पुरालेख (page 38 of 164)
राष्ट्रीय भावना – 3
क्या हिंदी “हिन्द की राजभाषा” को व्यवहारिक रूप में जन साधारण तक पहुँचाने में कोई बाधा आ रही है ? अगर हाँ, तो हम उसे दूर करने में क्या प्रयास कर रहे हैं ? इस प्रश्न का उत्तर ढूंढना अति आवश्यक है l मुझे भली प्रकार याद है, दिनांक 29 फरवरी 2008 का वह दिन l मैं अपार जन समूह में लघु सचिवालय धर्मशाला की सभागार में बैठा हुआ अति प्रसन्न था l हम सब वहां पर आयोजित केन्द्रीय भूमि जल बोर्ड व सिंचाई एवं जन स्वास्थ्य अधिकारी व कर्मचारियों की संयुक्त बैठक में भाग लेने गए हुए थे l वहां पर विद्यमान गणमान्य अधिकारीयों की बैठक की अध्यक्षता सिंचाई एवं जन स्वास्थ्य मंत्री ने की थी l
सभागार में हर कोई खामोश, कार्रवाई प्रारम्भ होने की प्रतीक्षा कर रहा था l एकाएक वह शुरू हुई और हमारे कान खड़े हो गये l आरम्भ में, राज्य के सिंचाई एवं जन स्वास्थ्य मंत्री माननीय रविन्द्र रवि और चिन्मय स्वामी आश्रम, संस्था की निदेशिका डाक्टर क्षमा मैत्रेय के संभाषण से भारतीयता की झलक अवश्य दिखाई दी l दोनों के भाषण हिंदी भाषा में हुए जिनमें देश के गौरव की महक थी l मुझे पूर्ण आशा थी कि भावी कार्रवाई भी इसी प्रकार चलेगी परन्तु विलायती हवा के तीव्र झोंके से रुख बदल गया और देखते ही देखते सभागार से हिंदी भाषा सूखे पत्ते की तरह उड़कर अमुक दिशा में न जाने कहाँ खो गई l जिसका वहां किसी ने पुनः स्मरण तक नहीं किया – जो भी बोला, जिस किसी ने किसी से पूछा या जिसने कहा, सुना – वह मात्र अंग्रेजी भाषा में ही था l
उस समय मुझे ऐसा लगा मानों हम सब लघु सचिवालय – धर्मशाला की सभागार में नहीं, बल्कि ब्रिटिश संसद में बैठे हुए हैं और कार्रवाई देख रहे हैं, अंतर मात्र इतना था कि हमारे सामने गोरे अंग्रेज नहीं, बल्कि काले अंग्रेज – वो भी स्वदेशी अपने ही भाई थे l वो समाज को बताना चाहते थे कि वे गोरे अंग्रेजों से कहीं ज्यादा बढ़िया अंग्रेजी भाषा बोल और समझ सकते हैं l उनकी अंग्रेजी भाषा, हिंदी भाषा से ज्यादा प्रभावशाली है l अंग्रेजी भाषा में उनका ज्ञान देश की आम जनता आसानी से समझ सकती है l मुझे तो वहां अंग्रेजी साम्राज्य की बू आ रही थी – भले ही वह भारत में कब का समाप्त हो चूका था l
अंग्रेजी भाषा का ज्ञान होना बुरी बात नहीं है l उसे बोलने से पूर्व देश, स्थान और श्रोता का ध्यान रखना ज्यादा जरूरी है l वह लघु सचिवालय अपना था l वहां बैठे सब लोग अपने थे फिर भी वहां सबके सामने राजभाषा हिंदी की अवहेलना और अनदेखी हुई l बोलने वाले लोग हिंदी बोलना भूल गए और जग जान गया कि सचिवालय में राजभाषा हिंदी का कितना प्रयोग होता है और उसे कितना सम्मान दिया जाता है ?
ऐसा लगा मानों मिन्नी सचिवालय में मात्र दो महानुभावों को छोड़कर अन्य किसी को हिंदी या स्थानीय भाषा आती ही नहीं है l हाँ, वे सब पाश्चात्य शिक्षा की भट्टी में तपे हुए अंग्रेजी भाषा के मंजे हुए अच्छे प्रवक्ता अवश्य थे l वे अंग्रेजी भाषा भूलने वाले नहीं थे क्योंकि उन्होंने गोरे अंग्रेजों द्वारा विरासत में प्रदत अंग्रेजी भाषा का परित्याग करके उसका अपमान नहीं करना था l वे हिंदी भाषा बोल सकते थे पर उन्होंने सचिवालय में राजभाषा हिंदी का प्रयोग करके सम्मानित नहीं किया, कहीं गोरे अंग्रेज उनसे नाराज हो जाते तो ——!
भारत या उसके किसी राज्य का, चाहे कोई लघु सचिवालय हो या बड़ा, राज्यसभा हो या लोक सभा अथवा न्याय पालिका वहां पर प्रयोग होने वाली सम्मानित राजभाषा हिंदी में किसी भी जनहित की कार्रवाई, बातचीत अथवा संभाषण के अपरिवर्तित मुख्य अंश मात्र उससे संबंधित विभागीय कार्यालय या अधिकारी तक सीमित न होकर ससम्मान राष्ट्र की विभिन्न स्थानीय भाषाओँ में, उचित माध्यमों द्वारा जन साधारण वर्ग तक पहुँचाना अति आवश्यक है l उनमें पारदर्शिता हो ताकि जन साधारण वर्ग भी उनमें सहभागीदार बन सके और सम्मान सहित जी सके l उसके द्वारा प्रदत योगदान से क्या राष्ट्र का नव निर्माण नहीं हो सकता ? उसका लोकतंत्र में सक्रीय योगदान सुनिश्चित होना चाहिए जो उसका अपना अधिकार है l इससे वह दुनियां को बता सकता है कि भारत उसका भी अपना देश है l वह उसकी रक्षा करने में कभी किसी से पीछे रहने वाला नहीं है l
प्रकाशित 9 नवंबर 2008 दैनिक कश्मीर टाइम्स
कश्मीर टाइम्स 30 नवम्बर 2008
वह भी एक समय था जब देश में हर नौजवान किसी न किसी हस्त–कला अथवा अपने रोजगार से जुड़ा हुआ रहता था l चारों ओर सुख समृद्धि थी l देश में कृषि योग्य भूमि की कहीं कमी नहीं थी l पर ज्यों-ज्यों देश की जन संख्या टिड्डीदल की भांति बढ़ती गई, त्यों-त्यों उसकी उपजाऊ धरती और पीने के पानी में भी भारी कमी होने लगी है l प्रदूषण अनवरत बढ़ने लगा है l मानों समस्याओं की बाढ़ आ गई हो l इससे पहले कि यह समस्यायें अपना विकराल रूप धारण कर लें, हमें इन्हें नियंत्रण में लाने के लिए विवेक पूर्ण कुछ प्रयास अवश्य करने होंगे l
हमने कृषि योग्य भूमि पर औद्योगिक इकाइयां या कल-कारखानों की स्थापना नहीं करनी है जिनसे कि कृषि उत्पादन प्रभावित हो l उसके लिए अनुपजाऊ बंजर भूमि निश्चित करनी है और सदैव प्रदूषण मुक्त ही उत्पादन को बढ़ावा देना है l
हमने देश में पशु-धन बढ़ाना है ताकि हमें पर्याप्त मात्रा में देशी खाद प्राप्त हो सके l हमने रासायनिक खादों और कीट नाशक दवाइयों का कम से कम उपयोग करना है ताकि मित्र कीट-जीवों एवं अन्य प्राणियों की भी सुरक्षा और हम सभी का स्वास्थ्य ठीक बना रह सके l
हमने घरेलू दुधारू पशुओं को कहीं खुला और सड़क पर नहीं छोड़ना है और न ही उन्हें कभी कसाइयों तक जाने देना है l अगर किसी कारण वश हम स्वयं उनका पालन-पोषण न कर सकें तो हमने उन्हें स्थानीय सहकारी संस्थाओं द्वारा संचालित पशु-शालाओं को ही देना है ताकि वहां उनका भली प्रकार से पालन पोषण हो सके और हमें मनचाहा ताजा व शूद्ध उत्पाद दूध, घी, पनीर, पौष्टिक खाद और अन्य जीवनोपयोगी वस्तुएं मिल सकें l
हमने नहाने, कपड़े धोने, और साफ-सफाई के लिए भूजल स्रोतों – हैन्डपम्प, नलकूप, बावड़ियों और कुओं का स्वयं कभी प्रयोग नहीं करना है और न ही किसीको करने देना है बल्कि टंकी, तालाब, नदी या नाले के स्वच्छ रोग कीटाणु रहित पानी का प्रयोग करना है और दूसरों को करने के लिए प्रेरित करना है l
सिंचाई के लिए हमने विभिन्न विकल्पों द्वारा जल संचयन करना है और खेती सींचने के लिए वैज्ञानिक विधियों द्वारा फव्वारों को माध्यम बनाना है l हमने भूजल स्रोतों का अंधाधुंध दोहन नहीं करना है l भूजल हम सबका जीवन अधार होने के साथ-साथ सुरक्षित पेय जल भंडार भी है l वह हमारे लिए दीर्घ कालिक रोग मुक्त और संचित पेय जल स्रोत है जो हमने मात्र पिने के लिए प्रयोग करना है l
स्थानीय वर्षा जल–संचयन के लिए तालाब, पोखर जोहड़ और चैकडैम अच्छे विकल्प हैं l इनसे जीव जंतुओं को पीने का पानी मिलता है l हमने स्थानीय लोगों ने मिलकर इनका नव निर्माण करना है तथा पुराने जल स्रोतों का जीर्णोद्वार करके इन्हें उपयोगी बनाना है ताकि ज्यादा से ज्यादा वर्षा जल -संचयन हो सके और सिंचाई कार्य वाधित न हो l
हमने समस्त भू-जल स्रोतों की पहचान करके उन्हें सरंक्षित करने हेतु उनके आस-पास अधिक से अधिक पेड़-पौधे लगाने हैं l इससे भू संरक्षण होगा l इनसे जीवों के प्राण रक्षार्थ प्राण-वायु तथा जल की मात्रा में वृद्धि होगी और जीव जंतुओं के पालन-पोषण हेतु चारा तथा पानी पर्याप्त मात्रा में प्राप्त होगा l
हमने आवासीय कालोनी, मुहल्लों को साफ-सुथरा व रोग मुक्त रखने के लिए घरेलू व सार्वजनिक शौचालयों को सीवरेज व्यवस्था के अंतर्गत लाकर मल निकासी तंत्र-प्रणाली को विकसित करना है और मल को तुरंत खाद में भी परिणत करना है ताकि दूषित जल रिसाव से स्थानीय भू-जल स्रोत – हैण्ड-पम्प, नलकूप, बावड़ियों और कुओं का शुद्ध पेयजल कभी दूषित न हो सके l वह हम सबके लिए सदैव उपयोगी बना रहे l
हमने घर पर स्वयं शुद्ध और ताजा भोजन बनाकर खाना है l डिब्बा–लिफाफा बंद या पहले से तैयार भोजन अथवा जंक फ़ूड का प्रयोग नहीं करना है ताकि हम स्वस्थ रह सकें और हमारी आय का मासिक बजट भी संतुलित बना रहे l
युवा वर्ग को बेरोजगार नहीं रहना है l उसे धार्मिक व सामाजिक दृष्टि से रोजगार के विकल्पों की तलाश करनी है और उन्हें व्यवहारिक रूप में लाना है l योग्य इच्छुक बेरोजगार युवावर्ग के लिए हस्तकला, ग्रामोद्योग, वाणिज्य, कृषि उत्पादन, वागवानी, पशुपालन, ऐसे अनेकों रोजगार संबंधी विकल्प हैं जिनसे वह घर पर रहकर स्वरोजगार से जुड़ सकता है l उसे सरकारी या गैर सरकारी नौकरी तलाशने की आवश्यकता नहीं होगी l
निराश युवावर्ग को सरकारी या गैर सरकारी नौकरी तलाश नहीं करनी है बल्कि स्वरोजगार पैत्रिक व्यवसाय तथा सहकारिता की ओर ध्यान देना है l इससे उसकी अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के साथ-साथ परंपरागत स्थानीय क्षेत्रीय और राष्ट्रीय कला-संस्कृति व साहित्य की नवींन संरचना, रक्षा, और उसका विकास तो होगा ही – इसके साथ ही साथ उनकी अपनी पहचान भी बनेगी l
स्थानीय बेरोजगार युवावर्ग गाँव में रहकर अधिक से अधिक हस्त कला, निर्माण, उत्पादन, कृषि-वागवानी, और पशुपालन संबंधी रोजगार तलाशने और स्वरोजगार शुरू करने के लिए संबंधित विभाग से मार्गदर्शन प्राप्त कर सकता है ताकि उसे स्वरोजगार मिल सके और गाँव छोड़कर दूर शहर न जाना पड़े l
हमने अपने परिवार में बेटा या बेटी में भेद नहीं करना है l दोनों एक ही माता-पिता की संतान हैं l हम सबने परिवार नियोजन प्रणाली के अंतर्गत सीमित परिवार का आदर्श अपनाना है और बेटा-बेटी या दोनों का उचित पालन-पोषण करना है l उन्हें उच्च शिक्षा देने के साथ-साथ उच्च संस्कार भी देने हैं ताकि भारतीय संस्कृति की रक्षा हो सके l
यह सब कार्य तब तक मात्र किसी सरकार के द्वारा भली प्रकार से आयोजित या संचालित नहीं किये जा सकते, और वह कारगर भी प्रमाणित नहीं हो सकते हैं, जब तक जन साधारण के द्वारा इन्हें अपने जीवन में व्यवहारिक नहीं लाया जाता l अगर हम इन्हें व्यवहारिक रूप प्रदान करते हैं तो यह सुनिश्चित है कि हम आधुनिक भारत में भी प्राचीन भारतीय परंपराओं के निर्वाहक हैं और हम अपनी संस्कृति के प्रति उत्तरदायी भी l
चेतन कौशल "नूरपुरी"