मानवता

मानवता सेवा की गतिविधियाँ

पुरालेख (page 45 of 164)

सर्वोत्तम वरदान

अनमोल वचन :-# अच्छा स्वास्थ्य एवंम अच्छी समझ जीवन में दो सर्वोत्तम वरदान है l *
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आचरण शुद्धता

अनमोल वचन :-# आचरण की शुद्धता ही व्यक्ति को प्रखर बनाती है l*
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अनीति मार्ग

अनमोल वचन :-# अनीति के रास्ते पर चलने वाले का बीच राह में ही पतन हो जाता है l*
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व्यक्ति परिचय

अनमोल वचन :-# दो चीजें आपका परिचय कराती हैं : आपका धैर्य, जब आपके पास कुछ भी न हो और...
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प्रभु की समीपता

अनमोल वचन :-# धर्यता और विनम्रता नामक दो गुणों से व्यक्ति की ईश्वर से समीपता बनी रहती है l*
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उच्च विचार

अनमोल वचन :-# दिनरात अपने मस्तिष्क को उच्चकोटि के विचारों से भरो जो फल प्राप्त होगा वह निश्चित ही अनोखा...
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मुस्कराना

अनमोल वचन :-# मुस्कराना, संतुष्टता की निशानी है इसलिए सदा मुस्कराते रहो l*
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प्रभु कृपा

अनमोल वचन :-# सच्चाई, सात्विकता और सरलता के बिना भगवान् की कृपा कदापि प्राप्त नहीं की जा सकती l*
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जीवन महत्व

अनमोल वचन :-# आप अपने जीवन का महत्व समझकर चलो तो दूसरे भी महत्व देंगे l*
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जीवन महत्व

अनमोल वचन :-# आप अपने जीवन का महत्व समझकर चलो तो दूसरे भी महत्व देंगे l*
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भारतीय सनातन धर्म संस्कृति 

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धर्म अध्यात्म संस्कृति  – 4

सभी कष्ट दूर हो जाते हैं l कोई समस्या शेष नहीं रहती है l विपदाओं का भी शमन हो जाता है l इसके लिए मनुष्य को सत्सनातन-धर्म का अनुसरण करना पड़ता है l वह धर्म मुख्यतः तीन बातों पर आधारित है – सत्य, सनातन और धर्म l 

परम पिता परमात्मा विशाल दिव्य ऊर्जा पुंज सर्व आत्माओं का स्वामी होने के नाते स्वयं एक सत्य है l वह अजर, अमर, सर्वज्ञ, सर्व व्यापक, अन्तर्यामी, होने के कारण जैसा पहले था, आज है और आगे भी रहेगा l इस कारण वह सनातन है l धर्म का अर्थ है जीने की कला, जिसका जीवन में आचरण किया जाता है l धर्म मुक्ति का मार्ग प्रसस्त करता है और उसकी प्रभावशाली जीवन शैली से मानव धर्म, परिभाषित होता है l विश्व में जब-जब मानव धर्म की हानि होती है तब-तब मात्र मानव जीवन शैली में विसंगति पाई जाती है l

मानव चाहे किसी उच्च गुण, संस्कार सम्पन्न देश, काल और पात्र का ही सहारा क्यों न लेता हो या वह अच्छी से अच्छी जीवन शैली पर ही अमल क्यों न करे – पर मन चंचल होने के कारण उसमें विसंगतियों के आगमन हेतु प्रवेश द्वार भी हर समय खुला रहता है l इसके लिए अनिवार्य है सजगता, सतर्कता और सावधानी से व्यक्तिगत अथवा समुदायक जीवन शैली को उसकी विसंगतियों से निरंतर सुरक्षित बनाये रखना l

इन बातों का ध्यान रखते हुए प्राचीनकाल में भारतीय मनीषियों ने मानव जीवन को मुख्यतः ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ तथा सन्यास चार आश्रमों में विभक्त किया हुआ था और सर्वहित में कार्यान्वयन हेतु प्रत्येक आश्रम को उसका अपना कार्यभार सौंप रखा था जिसके लिए वह स्वयं उत्तरदायी था l 

ब्रह्मचर्य जीवन में शिक्षण-प्रशिक्षण, गृहस्थ जीवन में सांसारिक, वानप्रस्थ जीवन में आत्मचिंतन-मनन व सुधार तथा सन्यास जीवन में देश-विदेश का भ्रमण करते हुए आत्मज्ञान तथा सयंम से जन चेतना का कार्य किया जाता था l 

प्राचीन संत-मुनि जन यह भली प्रकार जानते थे कि जहाँ जीवन से संबंधित कार्य होते हैं, वहां विसंगतियां भी अवश्य आती हैं l वह मनुष्य को कदम-कदम पर प्रभावित करती हैं l उनसे महिलाएं, बच्चे, वृद्ध कोई भी सुरक्षित नहीं रह पाता है l उन्हें आये दिन अपहरण, शोषण और बलात्कार जैसे अपराधों का सामना करना पड़ता है l इसी कारण समाज में भांति-भांति के अपराधों में निरंतर वृद्धि होती है l वह धार्मिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक, आर्थिक, राष्ट्रीय तथा अंतर्राष्ट्रीय अपराधों से पीड़ित होता है l  मानव मन में नित नये-नये सुख भोगों की लालसा उत्पन्न होती है और वह निरंतर उनकी खोज में रहता है l उससे समाज सुखी होने के स्थान पर दिन-प्रतिदिन दुखी होता है, उसके दुःख घटने के स्थान पर और बढ़ते हैं, वे घटने का नाम ही नहीं लेते है l भारतीय मनीषियों ने दुःख निवारण का सरल, सुंदर एवं अचूक उपाय बताया है l     

सत्संग करो :– सत्संग उचित स्थान और उपयुक्त समय पर किया जाता है l उसमें प्रायः ब्रह्मज्ञान की बातें होती हैं l ब्रह्मज्ञान से समस्त समस्याओं का हल निकलता है l सत्संग में जटिल बातें सरलता से समझी ओर समझाई जाती हैं, उनका समाधान निकाला जाता है जिन्हें मानव जीवन में चरितार्थ किया जाता है l     

सद्भावना रखो :- सद्भावना वृद्धि हेतु मनुष्य द्वारा विद्वानों के प्रति सम्मान की भावना का विशेष ध्यान रखा जाता है l अगर मनुष्य में उनसे कुछ सीखने की भावना न हो तो उसका विद्वानों के बीच में जाना तो दूर, उनके बारे में सोचना भी निरर्थक होता है l पर जब वह सीखने की भावना से उनके पास जाता है तो उसका कर्तव्य बन जाता है कि उन पर विश्वास करे, उनके द्वारा बताये गए मार्ग पर चले, वह समाज में सबके साथ प्रेम से रहे, मानवता और दीन-दुखियों के लिये सेवा-भक्ति भाव से कार्य भी करे l    

शुद्ध विचार अपनाओ :– मनुष्य द्वारा दूसरों के साथ शांत, मृदु, प्रिय और सत्य बोलना हितकारी होता है l शुद्ध लेखन कार्य द्वारा उसका प्रकाशन और प्रचार-प्रसार करना मानवता ही की सेवा है l

सत्कर्म करो :– मनुष्य के द्वारा किया जाने वाला प्रत्येक कार्य सबको अच्छा लगे, उससे दूसरों को कोई पीड़ा या कष्ट न हो, कार्य व्यवहार में लाना श्रेष्ठ है l सत्संग से प्राप्त जीवनोपयोगी बातों का अपने जीवन में अनुसरण करते हुए सबके लिए न्याय एवम् समानता हेतु प्रयास करना सर्वोत्तम है l सर्वहितकारी शुद्ध कर्म करना मानवता हित के लिए रामवाण समान है l

भारतीय संत-महात्माओं का चिंतन-मनन कार्य – सूर्य के समान दीप्तमान, प्रभावशाली और सर्वव्यापक रहा है l उन्होंने मानव जीवन विकास को न केवल एक नई दिशा दी थी बल्कि कर्म के आधार पर मानव समाज हित में वर्ण व्यवस्था का सृजन, पोषण और वर्धन भी किया था l वह व्यवस्था किसी जाति, धर्म, वर्ग भेदभाव और विशेषकर निजहित तक ही सीमित नहीं थी l उससे निष्पक्ष सबका कल्याण होता था l उसकी कुंजी जब तक चरित्रवान एवम् सदाचारी लोगों के हाथों में रही, उसका सर्वहित में सदुपयोग होता रहा पर ज्यों ही वह उनके हाथों से फिसलकर पतित एवम् दूराचारी लोगों के हाथों में गई, उसका मात्र निजहित में दुरूपयोग होने लगा है l उसी का परिणाम है कि आज संपूर्ण मानव जाति की परंपरागत जीवन शैली ही नहीं सामाजिक व्यवस्था ही विकृत हो गई है l उसका स्वरूप हम सबके सम्मुख है l इसका उत्तरदायी मैं, आप और हम सभी हैं l हम सब उसी समाज में रहते हैं जिसे हमने विकृत किया है l अब उसे सुंदर व सुव्यस्थित भी हमने ही करना है l यह हमारा दायित्व है l  

वैदिक परंपरा के अनुसार विश्व एक परिवार है l हम सब उसके सदस्य हैं l “सबका कल्याण हो l” इस परंपरागत धारणा से हमारा दायित्व बन जाता है कि हम समग्र संसार हित के लिए उसके अनुकूल चिंतन-मनन करें l स्वयं कुछ करें और दुसरों को कार्य करना भी सिखाएं ताकि हमारे बच्चे योग्य बन सकें l वह अपने मन, वचन एवम् कर्म से अपने आगे होने वाले बच्चों के लिए प्रेरक बन सकें l

    प्रकाशित अप्रैल मई 2015 मातृवंदना

डिह्बकेश्वर महादेव मंदिर परिसर में समरसता

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धर्म अध्यात्म संस्कृति – 3 

ऋषि-मुनि, सिद्ध, सन्यासी, साधु-सन्त, महात्मा और परमात्मा के साथ जुड़े माणिकों एवं अलंकारों से सुशोभित, भारत माता के सरताज, देव और वीरभूमि हिमाचल प्रदेश की तराई में राष्ट्रीय राजमार्ग पर स्थित है जिला कांगड़ा, का प्रवेश द्वार नूरपुर, के उत्तर में सहादराबान से सर्पाकार एवं घुमावदार सड़क द्वारा लेतरी, खज्जन, हिंदोरा-घराट, सदवां से घने निर्जन चीड़ के जंगल पार, गांव सिम्बली से होते हुए नूरपुर से लगभग 11 किलोमीटर के अंतराल पर स्थित है - सुल्याली गांव।

अपनी हरियाली की अपार सुंदरता एवं स्वच्छता के कारण भारत की देव भूमि हिमाचल प्रदेश विश्व विख्यात है। यहां पर स्थित विभिन्न प्रसिद्ध धार्मिक स्थल देश व विदेश में अपनी अलग पहचान बनाए हुए हैं। प्रदेश के विभिन्न धार्मिक स्थलों में सुल्याली गांव का डिह्बकेश्वर महादेव मंदिर अथवा प्राकृतिक शिवाला डिह्बकेश्वर धाम अत्यंत सुंदर, शांत तथा रमणीय स्थल है।

यह प्राकृतिक शिवाला अपने अस्तित्व में कब आया ? कोई नहीं जानता है। परंतु यहां विराजित साक्षात देवों के देव महादेव परिवार की गांव सुल्याली में वसने वाले लोगों पर असीम कृपा अवश्य है। लोगों में एक दूसरे के प्रति प्रेम व सद्भावना कूटकूट कर भरी हुई है।

डिह्बकेश्वर महादेव मंदिर परिसर के स्नानों में स्नान सोमवार की अमावस्या, वैसाखी की अमावस्या, बुध पूर्णिमा, गुरु पूर्णिमा, चन्द्र ग्रहण, सूर्य ग्रहण, पितर तर्पण, सावन मास के सोमवारों के स्नान होते हैं। श्रीकृष्ण जन्माष्टमी, राधाष्टमी, शीतला पूजन के साथ-साथ यहां शिवरात्रि हर वर्ष बड़ी धूम-धाम से मनाई जाती है जिसमें हर वर्ण के लोग यथाशक्ति बढ़-चढ़ कर भाग लेते हैं।

यहां पर गृह शांति हेतु हवन करवाये जाते हैं। बच्चों के मुंडन संस्कार होते हैं। यहां पर लंगर लगवाने की व्यवस्था भी है जिसमें कोई भी गृहस्थी अपनी इच्छा से यहां की व्यवस्था के अनुसार हवन, संकीर्तन करवाने के साथ-साथ लंगर भी लगवा सकता है।

भरमौर निवासी गद्दी समुदाय के लोग अंधेरा होने पर डिह्बकेश्वर महादेव मंदिर परिसर में शिव विवाह जिसे वे अपनी स्थानीय भाषा में नवाला कहते हैं, का हर वर्ष जनवरी मास में आयोजन करते हैं। वे शिव-पूजन करके लोक-नृत्य सहित शिव-विवाह के भजन गाते हैं। जो देखने योग्य होता है। इसे देखने हेतु यहां पर दूर-दूर से लोग आते हैं। दूसरे दिन वे यहां आए हुए श्रद्धालु-भक्तों के लिए भोले शंकर का लंगर लगाते है जिसे लोग सप्रेम पूर्वक प्रसाद रूप में ग्रहण करते हैं।

स्व0 मास्टर गिरीपाल शर्मा जी ने अपनी स्वर्गीय धर्मपत्नी की याद में चरण पादुका स्थित सुल्याली गांव में शिवरात्रि के दिन इस यज्ञ का शुभारम्भ किया था। जो वहां हर वर्ष किया जाता था। इसे बाद में बंद कर दिया गया और फिर डिह्बकेश्वर महादेव मंदिर परिसर में आरम्भ कर दिया गया। स्व0 मास्टर हंस राज शर्मा, जी ने सन् 1967- 68 ई0 से शिवरात्रि पर्व से लोगों को जोड़ने का महत्वपूर्ण कार्य किया था। यज्ञ में दाल, चावल, खट्टा, मीठा, मह्दरा आदि बनना आरम्भ हो गया। इससे पूर्व यहां आषाढ़ मास की संक्रांति को चपाती, आम की लाहस तथा माश की दाल बना कर सहभोज करने की प्रथा प्रचलित थी। जिसे ग्रहण करके सभी लोग आनन्द उठाते थे।

यहां हर वर्ष शिवरात्रि से दो - तीन दिन पूर्व ही उसकी तैयारी होना आरम्भ हो जाती है। शिवरात्रि से एक दिन पूर्व यहां हवन-यज्ञ किया जाता है। रात को भजन कीर्तन होता है और दूसरे दिन सहभोज-भण्डारा किया जाता है जिसका आयोजन एवं समापन बिना किसी भेदभाव से संपूर्ण होता है। इन दिनों डिह्बकेश्वर महादेव मंदिर परिसर में बहुत ज्यादा चहल-पहल रहती है। यहां स्थानीय लोग ही नहीं दिल्ली, पंजाब और जम्मू-कश्मीर राज्यों के दूर-दूर से आए हुए श्रद्धालू-भक्त जन भी अपनी-अपनी यथाशक्ति से अन्न, तन, मन और धन द्वारा सेवा कार्य में बढ़-चढ़ कर भाग लेते हैं।

यहां आने वाले आस्थावान भक्तों पर भोलेनाथ सदा दयावान रहते हैं। जन धारणा के अनुसार शिवरात्रि को शिवभोले नाथ सपरिवार डिह्बकू में विराजमान रहते हैं तथा यहां पधारे हुए भक्तजनों को अपना आशीर्वाद भी देते हैं। स्थानीय लोगों की धारणा है कि शिवरात्रि के पश्चात् शिव भोले नाथ सपरिवार, मणिमहेश कैलाश की ओर प्रस्थान कर जाते हैं।

शिव भोले नाथ के प्रति अटूट श्रद्धा और विश्वास रखने वाले भक्तजन बारह मास - सर्दी, गर्मी और बरसात में शिव दर्शन और उनकी पूजा-अर्चना करते हैं। वे शिवलिंगों को दूध लस्सी से नहलाते हैं तथा उन पर बिल्व-पत्री चढ़ा कर उनकी धूप-दीप, नैवेद्यादि से पूजा अर्चना करके, उनसे आशीर्वाद प्राप्त करते हैं।

साहिल ग्रुप पठानकोट, के सदस्य मिलकर यहां हर वर्ष दिन में पहले सुल्याली बाजार से होते हुए डिह्बकेश्वर महादेव मंदिर परिसर तक संगीत सहित शिव-विवाह की मनोरम झांकियां निकालते हैं और फिर देर रात तक शिव-विवाह से संबंधित धर्म-सांस्कृतिक कार्यक्रम चलता रहता है जिसे देखने हेतु दूर-दूर से लोग आते हैं। दूसरे दिन वे वहां आने वाले श्रद्धालु-भक्तों के लिए भोले शंकर का लंगर लगाते हैं। लोग प्रसाद ग्रहण करते हैं।

सुल्याली गांव के आसपास के क्षेत्र से अनेकों महिलाएं डिह्बकेश्वर महादेव परिसर में आकर सोमवार की अमावसया, वैसाखी की बड़ी सोमी अमावसया को पीपल वृक्ष का पूजन करती हैं। इस पूजन में पीपल वृक्ष की 108 परिक्रमायें की जाती हैं जिनके अंतर्गत फल, चावल व दाल के दाने, द्रब, दक्षिणा, कच्चा सू़त्र की लड़ियां और जोतें सभी गिनती में 108-108 एक समान नग होते हैं। इसके अतिरिक्त सुहागी, वर्तन और कपड़ा भी होता है जो दान किया जाता है। कच्चा सूत्र की लड़ियों को पीपल वृक्ष के चारों ओर परिक्रमा करके लपेटा जाता है जो देखने योग्य होता है। इस तरह डिह्बकेश्वर महादेव मंदिर परिसर में अध्यात्मिकता देखने को मिलती है जो समरसता से परिपूर्ण होती है।

प्रकाशित मार्च-अप्रैल 2020 मातृवंदना

जलधारा करती है शिवलिंगों को स्नान

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धर्म अध्यात्म संस्कृति – 2 

देव भूमि हिमाचल प्रदेश में – सुल्याली गाँव, तहसील नूरपुर से लगभग 11 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है l इसी गाँव में एक कंगर नाला के ठीक उस पार, स्वयं प्रगट हुए आप अनादी नाथ, शंकर, भोले नाथ, शिव-शम्भू जी का प्राचीन मंदिर है जो स्वयं निर्मित एक ठोस पहाड़ी गुफा में है, दर्शनीय स्थल है l

मान्यता है कि डिह्बकेश्वर महादेव मंदिर में पीड़ितों की पीड़ा दूर होती है, जिज्ञासुओं की जिज्ञासा शांत होती है, अर्थार्थियों को उनका मनचाहा भोग-सुख मिलता है और तत्वज्ञान की लालसा रखने वालों को तत्वज्ञान भी प्राप्त होता है l डिह्बकेश्वर महादेव मंदिर गुफा रूप में दृश्यमान होने के कारण उसमें कहीं दूध समान सफेद रंग की जलधाराएँ गिरती दिखाई देती हैं तो कहीं बूंद-बूंद करके टपकता हुआ पानी l इसके नीचे बने हुए असंख्य छोटे-बड़े शिव लिंगों को उनसे हर समय स्नान प्राप्त होता रहता है l

डिह्बकेश्वर महादेव मंदिर गुफा के ऊपर से कल-कल छल-छल करके बहने वाली जलधारा की उंचाई लगभग 20-25 फुट है l जिस स्थान पर छड़-छड़ की ध्वनि के साथ यह जलधारा गिरती है, स्थानीय लोग अपनी भाषा में उसे छडियाल या गौरी कुंड कहते हैं l यह डिह्बकू भी कहलाता है l डिह्बकेश्वर महादेव मंदिर गुफा की वायें ओर एक और गुफा है जो स्थानीय जनश्रुति अनुसार कोई भूमिगत मार्ग है l मंदिर गुफा के दायें ओर उससे कुछ उंचाई पर स्थित उसी के समान गहराई की एक अन्य गुफा है l यहाँ पर गंगा की धारा, शिव जटा से प्रत्यक्ष सी प्रकट होती हुई दिखाई देती है l सुल्याली गाँव और उसके आस-पास के कई क्षेत्रों को पीने का शुद्ध पानी यहीं से प्राप्त होता है l

परम्परा के अनुसार डिह्बकेश्वर महादेव मंदिर परिसर में जो भी महात्मा आते हैं, उनकी सेवा में राशन का प्रबंध सुल्याली गाँव के परिवार करते हैं l “बिच्छू काटे पर जहर न चढ़े” यह किसी सिद्ध महात्मा का आशीर्वाद है या डिह्बकेश्वर महादेव की असीम कृपा ही l 

सुल्याली गाँव में बिच्छू के काटने पर किसी व्यक्ति को जहर नहीं चढ़ता है l जनश्रुति और उनके विश्वास के अनुसार शिवरात्रि को शिव भोले नाथ सपरिवार डिह्बकू में विराजित रहते हैं तथा यहाँ पधारे हुए भक्तजनों को अपना आशीर्वाद देते हैं l

प्रकाशित 17 मई 2006 दैनिक जागरण

आस्था की दहलीज पर

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धर्म अध्यात्म संस्कृति – 1

हमारे देश में ऐसे अनेकों धार्मिक व तीर्थ स्थल हैं जिनके साथ हमारी पवित्र आस्थाएं जुड़ी हुई हैं l हम वहां अपनी किसी न किसी कामना सहित देव दर्शनार्थ जाते हैं और अपनी कामना पूरी होने पर उन्हें श्रद्धा सुमन भी अर्पित करते हैं l इससे हमें मानसिक शांति मिलती है l 

पर दुर्भाग्य से इन्हीं धार्मिक व तीर्थ स्थलों पर समाज विरोधी तत्वों का साम्राज्य स्थापित हो गया है l मंदिर परिसरों में भारी भीड़, महिलाओं से छेड़-छाड़, दुर्व्यवहार, उनके कीमती जेवरों का छिना जाना और पुरुषों की जेब तक कट जाना प्रतिदिन एक गंभीर समस्या बनती जा रही है l ऐसा व्रत-त्योहार व मेलों में होता है l

इस समस्या से निपटने के लिए आवश्यक है कि मंदिर प्रशासन और मेला आयोजकों के कार्यक्रमों को सुव्यवस्थित व अनुशासित बनाने के लिए स्वयं सेवी संस्थाओं को भी आगे आने का सुअवसर दिया जाये l उन्हें प्रशासन की ओर से पूर्ण सहयोग मिले ताकि हमारे मंदिर और तीर्थ स्थान आस्था के केंद्र बने रहें और श्रद्धालु, भक्त जनों को वहां सदा भय एवम् तनाव मुक्त वातावरण मिल सके l पंजाब से सीखना चाहिए कि इन स्थलों की शुचिता कैसे बनाये रखी जाती है l

प्रकाशित  1 जुलाई 2007 दैनिक जागरण

सुख – शान्ति कैसे प्राप्त करें

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हमारा जीवन जितना अल्पायु का है उससे कई गुणा बढ़कर कामनाओं की उसमें अधिकता रहती है l हमारा मन किसी न किसी इच्छा का शिकार बना रहता है l भले ही वह कोई नर हो या नारी उनके जीवन में कोई न कोई रोग, शोक या व्याधि देखने को अवश्य मिल जाती है l मनुष्य की अपनी समस्त इच्छाएं अपनी विविधताओं के कारण कभी पूरी नहीं होती हैं l उनके फल विभिन्न हैं l 
प्राचीन आचार्यों के अनुसार – सुखी मानव जीवन के मुख्यतः चार फल हैं – धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष l इनसे मानव जीवन का गहरा संबंध है l भले ही यह सब मानव जाति का भला करने में सक्षम हैं पर आज के युग में वे नीरस और उपेक्षित हो गये हैं l कारण है – अज्ञानता, और भ्रष्टाचार की सर्वव्यापकता l धर्मयापन में बाधा साम्प्रदायिकता, गुटबंदी है तो अर्थ उपार्जन में बे - इमानी, काम में अविवेक है तो मोक्ष में मैं, मैंने की भावना l
 सब नर – नारी सुख चाहते हैं l वह शांति पाना चाहते हैं l वे चाहते हैं कि उन्हें मिलने वाला सुख तथा शांति एक ही बार एक साथ मिल जाये l पर यह एक ऐसी अनहोनी अपूर्ण इच्छा और कामना भी है कि जिसे पूरा करने के लिए उनका जीवन बहुत छोटा पड़ जाता है l अनुचित ढंग से आयु भर प्रयत्न करने पर भी वह जो कुछ उन्हें प्राप्त होता है – वे कभी उससे तृप्त और संतुष्ट नहीं हो पाते हैं l उन्हें सदा अशांति और निराशा ही देखने को मिलती है l 
परन्तु सृष्टि में कुछ ऐसे भी विवेकशील महानुभाव विद्यमान हैं, जिन्होंने सुख तथा शान्ति पाने के परम उद्देश्य की दृष्टि से प्रकृति को मुख्यता दो भागों - जड़ तथा चेतन में विभक्त कर दिया है l जड़ प्रकृति में भौतिक शरीर और चेतन प्रकृति में अमर आत्मा विद्यमान है l 
जड़ प्रकृति में धरती, आकाश, जल, वायु, अग्नि, बुद्धि और मैं या मैंने का भाव आते हैं जो प्रायः नश्वर हैं l इस प्रकृति में रोग, हर्ष, शोक, पीड़ा, भूख, प्यास, दुःख-सुख, लाभ और हानि जैसे अनेकों प्रकार के कष्ट पाये जाते हैं l अज्ञानी, भोगी, आलसी और निराशावादी ही नर-नारी इस प्रकृति से प्रभावित होते हैं l 
परन्तु विवेकशील आशावादी नर-नारी अपने कठोर शरीर-श्रम, सन्तुलित भोजन, खेलकूद, भ्रमण, उचित लोक व्यवहार, स्वाध्याय, व्यायाम, योगाभ्यास, समय सदुपयोग, नियमित कार्य, ऋतू अनुसार वस्तु प्रयोग, कर्तव्य पालना, अनुशासन, सयंम और सादगी भरे सुव्यवस्थित जीवन से जड़ प्रकृति पर विजय प्राप्त कर लेते हैं l जड़ प्रकृति में होने वाली किसी भी घटना का उनके मन पर दुष्प्रभाव  नहीं पड़ता है l उनकी ज्ञान ज्योति निरंतर अचल और दीप्तमान बनी रहती है
मानव शरीर में चेतन तत्व का अस्तित्व है जिससे वह सजीव या प्राण वाला होता है तथा चलता-फिरता, देखता-सुनता, खाता-पीता और बातें भी करता है l चेतन तत्व सर्व सुखदायक और दैवी गुण सम्पन्न है जिनका वही नर-नारी साक्षात् कर सकते हैं जो वास्तविक सुख तथा शांति की खोज में साधनारत रहने का दृढ़ निश्चय किये हुए हैं l साधनारत रहने से साधक के मन से संसारिक विषयक वस्तुओं के प्रति भोग-सुख की इच्छा, चिंता समाप्त हो जाती है और उसका आत्मा परमात्मा से दूध में घी समान मिलने के लिए तड़प उठता है और उसकी समाधि भी लग जाती है l 
जब मनुष्य में चेतना जागृत हो जाती है तो शरीर से आलस्य स्वयं ही भाग जाता है l उसमें एक अद्भुत सी स्फूर्ति आ जाती है l ऐसे महान पुरुषों का प्रत्येक कार्य दूसरों के लिए प्रेरणादायक बन जाता है l भोगी पुरुष उसे अवतारी पुरुष भी कहते हैं जो उनकी मंद बुद्धि और अज्ञानता की उपज होती है l सत्य तो यह है कि कोई भी साहसी और कर्मवीर पुरुष मात्र पुरुषार्थ करके वैसा बन सकता है l
समय या असमय पर इन्द्रियां, मन और बुद्धि भी संसारिक पदार्थों से प्रभावित हुए बिना नहीं रहती हैं जिन्हें भ्रष्ट-पथ से सन्मार्ग पर लाने के लिए मनुष्य को अभ्यास या वैराग्य के द्वारा आत्मशान्ति या वास्तविक सुख का मार्ग अपनाना होता है l उसे निरंतर साधना करनी होती है l इन्द्रियों, मन तथा बुद्धि का संसारिक विषयों में आसक्त हो जाने पर कोई भी आत्मा जड़ प्रकृति के अधीन कैदी के रूप में रहता है जो उसके अपने स्वभाव के विपरीत होता है l वह उस पराधीनता से मुक्त होने के लिए निरंतर सटपटाता रहता है l उसकी मुक्ति मात्र विवेकशील, कर्मनिष्ठ मनुष्य की निरंतर साधना और निराभिमान से संभव होती है l भोगी और आलसी तो हर प्रकार से क्षीण होकर संसारिक नश्वर शरीर में बार-बार जन्म और मृत्यु को ही प्राप्त होता है और कष्ट पाता है l 
सृष्टि में बार-बार आवागमन को प्राप्त होना बुद्धिमानों का कार्य नहीं है और न ही यह उन्हें शोभा ही देता है l बुद्धिमान और साहसी तो वह है जिसकी इन्द्रियों में शक्ति है, मन पवित्र है, बुद्धि  विलक्षण है और आत्मा भी उदार है l
कर्मशील, कर्मयोगी पुरुष के लिए ज्ञान युक्त जड़ प्रकृति संसार से ज्ञान प्राप्त करके अपने मन द्वारा उसका त्याग करना अति आवश्यक है l जो नर-नारी जड़ प्रकृति का त्याग नहीं करते हैं, उसमें लिप्त रहते हैं, वास्तव में वह सुख व शान्ति पाने से विमुख रह जाते हैं l इसके पीछे उनके मन की संसार के प्रति बनी आसक्ति होती है l अगर इस स्थान पर वह संसारिक विषयक पदार्थों का भोग किये बिना मुक्ति-पथ पर चलना आरम्भ कर देते हैं तब भी उनकी यात्रा संदेहास्पद की रहती है l उसमें इस का भय बना रहता है कि कहीं कभी अचानक उनके मन में संसारिक पदार्थों के सुख के प्रति भोग की इच्छा न पैदा हो जाये l जब कभी इस त्रुटि पूर्ण जीवन को लिए हुए, कोई भी नर-नारी मुक्ति–मार्ग पर चलते हुए संसारिक पदार्थों के रसास्वादन हेतु लालायत हो जाते हैं l तभी वह विषयासक्त ढोंगी कहे जाते हैं l इसलिए आवश्यक है कि संसार की हर वस्तु का आयु और समयानुसार भोग करना तथा अनुभवी होकर पवित्र मन द्वारा अध्यात्मिक पुरुष हो जाना l इससे कोई भी साधक अपनी डगर से विचलित नहीं होगा l क्योंकि मानसिक लालसा–इच्छा का त्याग ही सब प्रकार के किये जाने वाले त्यागों में सर्व श्रेष्ठ त्याग है l
जड़-चेतन दो प्रकृतियों को मिलाने से एक नदी बनती है तो संसारिक तथा ईश्वरीय सुख उस नदी के दो किनारे भी हैं जिनके बीच में त्याग रूपी तीव्र धारा बहती है l आप एक समय में जिज्ञासु अथवा भोगी के नाते मात्र संसारिक सुख पा सकते हैं या मोक्ष ही प्राप्त कर सकते हैं संसारिक भोग करते हुए आप मोक्ष के बारे में मात्र सोच ही सकते हैं l आपके द्वारा उसे प्राप्त किया जाना तो तभी संभव हो सकता है जब आप अपने प्राणों की भी चिंता न करते हुए नाव रूपी निश्चय से नदी की त्याग रूपी तेज धारा में देह-मोह छोडकर कूद न जाये l अगर इस नाजुक समय में आपके हृदय में तनिक सी भी विषयासक्ति रह जाती है तो आप अपने कार्य में सफल नहीं हो सकते l
वास्तव में ऐसे ही समय पर किसी मनुष्य के विवेक और सयंम की कड़ी परीक्षा होती है l इसलिए आवश्यक है कि वह पहले ही पूर्ण आत्मविश्वास और दृढ़ निश्चय के साथ उस परीक्षा में बैठे और उतीर्ण भी हो l
इन जड़ और चेतन प्रकृतियों में मनुष्य को दो स्वरूप देखने को मिलते हैं – नामधारी और निराकार l नामधारियों में राम, शाम, शीला, गीता आदि किसी देहधारी का नाम होता है जबकि निराकार स्वयं ज्योति स्वरूप आत्मा या परमात्मा ही होता है l 
वास्तविक सुख तथा शांति के उद्देश्य को मद्द्ये नजर रखते हुए जड़ प्रकृति देह का सदुपयोग करना अति आवश्यक है l जिससे कि वह प्राकृतिक कष्टों, विपदाओं, वाधाओं ओर जीवन चुनौतियों से भयभीत न हो बल्कि उनसे डटकर सामना कर सकने की शक्ति संपन्न बने l इस कार्य को करने में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष साधन मात्र हैं l 
विशेष प्रकार की क्रियाओं, साधनों, सदाचार पालन के द्वारा अपनी इन्द्रियों, मन तथा बुद्धि का भी सयंमन करने के साथ-साथ आत्मा पर भी पूर्ण नियंत्रण करके स्वयं को ईश्वरीय तत्व में लीन करने की सारी क्रियाएं, धार्मिक हैं l धर्म व्यक्तिगत विषय है जो स्वयं को सुखी करने के साथ-साथ दूसरों को भी सुख प्रदान करता है l इससे इहलोक और परलोक दोनों का सुधार होता है l 
ब्रह्मचर्य व्रत पालन के साथ-साथ संपूर्ण विद्या प्राप्त कर लेने के पश्चात् शुद्ध अर्थ उपार्जित करते हुए गृहस्थाश्रम में प्रवेश करके उतनी ही संतान उत्पन्न करना जिससे कि पारिवारिक, वंश, समाज, और राष्ट्र की रक्षा हो सके, शांति भंग न हो, सन्तान का भली प्रकार से लालन-पालन होने के साथ-साथ उसे उच्च शिक्षा भी मिले – वास्तविक अर्थों में “काम” है l
योग प्राणायाम से आत्म संयमन करते हुए संसारिक मोह ममता, भोग इच्छा, धन संग्रह या लोभ की भावना से रहित ईश्वरीय तत्व का ध्यान करते हुए, लोक मार्गदर्शन करना और बिना कष्ट के अपने प्राणों का समाधि ही में त्याग करना उत्तम मोक्ष है l
यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि अगर हम धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का सही अर्थ समझ लें और उसके अनुकूल अपना जीवन यापन करें तो निःसंदेह हम वास्तविक सुख तथा शांति प्राप्त कर सकते हैं l

प्रकाशित 14 नवम्बर 1996 कश्मीर टाइम्स

मानव जीवन विकास  – 13

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