मानवता

मानवता सेवा की गतिविधियाँ

पुरालेख (page 44 of 164)

सर्वोत्तम वरदान

अनमोल वचन :-# अच्छा स्वास्थ्य एवंम अच्छी समझ जीवन में दो सर्वोत्तम वरदान है l *
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आचरण शुद्धता

अनमोल वचन :-# आचरण की शुद्धता ही व्यक्ति को प्रखर बनाती है l*
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अनीति मार्ग

अनमोल वचन :-# अनीति के रास्ते पर चलने वाले का बीच राह में ही पतन हो जाता है l*
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व्यक्ति परिचय

अनमोल वचन :-# दो चीजें आपका परिचय कराती हैं : आपका धैर्य, जब आपके पास कुछ भी न हो और...
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प्रभु की समीपता

अनमोल वचन :-# धर्यता और विनम्रता नामक दो गुणों से व्यक्ति की ईश्वर से समीपता बनी रहती है l*
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उच्च विचार

अनमोल वचन :-# दिनरात अपने मस्तिष्क को उच्चकोटि के विचारों से भरो जो फल प्राप्त होगा वह निश्चित ही अनोखा...
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मुस्कराना

अनमोल वचन :-# मुस्कराना, संतुष्टता की निशानी है इसलिए सदा मुस्कराते रहो l*
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प्रभु कृपा

अनमोल वचन :-# सच्चाई, सात्विकता और सरलता के बिना भगवान् की कृपा कदापि प्राप्त नहीं की जा सकती l*
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जीवन महत्व

अनमोल वचन :-# आप अपने जीवन का महत्व समझकर चलो तो दूसरे भी महत्व देंगे l*
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जीवन महत्व

अनमोल वचन :-# आप अपने जीवन का महत्व समझकर चलो तो दूसरे भी महत्व देंगे l*
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आदर्श समाज की कल्पना

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सामाजिक चेतना– 2

आओ हम ऊँच-नीच का भेद मिटायें,

सब समान हैं, चहुँ ओर संदेश फैलायें l

भारतीय समाज में कोई जाति से बड़ा है तो कोई धर्म से, कोई पद से ऊँचा है तो कोई धनबल से l प्रश्न उठता है कि क्या ऐसा पहले भी होता था ? हाँ, होता था पर अब उसमें अंतर आ गया है l पहले हमारी सोच विकसित थी, हम हृदय से विशाल थे, हम निजहित से अधिक संसार का हित चाहते थे परन्तु वर्तमान में हमारी सोच बदल गई है l हमारा हृदय बदल गया है, हम मात्र निजहित चाहने लगे हैं l इसका मुख्य कारण यह है कि हम अध्यात्मिक जीवन त्यागकर निरंतर संसारिक भोग विलास की ओर अग्रसर हुए हैं l हमने योग मूल्य भूला दिए हैं जिनसे हमें सुख के स्थान पर दुःख ही दुःख प्राप्त हो रहे हैं l

देखा जाए तो यह बड़प्पन या ऊँचापन मिथ्या है l पर जो लोग इसे सच मानते हैं अगर उनमें से किसी एक बड़े को उसके माता-पिता के सामने ले जाकर यह पूछा जाये कि वह कितना बड़ा बन गया है तो उनसे हमें यही उत्तर मिलेगा – वह हमारे लिए अब भी बच्चा ही है और सदा बच्चा ही रहेगा l उसके जीवनानुभवों की उसके माता-पिता के जीवनानुभवों से कभी तुलना नहीं की जा सकती l माता-पिता की निष्काम भावना की तरह उसकी सोच का भी जन कल्याणकारी होना अति आवश्यक है l अगर वह ऐसा नहीं करता है तो ऐसी स्थिति में उसे बड़ा या ऊँचा स्थान कदाचित नहीं मिल सकता l

हमारा समाज मिथ्याचारी, बड़प्पन और ऊँचेपन की दलदल में धंसा हुआ है l वह तरह-तरह के कुपोषण, अत्याचार, जातिवाद, छुआछूत, अमीर-गरीब और बाहुबली व्यक्तियों के द्वारा बल के दुरूपयोग से पीड़ित है, जो अत्याधिक चिंता का विषय है l

वास्तविकता तो यह है कि हम सब एक ही ईश्वर की संतान हैं, उसका दिव्यांश हैं l वह कण-कण में समाया हुआ है l प्राणियों में मानव हमारी जाति है l भले ही हमारे कार्य विभिन्न हैं पर हमारा धर्म “सनातन धर्म” है l इसलिए वैश्विक भोग्य सम्पदा पर हम सबका अपनी-अपनी योग्यता एवं गुणों के अनुसार अधिकार होना चाहिए l किसान और मजदूर खेतों में कार्य करते हैं तो विद्वान् लोग उनका मार्ग दर्शन भी करते हैं l

जिस व्यक्ति का जितना ऊँचा स्थान होता है उसके अनुसार उसकी उतनी बड़ी जिम्मेदारी भी होती है l उसे पूरा करना उसका कर्तव्य होता है l उससे वह भ्रष्टाचार, किसी का कुपोषण, किसी पर अत्याचार, करने हेतु कभी स्वतंत्र नहीं होता है l बलशाली मनुष्य द्वारा उसके बल–पराक्रम का वहीँ प्रयोग करना उचित है जहाँ समाज विरोधी तत्व सक्रिय हों या वे अनियंत्रित हों l

मनुष्य का बड़प्पन या उन्चापन उसके कार्य से दीखता है न कि उसके जन्म या वंश से l मनुष्य को चाहिए कि वह मानव जाति के नाते सब प्राणियों के साथ मनुष्यता का ही व्यवहार करे l उससे न तो किसी का कुपोषण होता है न किसी से अन्याय, न किसी पर अत्याचार होता है और न किसी का अपमान l सबमें बिना भेदभाव के समानता बनी रहती है l वैश्विक सम्पदा पर यथायोग्यता अनुसार स्वतः अधिकार बना रहता है l प्रशासनिक व्यवस्था सबके अनुकूल होती है l लोग उसका आदर करते हैं l इससे लोक संस्कृति की संरचना, संरक्षण, और संवर्धन होता है l

मनुष्य जाति में पाया जाने वाला अंतर मात्र मनुष्य द्वारा किये जाने वाले कर्मों व उसके गुणों के अनुसार होता है l सद्गुण किसी में कम तो किसी में अधिक होते हैं l वे सब आपस में कभी एक समान नहीं होते हैं l इसलिए हमें सदा एक दुसरे का सम्मान करना चाहिए l

इससे हम छुआछूत, सामाजिक, आर्थिक, एवं न्यायिक असमानता को बड़ी सुगमता से दूर कर सकते हैं l हमारा हर कदम राम-राज्य की ओर बढ़ता हुआ एक आदर्श समाज की कल्पना को साकार कर सकता है l

प्रकाशित 6 सितम्बर 2009  दैनिक कश्मीर टाइम्स

आतताई नहीं, मानवतावादी बनो

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आलेख – सामाजिक चेतना मातृवन्दना सितम्बर 2020

“मनु व्यवस्था का वास्तविक स्वरूप” लेख में डा० बीसी चौहान ने लिखा है l मनुस्मृति के अध्याय 3 के श्लोक 167 और 168 के अनुसार – चारों वर्णों के पितर वैदिक ऋषि थे l ब्राह्मण वर्ण के पितर भृगु ऋषि के पुत्र सोम थे l क्षत्रिय अंगीरा ऋषि के पुत्र हविष्मन्त थे l वैश्य वर्ण के पितर वर्ण के पितर पुलत्स्य ऋषि के पुत्र आज्यप थे l शूद्र वर्ण के पितर वशिष्ठ ऋषि के पुत्र सुकालिन थे l इससे स्पष्ट हो जाता है कि वेदों के रचनाकार जो ऋषि थे, उनके द्वारा वैदिक ग्रन्थों की संरचना जाति, पंथ, भाषा, व भूगोल को केन्द्रित कर नहीं हुई थी बल्कि समस्त मानव जाति और विश्व के कल्याणार्थ ध्यान में रखकर उनकी रचना की गई थी l

विश्व में आखंड भारत से कौन अपरिचित है ? वेद अनुसार – विश्व में मात्र एक जाति मानव है, नर-नारी उसके दो रूप हैं l धर्म मानवता है l सत्य की पताका भगवा है l भाषा संस्कृत या देवनागरी है l राज्य सत्य, धर्म, न्याय और नीति के प्रति समर्पित हैं l सत्ता का राज्य के प्रति समर्पण आवश्यक है l राष्ट्र “अखंड भारत” है और विश्व “एक परिवार” है l  

जिस काल में भारत सोने की चिड़िया के नाम से विश्व विख्यात हुआ था और विश्वगुरु बना था, वह वैदिक काल ही था l लोग प्रकृति से प्रेम किया करते थे l उनके हर हाथ कुछ करने के लिए कोई न कोई कार्य अवश्य मिलता था l लोग कला प्रेमी और मेहनती थे l वे कृषि-बागवानी किया करते थे l वे गौवंश को माता कहना अधिक पसंद करते थे और उसकी सेवा किया करते थे l धरती पर कहीं वर्षा या पीने के लिए जल की और खाने के लिए अन्न, दाल, सब्जी, तिलहन, कंदमूल और फलों की कोई कमी नहीं रहती थी l चारों ओर सुख समृद्धि दिखाई देती थी l 

इतिहास साक्षी है कि हम शौर्यता-पराक्रम में भी किसी से कभी कम नहीं रहे l हमने किसी पर पहले कभी आक्रमण नहीं किया बल्कि हर बार आक्रमणकारी को मुंहतोड़ उत्तर दिया है l हमसे जब-जब जिसने लड़ने का दुस्साहस किया है, तब-तब उसने हमसे मुंह की खाई है l 

प्रकृति परिवर्तनशील है l उसका प्रभाव स्पष्ट रूप से दिखाई दे रहा है l हम बहुत से लोगों का सोचने का ढंग बदल गया है l सेवा, त्याग की हमारी भावना स्वार्थ पूर्ण होती जा रही है l हमारे परमार्थ के कार्यों ने स्वार्थ का स्थान ले लिया है l पहले हमें परमार्थ कार्य करने में काफ़ी आनंद आता था l हम उसे करने में सदा प्रसन्न/उद्यत्त रहते थे, पर हमें अब स्वार्थ पूर्ण कार्य करने में अधिक आनंद आने लगा है l हम सत्य, न्याय, धर्म, सदाचार और परमार्थ को निरंतर भूलते जा रहे हैं l हम असत्य, अन्याय, अधर्म और अनीति की राह पर चल पड़े हैं l हम महत्वाकांक्षी लोगों ने समाज को अपनी-अपनी इच्छाओं के अनुरूप साम, दाम, दंड और भेद के बल पर वेद विरूद्ध बलात विभिन्न जाति, पंथ, भाषा, खगोल व भूगोल के नाम पर बाँट लिया है और हम उसे बांटने का यह कर्म परोक्ष या अपरोक्ष रूप में अनवरत जारी रखे हुए हैं l

गीता के पहले अध्याय में 36 वें श्लोक की व्यख्या करते हुए स्वामी प्रभुपद जी महाराज कहते हैं – वैदिक आदेशानुसार आततायी छः प्रकार के होते हैं – 1. विष देने वाला 2. घर में अग्नि लगाने वाला 3. घातक हथियार से आक्रमण करने वाला 4. धन लुटने वाला 5. दूसरों की भूमि हड़पने वाला तथा 6. पराई स्त्री का अपहरण करने वाला और इस कर्म में आधुनिक काल के तीन और आततायी जुड़ गए हैं 7. वाहन और सवारी को क्षति पहुँचाने वाला 8. भवन अथवा पुल को बम से उड़ाने वाला 9. तस्करी करने वाला l 

आतंकवाद का कार्य आततायी ही करते हैं, सज्जन पुरुष नहीं l वे अनेकों रूप धारण कर चुके हैं l लगभग 1400 वर्षों से लेकर आजतक आततायियों ने सदैव अन्याय, असत्य, अधर्म और अनीति का ही सहारा लिया है और उससे मात्र सज्जन पुरुषों को ही निशाना बनाया है, उन्हें हर प्रकार से हानि पहुंचाई है, जबकि आर्य पुरुष न्याय, सत्य, नीति और धर्म प्रेमी रहे हैं और उन्होंने आततायियों के द्वारा प्रायोजित अन्याय, असत्य, अधर्म और अनाचार के विरुद्ध किये जा रहे समस्त कार्यों का डटकर बड़ी वीरता से सामना किया है और अपनी विजय का परचंम लहराया है l

हमें अपने आतीत को कभी नहीं भूलना चाहिए l हम सब ऋषियों की संतानें हैं l हम आर्य पुरुष न्याय, सत्य, सदाचार और धर्म प्रेमी वीर पुरुष थे, हैं और रहेंगे l वेदों के रचनाकार ऋषि थे l वैदिक ग्रन्थों की संरचना समस्त मानव जाति और विश्व के कल्याणार्थ ध्यान में रखकर की गई थी l यही हमारी विरासत है उसकी रक्षा करने के लिए लाख बाधाएं होते हुए भी हमें सत्य, न्याय, सदाचार, धर्म और परमार्थ की राह पर निरंतर चलना होगा ताकि विश्व स्तर पर आततायियों के द्वारा प्रायोजित अन्याय, असत्य, अनाचार एवंम अधर्म के विरुद्ध हम अनुशासित एवं संगठित हो सकें और वीरता के साथ डटकर उनका सामना कर सकें l

सत्सनातन जीने की कला

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धर्म अध्यात्म संस्कृति  – 7 

किसी ने ठीक ही कहा है –

“मन के हारे हार है, मन के जीते जीत l

पारब्रह्म को पाइए, मन ही के प्रतीत”

अर्थात मन से हार मान लेने से मनुष्य की हार होना निश्चित है परन्तु हारकर भी मन से न हारना और युक्ति-युक्त होकर अपने उद्देश्य की प्राप्ति के लिए निरंतर प्रयासरत रहने से, उसकी जीत अवश्य होती है l चाहे परम शांति पाने की ही बात क्यों न हो, उसके लिए बलशाली मन की भूमिका प्रमुख होती है l  

 “जीना एक कला है l” सब जानते हैं l पर जिया कैसे जाता है ? बलिष्ठ तन, पवित्र मन, तेजस्वी बुद्धि और महान आत्मा की उद्गति कैसे होती है ? इन प्रश्नों का उत्तर हमें भारतीय सत्सनातन जीवन पद्धति से मिलता है l

चिंता नहीं, चिन्तन करो :– भले ही जन साधारण का मन अत्याधिक बलशाली हो, परन्तु वह स्वभाव से कभी कम चंचल नहीं होता है l अपनी इसी चंचलता के कारण, वह दश इन्द्रिय घोड़ों पर सवार होकर, इन्द्रिय विषयों का रसास्वादन करने हेतु हर पल लालायत रहता है l वह अपने जीवन के अति आवश्यक कल्याणकारी उद्देश्य को भूलकर सत्य और धर्म-मार्ग से भी भटक जाता है l वह बार-बार भांति-भांति के निर्रथक प्रयास एवं चेष्टाएँ करता है जिनसे उसे असफलताएं या निराशाएं ही मिलती हैं l वह प्रभु-कृपा से अनभिज्ञ हो जाता है, अतः वह चिंताग्रस्त होकर दुःख पाता है l परन्तु  सजग जिज्ञासु, युवा साधक और मुनिजन अपने नियंत्रित मन द्वारा, सत्य एवम् धर्म प्रिय कार्य करते हुए सदैव चिंता-मुक्त रहते हैं l वह अपने जीवन में सफलता और वास्तविक सुख-शांति प्राप्त करते हैं l 

निद्रा का त्याग करो :- सत्य और धर्म के मार्ग से भ्रमित पुरुष पतित, मनोविकारी, स्वार्थवश अँधा एवम् इन्द्रिय दास होता है l वह धार्मिक शिक्षा, संस्कार एवं समय पर उचित मार्ग-दर्शन के अभाव में अपने हितैषियों के साथ सर्व प्रिय कार्यों का सहभागी न बनकर मनोविकार, अपराध, और षड्यंत्रों में लिप्त रहता है l यही उसकी निद्रा है l इसी निद्रावश वह अपनी आत्मा, परिवार, गाँव, राज्य और विश्व विरुद्ध कार्य करता है, उनका शत्रु बनता है l वह स्वयं पीड़ित होकर शारीरिक, मानसिक और आर्थिक आधार पर  सत्ता, पद, धन, बाहुबल और अमूल्य समय का दुरूपयोग करता है l इससे किसी का भी हित नहीं होता है, अतः नित नये-नये संकट, कठिनाइयाँ, समस्याएं, बाधाएं और चुनौतियाँ पैदा होती हैं l परिणाम स्वरूप वह प्रभु-कृपा से वंचित रहता है l लेकिन सजग, जिज्ञासु, युवा साधक और मुनिजन सर्व प्रिय कार्य एवं आत्मोन्नति करते हुए प्रभु-कृपा के पात्र बनते हैं l

स्वयं की पहचान करो :-  युद्ध कर्म में परिणत कुरुक्षेत्र में गीता उपदेश देते हुए श्रीकृष्ण जी, कहते हैं – “हे अर्जुन ! स्वयं को जानो l इसके लिए सर्व प्रथम तुम जीवनोद्देश्य में सफलता पाने हेतु अपने मनोविकारों के प्रति, प्रतिपल सजग और सतर्क  रहकर युक्ति-युक्त अभ्यास एवं वैराग्य–श्रम करो l अपने मन का स्वामी बनो l स्थितप्रज्ञ, धर्मपरायण एवं कर्तव्यनिष्ठ होकर, सर्व हितकारी लक्ष्य बेधन अर्थात युद्ध करो l तदुपरांत सृजनात्मक, रचनात्मक, सकारात्मक तथा जन हितकारी कर्मों को व्यवहारिक रूप दो l तुम्हारी विजय निश्चित है l इसमें तुम किसी प्रकार का संदेह न करो, मोह त्याग दो l सत्य और धर्म की रक्षा हेतु धर्मयुद्ध करो l इस समय तुम्हारा यही कर्तव्य है l” निस्संदेह यह उपदेश अर्जुन जैसे किसी भी जिज्ञासु, युवा साधक और मुनि के लिए आत्म-जागरण और उस पर प्रभु-कृपा का कार्य कर सकता है, करना चाहिए l   

प्रभु-कृपा का पात्र बनो :– ऐसे जिज्ञासु युवा साधक, मुनि और योगीजन जो बहुजन हिताए – बहुजन सुखाये नीति के अंतर्गत सर्व प्रिय कार्य (मन से रामनाम का जाप और शरीर से सांसारिक कार्य) करते हैं, उनसे इनका अपना तो भला होता ही है, साथ ही साथ दूसरों को भी लाभ मिलता है l “वसुधैव कुटुम्बकम” में युगों से भक्त जन, साधक परिवार के सदस्य बनते रहे हैं, मानों कोई सरिता समुद्र में समा रही हो l इसे देख मन अनायास ही हिलोरे लेने लग जाता है l

“राम नाम की लूट है, लुट सके तो लुट l 

अंतकाल पछतायेगा, जब प्राण जायेंगे छुट ll”

इस प्रकार विश्व में सभी ओर प्रभु-कृपा, आनंद ही आनंद और परमानंद दिखाई देता है l धर्म-कर्म है जहाँ, प्रभु-कृपा है वहां l भारतीय “सत्सनातन जीवन पद्दति” के इस उद्घोष को साकार करने हेतु प्रत्येक भारतीय जिज्ञासु युवा साधक और मुनि में बलशाली मन द्वारा निश्चित कर्म करने के साथ-साथ अपने लक्ष्य बेधन की प्रबल इच्छा-शक्ति और कार्य क्षमता अवश्य होनी चाहिए l जो गर्व के साथ भारत का माथा ऊँचा कर सके l जो उचित समय पर विश्व में अपना लोहा मनवा सके l जिससे भारत का खोया हुआ पुरातन गौरव पुनः प्राप्त हो सके l    

जन-जन के हृदय से निकलें शुद्ध विचार,

भारत “सोने की चिड़िया” सपना करें साकार,

 “वसुधैव कुटुम्बकम - साधक परिवार,”

घर-घर पहुंचाए धर्म, सांस्कृतिक विचार l

प्रकाशित 15 जनवरी 2011कश्मीर टाइम्स

विश्व दर्पण में भारतीय संस्कृति

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धर्म अध्यात्म संस्कृति  – 6 

प्राचीन भारत वर्ष विश्व मानचित्र पर आर्यावर्त देश रहा है l आर्य वेदों को मानते थे l वे अपने सब कार्य वेद सम्मत करते थे l वेद जो देव वाणी पर आधारित है, उन्हें ऋषि मुनियों द्वारा श्रव्य एवम् लिपिवद्ध किया हुआ माना जाता है l वेदों में ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद अथर्वेद प्रमुख हैं l वे सब सनातन हैं, वे पुरातन होते हुए भी सदैव नवीन हैं l उनमें परिवर्तन नहीं होता है l वे कभी पुराने नहीं होते हैं l 

समय परिवर्तनशील है जिसके साथ-साथ नश्वर संसार की हर वस्तु बदल जाती है l नहीं बदलता है तो वह मात्र सत्य है l सत्य सनातन है l वेद सत्य पर आधारित होने के कारण सदा नवीन, अपरिवर्तनशील और सनातन हैं l वेदों के अनुगामी और हमारे पूर्वज आर्य सत्यप्रिय, कर्मनिष्ठ, धार्मिक और शूरवीर थे l सत्यप्रियता, कर्मनिष्ठा, धार्मिकता और शूरवीरता ही वेदों का आधार है, उनका सार है l यही हमारी पुरातन संस्कृति तथा अध्यात्मिक धरोहर है जिसे विश्व ने माना है l

सत्य ही ब्रह्म है, वह ब्रह्म जिसका किसी के द्वारा कभी कोई विघटन नहीं किया जा सकता l वह सदैव अबेध्य, अकाट्य और अखंडित है l ब्रह्म-ज्ञान और विषयक तात्विक ज्ञान प्राप्त करना ही विवेकशील पुरुष का परम कर्तव्य है जो उन्हें भली प्रकार समझ लेता है, जान जाता है, उसे सत्य-असत्य में भेद अथवा अंतर कर पाना सहज हो जाता है l कोई कहे कि रात बड़ी काली होती है, रात को हमें कुछ भी दिखाई नहीं देता है l यह पहला सत्य है l अगर काली रात में कोई एक दीपक प्रज्ज्वलित कर लिया जाये तो घोर अंधकार भी दिन के उजाले की तरह प्रकाश में बदल जाता है और तब हमें सब कुछ दिखाई देने लगता है l यह दूसरा सत्य है l इसी तरह मन, कर्म तथा वाणी से ब्रह्ममय हो जाने से मनुष्य सत्यवादी हो जाता है l तदोपरांत उसमें सत्य प्रियता, सत्य निष्ठा जैसे अनेकों दैवी गुण स्वाभाविक ही पैदा हो जाते हैं l 

ब्रह्मज्ञान से मनुष्य की अपनी पहचान होती है l वह जान जाता है कि उसमें क्या कर सकने की क्षमताएं विद्यमान हैं ? वह स्वयं क्या-क्या कार्य कर सकता है ? उनके संसाधन क्या हैं ? अपने जीवन के निर्धारित लक्ष्य बेंधने हेतु उन्हें धारण और प्रयोग कैसे किया जाता है ? उन क्षमताओं के द्वारा जीवन में उन्नति कैसे की जा सकती है ? जब वह ऐसा सब कुछ जान जाता है, तब वह अपने गुण व संस्कार और स्वभाव से वही कार्य करता है जो उसे आरम्भ में कर लेना होता है l देर से ही सही, वह वैसा करके अपने कार्य में दक्षता प्राप्त कर लेता है l उसे कार्य कौशल प्राप्त हो जाता है जो उसकी अपनी आवश्यकता होती है l

ब्रह्मज्ञान से मनुष्य को उचित-अनुचित और निषिद्ध कार्यों का ज्ञान होता है l जनहित में उचित कार्य करना वह अपना कर्तव्य समझता है l वह नैतिक, व्यवहारिक कार्य करता हुआ सदाचार का उदाहरण भी प्रस्तुत करता है l इस प्रकार उसके गुण-संस्कारों से दूसरों को प्रेरणा मिलती है l दूसरों के लिए वह एक आदर्श बन जाता है l वे उसका अनुसरण करते हैं और अपना जीवन सफल बनाते हैं l

ब्रह्मज्ञान से ही मनुष्य जागरूक होता है l उसका हृदय एवम् मष्तिष्क ज्ञान के प्रकाश से प्रकाशित हो जाता है l जब वह इस स्थिति पर पहुँच जाता है तब वह स्वयं के शौर्य और पराक्रम को भी पहचान लेता है l वह समाज को संगठित करके/एक नई दिशा देकर उसमें नवजीवन का संचार करता है जिससे समाज और उसकी धन-संपदा की रक्षा एवं सुरक्षा सुनिश्चित होती है l

ब्रह्मज्ञान मनुष्य जीवन को पुष्ट करता है l उसे अजेयी शक्ति प्रदान करता है l शायद इन पंक्तियों में इसी प्रकार के भाव भरे हैं :-

सुगंध बिना पुष्प का क्या करें ?

तृप्ति बिना प्राप्ति का क्या करें ?

ध्येय बिना कर्म निरर्थक है, 

प्रसन्नता बिना जीवन व्यर्थ है l

प्रश्न पैदा होता है कि ऐसे गुण-संस्कारों के प्रेरणा स्रोत क्या हैं ? यह गुण-संस्कार जन साधारण तक कैसे पहुंचाए जा सकते हैं ? इसका  उत्तर आर्यों ने सहज ही युगों पूर्व गुरुकुलों की स्थापना करके दे दिया है जिसे भारत, भारतीय समाज ही नहीं, संपूर्ण विश्व भली प्रकार जानता है l 

प्रकाशित 2011 मातृवंदना

भारतीय संस्कृति का संरक्षण आवश्यक

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धर्म अध्यात्म संस्कृति  – 5 

यह बात सर्व विदित है कि भारत ऋषि-मुनियों का देश रहा है l मनीषियों ने मानव जीवन को मुख्यता चार आश्रमों में विभक्त किया था l उनमें ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और सन्यास आश्रमों के अपने विशेष सिद्धांत थे, उच्च आदर्श थे l उनके अनुसार मनुष्य अपना सार्थक एवम् समर्थ जीवन यापन करता हुआ अपार शक्तियों का स्वामी बन जाता था l भारत की नैतिकता, आध्यात्मिकता और संस्कृति महान थी l जब मैकाले ने ऐसा भारत में देखा और जाना तो वह ईर्ष्या वश तिलमिला उठा l उसने भारत की इस उच्चस्तरीय जीवन पद्दति को हर प्रकार से नष्ट–भ्रष्ट करने तथा उसके स्थान पर निम्नस्तरीय शैली स्थापित करने का मन बना लिया l उसने ब्रिटिश संसद में जाकर एक वक्तव्य दिया जो भारत विरुद्ध महा-षड्यंत्र था l वही वक्तव्य आगे चलकर भारत में ब्रिटिश साम्राज्य को लम्बे समय तक हरा-भरा बनाये रखने तथा उसका विस्तार करने हेतु भारत की नैतिक, अध्यात्मिक और  सत्सनातन धर्म-संस्कृति का ह्रास करने वाला ब्रिटिश शासकों का सहायक नीति-शास्त्र बना l

मैकाले का मूल उद्देश्य भारत को हर प्रकार से क्षीण-हीन, अपंग और निःसहाय बनाकर उसमें ब्रिटिश साम्राज्य की जड़ों को मजबूत करना था l समय-समय पर भारतीय संत महापुरुषों, समाज सुधारकों, नवयुवाओं धार्मिक व राजनेताओं ने मैकाले की भारत विरोधी नीतियों का डटकर विरोध किया और अनेकों बलिदान दिए l उनके द्वारा लम्बे समय तक अथक प्रयासों और त्याग से ही बनारस में हिन्दू विश्वविद्यालय तथा हरिद्वार में गुरुकुल कांगड़ी की स्थापना हुई ताकि भारतीय संस्कृति की अखंड पहचान बनी रहे l उसका भली प्रकार विस्तार हो सके l 

इस प्रकार 15 अगस्त 1947 के दिन स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् देश भर में सरकारी, गैर सरकारी विद्यालयों, महाविद्यालयों और विश्व विद्यालयों से हमें जो दिव्य प्रकाश मिलने की आशा बनी थी, वह एक बार फिर धूमिल हो गई l सरकारों द्वारा इस ओर कोई विशेष प्रयास नहीं हुआ बल्कि उन अंग्रेजी फैक्ट्रियों व कारखानों से पहले की तरह निरंतर सस्ते बाबू और काले अंग्रेज बनकर निकलते रहे जो कभी ब्रिटिश साम्राज्य की आवश्यकता मानी जाती थी l

इससे स्पष्ट होता है कि हम जिस गरिमा के साथ स्वतंत्रता को अंगीकार करने आगे बढ़े थे, वह गरिमा स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् और अधिक तीव्र होने के स्थान पर लुप्तप्रायः हो गई है l स्वदेशी संस्कारों के स्थान पर पाश्चात्य संस्कार हमारी रग-रग में समा रहे हैं l अगर इस ओर बढ़ती प्रवृत्ति  को अतिशीघ्र नहीं रोका गया तो भारत का एक बार फिर पराधीन होना निश्चित है l मत भूलो कि राष्ट्रीय सांस्कृतिक सद्भावना, सहकार, प्रेम और एकता ही अखंड भारत के प्राण हैं l

वर्तमान में बहुत से कार्य मशीनों से किये जाते हैं l कार्य में असफल होने वाली मशीनों को कार्यशालाओं में ले जाकर मिस्त्री से ठीक भी करवा लिया जाता है, पर हमें देश भर में कहीं कोई ऐसी कार्यशाला नहीं दिखाई देती है, जहाँ हमारी संस्कृति में आ चुकी त्रुटियों का अवलोकन व सुधार करके उसे पुष्ट भी किया जाता हो l  हाँ पाश्चात्य संस्कृति बड़ी तेजी के साथ किसी बाधा के बिना भारतीय संस्कृति पर अवश्य छा रही है l  

राष्ट्रीय संस्कृति के पोषक रह चुके गुरुकुलों के देश में – विद्यालयों से लेकर विश्व विद्यालयों तक भारतीय संस्कृति की उपेक्षा होने के कारण पाश्चात्य संस्कृति के भरण-पोषण को ही निर्विवाद रूप से बढ़ावा मिल रहा है l रही सही कसर वर्तमान सरकार द्वारा पूरी की जा रही है l इसके द्वारा विदेशियों का शिक्षा में प्रवेश के लिए अब रंग-मंच तैयार किया जा चुका है l क्या इस तरह हम अपनी संस्कृति की रक्षा कर पाएंगे ? क्या हमारी संस्कृति दूसरों के लिए पुनः आदर्श बन पायेगी ?

उपरोक्त बातों से स्पष्ट होता है कि एक ओर जहाँ आज भारत को मजबूत सीमाओं की आवश्यकता है तो दूसरी ओर उसके भीतर सुसंगठित, अनुशासित, चरित्रवान और कार्यकुशल नवयुवाओं की भी आवश्यकता है जो भारतीय संस्कृति के संवाहक रूप में उसका पुनरुत्थान करने में पूर्णतया सक्षम और समर्पित हो l

प्रकाशित नवम्बर 2009 मातृवंदना
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