l

चेतन कौशल “नूरपुरी”

जागेगा स्वाभिमान जमाना देखेगा

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आलेख – राष्ट्रीय भावना मातृवंदना जनवरी 2018 
प्राचीन काल से ही हमारा देश एक अध्यात्म प्रिय देश रहा है भारत के ऋषि-मुनियों का संपूर्ण जीवन ज्ञान-विज्ञान अनुसन्धान एवंम शिक्षण-प्रशिक्षण कार्य में व्यतीत हुआ है उन्होंने सनातन संस्कृति में मानव जीवन को ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और सन्यास जीवन चार श्रेणियों में विभक्त किया था l वे संपूर्ण मानव जाति के कल्याणार्थ व्यक्तिगत ध्यानस्थ होकर ईश्वर से प्रार्थना करते हैं – “हे प्रभु ! तू मुझे असत्य से सत्य की ओर ले चल l अँधेरे से उजाले की ओर ले चल l मृत्यु से अमरता की ओर ले चल l” उनका मानना है कि “आत्म सुधार करने से मानव जाति का सुधार होता है l” जीवन सब जीते हैं  पर जीवन जीना इतना सरल नहीं, जितना कि कहना l वह हर पल कष्ट, दुःख, कठिनाइयों और चुनौतियों से घिरा रहता है l   
मात्र विवेकशील मनुष्य समय और परिस्थिति अनुसार बुद्धि से निर्णय लेते हैं l वे भली प्रकार जानते हैं की संसार में जीवन नश्वर है l सुख-दुःख बादल समान हैं, वे आते हैं तो चले भी जाते हैं l वह जीवन में जनहित, समाजहित और राष्ट्रहित में कुछ नया करना चाहते हैं, जबकि अन्य मार्ग में आने वाली कठिनाइयों से बचने के लिए सरल एवंम लघु मार्ग ढूंढ़ते हैं l इस प्रकार दोनों की सोच दूसरे के विपरीत हो जाती है l मानव जीवन में फुलों भरा सरल एवंम लघु मार्ग ढूँढने वाले लोग मात्र मन की बात मानते हैं l वे उसी पर चलते हैं l वे नैतिकता और मानवता की तनिक भी प्रवाह नहीं करते हैं l
ऐसे लोगों के द्वारा स्थापित शिक्षा केन्द्रों के पाठ्यक्रमों में देश का इतिहास, वास्तविक इतिहास नहीं होता है l उसमें सच्ची घटनाओं का सदैव अभाव रहता है l समाज परंपरागत सभ्यता एवंम संस्कृति से कटता जाता है और वह धीरे-धीरे उसे भूल भी जाता है l वे सत्ता पाने के लिए नैतिकता के साथ-साथ मानवता को भी ताक पर रख देते हैं, वे व्यक्ति विशेष, परिवार-वंश की महिमा मंडित करते कभी थकते नहीं हैं l वे क्षेत्रवाद, जातिवाद, धर्म-संप्रदाय वाद को बढ़ावा देते हैं l इससे देश की एकता एवंम अखंडता कमजोर होती है l अपने हित के लिए दंगे करवाए जाते हैं l विवेकशील मनुष्य नैतिकता, मानवता और मान-मर्यादाओं को पसंद करते हैं l स्मरण रहे ! कि ऐसे ही लोगों के प्रयासों से हमारा भारत अखंड भारत “सोने की चिड़िया” बना था l वे निजी जीवन में जनहित, समाजहित और राष्ट्रहित में कष्ट, दुःख, कठिनाइयों और चुनौतियों से सीधा सामना करने की विभिन्न प्रतिज्ञाएँ करते हैं, वह विपरीत परिस्थितयों से लोहा लेने के लिए हर समय तैयार रहते हैं l उनके लिए सबका हित सर्वोपरी होता है l
उनके द्वारा संचालित विद्या केन्द्रों से बच्चों को अच्छी, संस्कारित, गुणात्मक एवंम उच्चस्तरीय शिक्षा मिलती है l उससे उनका चहुंमुखी विकास होता है l उनके प्रशासन की नीतियां सर्व कल्याणकारी होती हैं l उपरोक्त बातों से स्पष्ट हो जाता है कि समस्त मानव जाति के पास जीवन यापन करने के सरल या कठिन मात्र दो ही मार्ग होते हैं l एक मार्ग उसे पतन – असत्य, अन्धकार और दुःख-मृत्यु की ओर ले जाता है तो दूसरा उत्थान – सत्य, प्रकाश और सुख-अमरता की ओर l हमें किस मार्ग का अनुसरण करना चाहिए ? उसे हमारे लिए जानना और समझना अति आवश्यक है l


चेतन कौशल "नूरपुरी"


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