मानवता

मानवता सेवा की गतिविधियाँ

पुरालेख (page 47 of 164)

सर्वोत्तम वरदान

अनमोल वचन :-# अच्छा स्वास्थ्य एवंम अच्छी समझ जीवन में दो सर्वोत्तम वरदान है l *
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आचरण शुद्धता

अनमोल वचन :-# आचरण की शुद्धता ही व्यक्ति को प्रखर बनाती है l*
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अनीति मार्ग

अनमोल वचन :-# अनीति के रास्ते पर चलने वाले का बीच राह में ही पतन हो जाता है l*
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व्यक्ति परिचय

अनमोल वचन :-# दो चीजें आपका परिचय कराती हैं : आपका धैर्य, जब आपके पास कुछ भी न हो और...
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प्रभु की समीपता

अनमोल वचन :-# धर्यता और विनम्रता नामक दो गुणों से व्यक्ति की ईश्वर से समीपता बनी रहती है l*
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उच्च विचार

अनमोल वचन :-# दिनरात अपने मस्तिष्क को उच्चकोटि के विचारों से भरो जो फल प्राप्त होगा वह निश्चित ही अनोखा...
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मुस्कराना

अनमोल वचन :-# मुस्कराना, संतुष्टता की निशानी है इसलिए सदा मुस्कराते रहो l*
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प्रभु कृपा

अनमोल वचन :-# सच्चाई, सात्विकता और सरलता के बिना भगवान् की कृपा कदापि प्राप्त नहीं की जा सकती l*
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जीवन महत्व

अनमोल वचन :-# आप अपने जीवन का महत्व समझकर चलो तो दूसरे भी महत्व देंगे l*
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जीवन महत्व

अनमोल वचन :-# आप अपने जीवन का महत्व समझकर चलो तो दूसरे भी महत्व देंगे l*
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मानव इन्द्रियां – स्वाभाविक गुण

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मानव जीवन विकास – 7

मानव शरीर उस सुंदर मकान के समान है जिसमें आवश्यकता अनुसार दरवाजे, खिड़कियाँ, अलमारियां, रोशनदान, और नालियां सब कुछ उपलब्ध है l उसमें घर की भांति प्रत्येक वस्तु उचित स्थान पर उचित और सुसज्जित ढंग से रखी मिलती है l मानव शरीर में मुख्यतः कान, नाक, आँख, जिह्वा, त्वचा, हाथ, मुंह, उपस्थ, गुदा और पैरों के ही कारण परिपूर्ण और मनमोहक है l वह अपना प्रत्येक कार्य करने में हर प्रकार से सक्षम है l

भारतीय विद्वानों ने मनुष्य के इन महत्वपूर्ण अंगों को इन्द्रियां नाम प्रदान किया है l इन इन्द्रियों की कर्मशीलता के कारण मनुष्य शरीर गतिशील है l यह इन्द्रियां दो प्रकार की हैं – ज्ञानेन्द्रियाँ तथा कर्मेन्द्रियाँ l ज्ञानेन्द्रियों में कान, नाक, आँख, जिह्वा और त्वचा आती हैं और कर्मेन्द्रियों में हाथ, मुंह, उपस्थ, गुदा और पैर l इन सबके अपने-अपने कार्य हैं जो अपना विशेष महत्व रखते हैं l

पांच ज्ञानेन्द्रियों में जो मनुष्य के शरीर में सुशोभित हैं, वह समय-समय पर आवश्यकता अनुसार मनुष्य को विभिन्न प्रकार के ज्ञान से स्वर्ग तुल्य आनंद व सुख की अनुभूति करवाती हैं l इन ज्ञानेन्द्रियों कान से शब्द ज्ञान, आँख से दृश्य ज्ञान, नाक से गंध ज्ञान, जिह्वा से स्वाद ज्ञान और त्वचा से स्पर्श ज्ञान सुख प्राप्त होते हैं l सृष्टि में पांच महाभूत आकाश, आग, मिटटी, पानी और वायु पाए जाते हैं जो क्रमशः कान, नाक, आँख, जिह्वा और त्वचा से शब्द, रूप, गंध, रस और स्पर्श के रूप में अनुभव किये जाते हैं l

आकाश के माध्यम से कान के द्वारा शब्द सुनने से शब्द ज्ञान होता है l यह शब्द कई प्रकार के होते हैं जैसे – गाने का शब्द, बजाने का शब्द, नाचने का शब्द, हंसने का शब्द, रोने का शब्द, बड़बड़ाने का शब्द, पढ़ने-पढ़ाने का शब्द, शंख फूंकने का शब्द, गुनगुनाने का शब्द, बतियाने का शब्द, चलने का शब्द, तैरने का शब्द, लकड़ी काटने का शब्द इतियादि l  

आग या प्रकाश  के माध्यम से आँख के द्वारा देखने से दृश्य-ज्ञान होता है l उन्हें मुख्यतः चार भागों में विभक्त किया जा सकता है – रंगों के आधार पर, बनावट के आधार पर, रूप के आधार पर और क्रिया गति के आधार पर l

रंगों में – नीला, पीला, काला, हरा, सफेद और लाल रंग प्रमुख हैं तथा अन्य प्रकार के रंग उपरोक्त रंगों के मिश्रण से जो विभिन्न अनुपात में मिलाये जाते हैं, से मन चाहे रंग तैयार किये जा सकते हैं l

बनावट आकर में – गोलाकर, अर्ध गोलाकार, त्रिभुजाकार, आयताकार, वर्गाकार, सर्पाकार, आयताकार, लम्बा, छोटा, मोटा, नुकीला और धारदार आदि l  

रूप प्रकार में – प्रकाश, ज्योति, आग, शरीर, पवन का स्पर्श, जल, वायु की सर-सराहट, मिटटी आदि l   

क्रिया गति में – दो प्रकार हैं, सजीव तथा निर्जीव l सजीव स्वयं ही क्रियाशील हैं जबकि निर्जीव को क्रियाशील किया जाता है और उसे गति प्रदान की जाती है l

मिटटी और उससे उत्पन्न जड़ी बूटियों, पेड़ पोधों, फूल-वनस्पतियों और फलों से विभिन्न प्रकार की उड़ने वाली गंधों – का नाक के द्वारा सूंघने से गंध–ज्ञान होता है l गंध कई प्रकार की हैं जिनमें कुछ इस प्रकार हैं – जलने की गंध, सड़ने की गंध, पकवान पकने की गंध, फूल-वनस्पति की गंध, पेड़ छाल की गंध, मल-मूत्र की गंध तथा मांस मदिरा की गंध आदि l  

जल या रस के रूप में – पेय वस्तुओं का जिह्वा द्वारा स्वाद चखने से स्वाद-ज्ञान होता है l यह भी कई प्रकार के हैं – खट्टा, मीठा, फीका, नमकीन, तीक्षण, कसैला और कड़वा आदि l  

वायु के स्पर्श से त्वचा पर पड़ने वाले प्रभावों से त्वचा के जिन-जिन रूपों में अनुभव होता है उनमें ठंडा, गर्म, नर्म, ठोस मुलायम और खुरदरा प्रमुख अनुभव हैं l

पांच कर्मेन्द्रियाँ मनुष्य को कर्म करने में सहायता करती हैं l यह इन्द्रियां इस प्रकार हैं – मुंह, हाथ, उपस्थ, गुदा और पैर l मुंह से होने वाले कार्य इस प्रकार है – फल खाना, बातें करना, गाना, हँसना, रोना, बड़बड़ाना, बांसुरी बजाना, शंख फूंकना, गुनगुनाना और पानी पीना आदि

हाथों से किये जाने वाले कार्य इस प्रकार हैं – पैन पकड़ना, पत्र लिखना, सिर खुजलाना, कपड़ा निचोड़ना, खाना पकाना, ढोल बजाना, मशीन चलाना, भाला फैंकना, तैरना, धान कूटना, स्वेटर बुनना, दही बिलोना, कपड़ा सिलना, फूल तोड़ना, कढ़ाई करना, मूर्ति तराशना, चित्र बनाना, हल चलाना, अनाज तोलना, नोट गिनना, आँगन बुहारना, बर्तन साफ करना, पोंछा लगाना, गोबर लीपना, चिनाई करना, कटाई करना, पिंजाई करना आदि l

मूत्र विच्छेदन करना  उपस्थ का कार्य है l

गुदा मल विच्छेदन का कार्य करता है l

पैरों से चलना, खड़ा होना, दौड़ना, नाचना, कूदना आदि कार्य किये जाते हैं l

इस प्रकार हम देख चुके हैं कि ज्ञानेन्द्रियाँ मनुष्य को ज्ञान की ओर और कर्मेन्द्रियाँ कर्म की ओर आकर्षित करती हैं l यही उनका अपना स्वभाव है l

प्रकाशित 24 अगस्त 1996 काश्मीर टाइम्स

दिल प्रीतम का घर है

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मानव जीवन विकास – 6

किसी ने ठीक ही कहा है कि “जिस तरह हमें अपना शरीर कायम रखने के लिए भोजन जरुरी है  आत्मा की भलाई के लिए प्रार्थना करना कहीं उससे भी ज्यादा जरूरी है l प्रार्थना या भजन जीभ से नहीं वरन हृदय से होता है l इसलिए गूंगे, तुतले, और मूढ़ भी प्रार्थना कर सकते हैं l जीभ पर अमृत राम-नाम हो और हृदय में हलाहल – दुर्भावना हो तो जीभ का अमृत किस काम का ?”

उपरोक्त विचारों से स्पष्ट है कि प्रार्थना या भजन हृदय से किया जाता है जिससे मनुष्य का हृदय शुद्ध होता है l ऐसा करने के लिए उसे बाह्य संसाधनों अथवा संयंत्रों की कभी आवश्यकता नहीं होती है बल्कि उसे आत्मावलोकन एवं स्वाध्य करना होता है, आत्म शुद्धि करनी होती है l जिस मनुष्य के हृदय में दुर्भावना और अज्ञान होता है, वह समाज का न तो हित चाहता है और न कभी भलाई के कार्य ही कर सकता है l 

इसी कारण आज देश का प्रत्येक व्यक्ति, परिवार, गाँव और शहर पलपल ध्वनि प्रदूषण का शिकार हो रहा है l उसकी दिन-प्रति दिन वृद्धि हो रही है l उससे समस्त जन जीवन बुरी तरह प्रभावित हो रहा है l ध्वनि प्रदूषण के कारण समाज में बहरापन जैसे रोग भी बढ़ रहे हैं l इसका उत्तरदायी कौन है ?

वर्तमान में विवाह, पार्टी, घर व दुकानों में रेडियो, दूरदर्शन, टेपरिकार्डर, डैक एवं मंदिर, गुरुद्वारा, मस्जिद पर टंगे बड़े-बड़े स्पीकर तथा जगराता पार्टियाँ बे रोक-टोक ध्वनि प्रदूषण फैला रहे हैं,  क्यों ?

बच्चों के पढ़ने व रोगी के आराम करने के समय पर संयंत्रों के उच्च स्वर सुनाई देते हैं l उनसे मनचाहा उच्च स्वर वादन/स्वरोच्चारण होता है l शायद ऐसा करने वाले भक्तजन व विद्वान लोगों को भजन कीर्तन सुनाना ज्यादा अच्छा लगता होगा l क्या उससे बच्चे भली प्रकार पढ़ाई कर पाते हैं ? क्या इससे किसी दुखी, पीड़ित या रोगी को पूरा आराम मिल पाता है ?

स्मरण रहे ! कि प्रार्थना या भजन स्पीकरों या डैक से उच्च स्वर से नहीं, मानसिक या धीमी आवाज में ही करना श्रेष्ठ व सर्व हितकारी है l उससे किसी को दुःख या कष्ट नहीं होता है l इसी कारण बहुत से लोग आत्मचिंतन करते हैं तथा मानसिक नाम जाप करते हैं l उन्हें प्रार्थना या भजन किसी को सुनाने की आवश्यकता नहीं होती है l  

रोगी-दुखियों को कष्ट पहुँचाना और विद्यार्थियों की पढ़ाई में बाधा डालना इन्सान का नहीं, शैतान का कार्य है l अगर हम मनुष्य हैं तो हमें मनुष्यता धारण कर मनुष्य के साथ मनुष्य जैसा व्यवहार अवश्य करना चाहिए, शैतान सा नहीं l

प्रार्थना या भजन करना हो तो हृदय से करो, वह जीवन अमृत समान है l शैतान, अहंकारी और अज्ञानी होकर विभिन्न संयंत्रों से उच्च स्वर बढ़ाकर उसे समाज के लिए विष मत बनाओ l

समाज में ध्वनि प्रदूषण न फ़ैल सके, इसके लिए प्रशासन के द्वारा ध्वनि विस्तार रोधक कानून से अंकुश लगाया जाना अति आवश्यक है l हम सबको इस कार्य में हार्दिक योगदान करना चाहिए l किसी ने  ठीक ही कहा है कि दिल एक मंदिर है l प्यार की जिसमें होती है पूजा, वह प्रीतम का घर है l

प्रकाशित 19 अप्रैल 2009दैनिक कश्मीर टाइम्स

जिंदगी से कला जोड़ो, नशा नहीं

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मानव जीवन विकास – 5

जीना भी एक कला है। जो युवा कलात्मक विधि से जीना सीख जाता है, वह मानों उसके लिए सोने पर सुहागा। कलात्मक विधि से जीने के लिए युवा का किसी न किसी कला के साथ जुड़े रहना अति अवश्यक है। इसके लिए युवा को मांस-मदिरा सेवन और धू्रम्रपान करने से सदैव दूर रहना चाहिए। इन वस्तुओं का सेवन करने से मानव जीवन में दुष्प्रभाव पड़ता है, तरह-तरह की विसंगतियां उत्पन्न होती हैं जो जीवन विकास के लिए वाधक होती हैं। वैसे भी सनातन धर्म इनका सेवन करने की किसी को आज्ञा नहीं देता है अपितु सावधान ही करता है।

 किसी ने ठीक ही कहा है कि “जिंदगी से कला जोड़ो, नशा नहीं।” जिंदगी में जब कोई भी व्यक्ति खाद्य पदार्थ या पेय रस का निर्धारित मात्रा या आवश्यकता से अधिक सेवन करता है तो उससे उसके शरीर का पाचन तंत्र अव्यवस्थित होता है और इससे आगे जिन पदार्थों का वह बार-बार सेवन करता है, उन्हें एक पल के लिए भी भूलता नहीं है, मात्र नशा करना कहलाता है। उनमें दारू या शराब प्रमुख है। इतना ही नही, किसी पार्टी, विवाह-शादी, स्वागत या विदाई समारोह के समय पर शराब का वितरण करना भी एक फैशन बन गया है। जिस समारोह के आयोजन में शराब वितरण न हो, उसे एक अच्छा आयोजन नहीं कहा जाता है।

इसके लिए बालीवुड सिनेमा उद्योग भी कम उत्तरदायी नहीं है। उसमें देश, धर्म-संस्कृति के हित की कोई भी बात ना होकर मात्र पैसा ही कमाना उसका उद्देश्य बनकर रह गया है। यही नहीं वह समाज को नशा करने हेतु प्रेरित भी कर रहा है जिससे निरंतर अपराध प्रवृत्ति को बढ़ावा मिल रहा है।

देशभर में जहां लोग सुवह-शाम मंदिरों में जाते थे, घंटियां बजाकर देवी-देवताओं की आरती किया करते थे। आज शायद ही कोई ऐसा गांव बचा होगा जहां शराब की दुकान ठेका ना खुला हो। साएं होते ही वहां शराब खरीदने वालों की लंबी कतारें देखी जा सकती हैं। उनमें अधिकतर वे ही लोग अधिक दिखाई देते हैं जो दिहाड़ीदार होते हैं।

आधुनिक काल विकासवाद का युग है। संस्कार और शिक्षा की सुगंध जो विद्यार्थी के आचरण और व्यवहार में दिखाई देनी चाहिए थी, के स्थान पर नवयुवा/नवयुवतियां जीवन की दिशा से अनभिज्ञ या जीवन दिशा से भ्रमित होकर कैफे, रैस्टोरैंट, या होटलों में आयोजित होने वाली छोटी या बड़ी पार्टियों में जाकर पवित्र रिस्तों की धज्ज्यिां उड़ाते दिखाई देते हैं। वे वहां अनैतिक संबंध बनाकर पलभर में ही अपना सब कुछ खो बैठते हैं जो उन्हें जीवन में भविष्य के लिए सम्भाल कर रखना होता है।

गांजा, सुलफा, सुमैग, हेरोइन, पोस्त, हफीम, चर्स, और चिट्टा जो नशे के विभिन्न रूप हैं, ने आज दारू या शराब को भी पीछे छोड़ दिया है। इन पदार्थाें का युवावर्ग में तेजी से प्रचलन बढ़ रहा है। ऐसे व्यवसाय का साम्राज्य फैलाने में राज्य या क्षेत्र स्तरीय “नशा अपराध तंत्र” की गैंग में सक्रिय स्मगलरों और उनके अजैंटों के रूप में आपसी बड़ी भूमिका रहती है जो किसी न किसी प्रकार नशा-पदार्थों को एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति के माध्यम से एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुँचाने का हर सम्भव प्रयास करते हैं। इस कार्य में उनके सिर पर हर समय संकट की घंटी बजती रहती है। फिर भी वह इस अपराधिक कार्य को अवश्य करते हैं। या तो वह पुलिस टीम द्वारा पकड़े जाते हैं, जेल की सलाखों के पीछे पड़े सड़ते रहते हैं या उसकी गोली ही का शिकार बनते हैं।

श्री मद् भगवद्गीता के अनुसार जीवन का यह भी एक कड़वा सत्य है कि मनुष्य अच्छाई की अपेक्षा बुराई की ओर अतिशीघ्र आकृष्ट होता है। कोई भी व्यक्ति जो जैसी संगत करता है, उसकी वैसी भावना पैदा होती है। उसकी जैसी भावना होती है, उसके वैसे विचार पैदा होते हैं। उसके जैसे विचार हों, वह वैसा ही कर्म करता है और वह जैसे कर्म करता है, उसे वैसा फल अवश्य मिलता है।

इसमें कोई दो राय नहीं कि आज का मनुष्य अपनी जीवन शैली से पूर्णरूप से अनभिज्ञ है या जीवन दिशा से भ्रमित हो गया है। उसका जीवन निरंतर आत्म पतन की ओर अग्रसर हो रहा है। वह इस अंधकूप से बाहर निकल कर पुनः सुख-समृद्धि से परिपूर्ण अवश्य हो सकता है अगर वह जीने के लिए कला प्रेमी बन सके और कलात्मक विधि से जीना सीख जाए। उसे अपना आनंददायक जीवन जीने के लिए विधि पूर्वक अपनी किसी न किसी मन पसंद कला (संगीत, वादन, नृत्य, निर्माण, अभिनय, लेखन, भाषण या चित्रकला) के साथ जुड़ना अति आवश्यक है।

प्रकाशित अक्तूबर 2020 मातृवंदना

क्या हमारा जीवन त्रुटिपूर्ण है ?

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मानव जीवन विकास - 4  

प्रगति करने वाला विवेकशील मनुष्य अपने जीवन को सदैव त्रुटिपूर्ण मानता है l वह उन त्रुटियों के होने की कभी चिंता नहीं करता है बल्कि उनको दूर करने के लिए सतत प्रयत्नशील रहता है l

आधुनिक काल में हर स्थान पर हड़तालें, बंद, घेराव, संप्रदायक दंगे, हिंसा पत्थराव, तोड़फोड़, अग्निकांड, लाठी प्रहार और आंसूगैस की ही घटनाएँ देखने, पढ़ने और सुनने को मिलती हैं l बात-बात पर उनकी आवश्यकता समझी जाती है l क्या ऐसा करने से आजतक समाज की कहीं भलाई हो सकी है ?

हमारा भारत एक संघीय देश है जिसमें छोटे-बड़े क्षेत्रों को मिलाकर कई राज्य बनाये गए हैं l समय-समय पर जनता मतदान द्वारा विधान सभा तथा लोक सभा हेतु अपने प्रतिनिधियों का चयन करती है जिनसे राज्य तथा केंद्र सरकारों का निर्माण होता है l भारत और उसके राज्यों में सरकारी तथा गैर सरकारी श्रमिक संगठन भी होते हैं जो समय-समय पर अपनी-अपनी मांगें सरकार द्वारा मनवाने का प्रयत्न करते रहते हैं l कभी-कभी वह अपने प्रयासों को ऐसे सक्रिय आंदोलनों के रूप में ढाल लेते हैं, जिन्हें अपने हित के आगे देशहित भी नजर नहीं आता है l वे उपद्रव करना आरम्भ कर देते हैं जिनसे देशहित नहीं होता है l उन्हें यह भी ज्ञान नहीं रहता है कि उनके उपद्रवों से किसका हित अथवा किसका अहित हो रहा है l तब कानून व्यवस्था बनाये रखने वाली पुलिस उन पर अपनी कार्रवाही करती है l उसे तो संवैधानिक कानून व्यवस्था और शान्ति बनाये र खनी होती है l

सदियों से संसार में भांति-भांति के अनेकों प्रकार के आन्दोलन तो होते रहे हैं लेकिन उनमें और आज के आंदोलनों में यह अंतर आ गया है कि पहले वाले आंदोलनों का आधार कारण सहित प्रमानित और ठोस होता था l क्रांतिकारी जैसा आन्दोलन करना चाहते थे वे उसके अनुरूप साधनयुक्त भी होते थे जिससे कि वे जी-जान लगाकर अपने अधिकार के लिए लड़ा करते थे l भारतीय इतिहास साक्षी है कि इस प्रकार से किया जाने वाला कोई भी शांतिपूर्वक स्वतंत्रता आन्दोलन विफल नहीं, सफल ही रहा है l उसकी सफलता से पूर्व जब कभी उस जैसे अन्य आंदोलनों में कोई कमी रह भी जाती थी तो आन्दोलनकारी अपना-अपना हृदय मंथन करके उनमें पाई जाने वाली कमियों को ही ढूंढते थे, उन्हें दूर किया करते  थे l ताकि फिर वह कभी उनके मार्ग में कोई खलल या विघन न डाल सके l परन्तु आज गुरु विहीन और दिशाहीन क्रांतिकारी ऐसा कुछ भी रचनात्मक कार्य नहीं करते हैं बल्कि दूसरों की कमियां देखते हैं l स्वयं को श्रेष्ठ और दूसरों को निम्न समझते हैं l जिससे उनमें सहयोग की भावना के स्थान पर टकराव ही की प्रवृति को बढ़ावा मिलता है l  

हमें सर्व प्रथम अपनी कमियों को अपने समक्ष रखकर उनसे सीख लेनी चाहिए l ताकि हम वह गलती फिर जीवन प्रयन्त न दुहरायें l हमें उन्हें अपने जीवन का प्रेरणा स्रोत मानकर कार्य करना चाहिये l तभी हम अपने कार्य में सफल हो सकते हैं, आगे बढ़ सकते हैं l

भले ही किसी मनुष्य की जिह्वा, आखें और कान अपना-अपना कार्य करने में सक्षम हों और उसका विवेक सोया हुआ हो तो उस महानुभाव को जगा हुआ नहीं कहा जा सकता l आज का मनुष्य हृदय शुद्धि करने के लिए मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा, चर्च धार्मिक स्थलों पर और सभाओं में अवश्य जाता है, सत्संग करता है पर फिर भी उसके मन में दुर्भावना पनपती रहती है l उसके मन के बंद कपाट नहीं खुलते हैं l ऐसे भक्त की वहां जाने से पूर्व सम्भवतः यह भावना रहती होगी कि वह देव या गुरु शरण जाकर मात्र प्रार्थना करके अपने मन का सब कूड़ा-कचरा धो लेगा और मन से भी पवित्र हो जायेगा l पर उसकी ऐसी धारणा गलत होती है l प्रमाणित हो चुका है कि आजकल के ऐसे कई धार्मिक स्थल और संस्थाओं में भांति-भांति के ऐसे लाखों कार्य किये जाते हैं जो नैसर्गिकता, नैतिकता, राष्ट्रीयता, सभ्यता, संस्कृति, दर्शन तथा साहित्य की मान-मर्यादाओं के विरुद्ध होते हैं l उन्हें देख किसी भी भद्र नर-नारी का माथा मारे शर्म के स्वयं ही नीचे झुक जाता है l ऐसी संगत करने से क्या लाभ ? धर्म तो व्यक्तिगत विषय है, सम्प्रदायक नहीं l लोग कहते हैं कि धार्मिक स्थान उन्हें शांति प्रदान करते हैं, पर वह शांति देवालय, मठ, गुरुद्वारा, मस्जिद, चर्च, धार्मिक स्थान, सभाएं या सम्मेलन नहीं देते हैं l उन्हें उनकी सुसंगत, अध्ययन चिंतन और मनन से ही शांति प्राप्त होती है l नींबू का रस खट्टा होता है, मीठा या फीका नहीं l मनुष्य अपूर्ण है, मात्र ईश्वर पूर्ण है, सत्य है l सुबह से शाम तक मनुष्य, मनुष्य को ही देखता है, ईश्वर को नहीं l मनुष्य और मनुष्य द्वारा बनाई गई हर वस्तु अपूर्ण है l इसलिए अपूर्ण को पूर्ण, सत्य का सहारा लेना अनिवार्य है l वह कण-कण में विराजित है l मनुष्य के हृदय में भी विराजित है l वहीँ से छुपा हुआ वह पूर्णता का स्वामी अपूर्ण मनुष्य की हर दिनचर्या को निहारता है l इसलिए हमें सर्वप्रथम अपने हृदय के बंद कपाट खोलने चाहियें ताकि हमें ईश्वर के दर्शन कर सकें l इसके लिए हमें स्वयं में बदलाव लाने की महती आवश्यकता है  - “हमें सत्संग अथवा प्रभु-नाम स्मरण करना चाहिए, सत्संग से मन में पवित्र भावना उत्पन्न होती है l पवित्र भावना से विचार शुद्ध होते हैं l उन विचारों से अच्छे कर्म होते हैं और अच्छे कर्मों से मिलने वाला फल भी अच्छा ही होता है l” क्या वर्तमान काल में इस सत्य अनुभवी कथन का संबंध हर व्यक्ति के साथ है ? अगर नहीं तो क्यों ?

आज आवश्यकता है – स्थिर निर्णायक बौद्धिक क्षमता की जो अच्छाई में से बुराई को निकाल दे, बुराई में से अच्छाई ढूंढ ले और फिर साथ ही साथ वह अच्छाई मनुष्य के द्वारा उसके जीवन में चरित्रार्थ भी हो l परन्तु हम ऐसा नहीं करते हैं, डरते हैं, जाने क्यों ! 

महान पुरुषों का तो यही अनुभव रहा है कि जब तक हम अपने मन के बंद कपाटों को स्वयं नहीं खोलते हैं, हमें आत्म-ज्ञान नहीं हो सकता l हमें दिया जाने वाला बाह्य सहयोग या ज्ञान का कोई भी महत्व नहीं – सब निरर्थक है l जैसे खाना हमारी थाली में हो – जब तक हम स्वयं ग्रास उठाकर अपने मुंह में नहीं डालते हैं, तब तक वह न तो हमारी थाली से उठता है और न हमारे मुंह में ही जाता है l इस कारण किसी व्यक्ति का सुधार या उसे आत्म-ज्ञान न तो किसी अन्य व्यक्ति के द्वारा हुआ है  और न ही हो सकता है l मात्र उसकी श्रद्धा, जिज्ञासा, विश्वास और सतत साधना से ही सब कुछ  जाना जा सकता है और अपने आप की पहचान भी हो सकती है l 

जब हमें यह ज्ञान हो जाता है कि वह कोई भी होने वाला कार्य अपने लिए अच्छा है तभी वह दूसरों के लिए अवश्य अच्छा होगा l हमें दूसरों के लिए वैसा ही कार्य करना चाहिए जैसा हम स्वयं के लिए करते हैं l यही जन जागृति है l जन जागृति से जन-शक्ति बनती है, लोक-शक्ति बढ़ती है l समाज का सुधार होता है l कोई भी जागृत महानुभाव अनुचित कार्य नहीं करता है l वह समाज को जागृति की शिक्षा देता है और स्वयं का ध्यान रखता है कि कहीं वह सो तो नहीं गया – उसके द्वारा अनुचित कार्य तो नहीं होने लगा ! इस प्रकार वह सकल समाज के लिए एक महात्मा या सद्गुरु ही होता है l हम एक सद्गुरु के अनुयायी बन सकते हैं l हमारे साथ-साथ संपूर्ण समाज जागृत हो सकता है l

इस सृष्टि में किसी भी प्रकार की अच्छाई या बुराई का प्रारम्भ मात्र स्वयं ही से होता है l जैसे जब कभी हम किसी ढोल पर चोट करते हैं तो ढम-ढम की आवाज आती है – चोट करना क्रिया है तो बदले में सुनाई देने वाला शब्द उसकी प्रतिक्रिया l इस प्रकार किसी भी तरह के कार्य से निकलने वाला अच्छा या बुरा परिणाम इसी बात पर निर्भर करता है l

 जिस कार्य का प्रभाव हमारे मन पर पड़ता है वह बाहर के होने वाले ही कार्य की प्रतिक्रिया होती है l अगर वह कार्य द्वद्वात्मक हो तो बदले में मन में भी द्वद्व ही पैदा होता है l अच्छा कार्य सदैव द्वद्व रहित तथा शांति प्रदाता होता है जो हमारे मन पर अच्छा प्रभाव डालता है l वह हमारी अंतरात्मा को भी मान्य होता है l 

 इसी तरह शब्द, रूप, रस, स्पर्श और गंध की अनुभूतियाँ हमारी इन्द्रियों की भोज्य हैं और काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार हमारे मन की कुवृतियां l ऐसे कोई भी कुवृति तब पैदा होती है जब हमारी अपनी बुद्धि सम्मोहित मन और उसकी विभिन्न प्रकार की गतिविधियों से निकलने वाले अच्छे या बुरे परिणामों का सही विश्लेष्ण नहीं कर पाती l किसी प्रकार का निर्णय न कर पाना ही हमारी बुद्धि की क्षीणता है l यही कारण है कि आधुनिक काल में प्रकाशित की जाने वाली विभिन्न पुस्तकों, समाचार पत्रों में घटिया श्रेणी की सामग्री पढ़ने और देखने को मिलती है l वह देश, काल और पात्र अनुकूल नहीं होती है l कितना अच्छा होता कि उन्हें सभ्य जागरूक समाज द्वारा कोसा जाता l   

भारत के प्राचीनकाल में ही नहीं आधुनिक काल में भी उसके विद्वानों, विचारकों के अपने-अपने विचित्र अनुभव रहे हैं –“मनुष्य को वास्तविक सुख तथा शांति पाने के लिए अपनी इन्द्रियों की कुचेष्टाओं का मन के द्वारा दमन करना तथा मन के विकारों का बुद्धि द्वारा निग्रह करके अपनी बुद्धि को आत्मा में लीन करना, आत्मा को परमात्मा में मिला देना, हमारे जीवन का परम उद्देश्य होना चाहिए l ”यह सब आदिकाल से होता आया है, अब हो रहा है और आगे भी होगा l यही भारत की अध्यात्मिकता है l 

 क्या उपरोक्त ऋषि-मुनियों के विचित्र अनुभवों से हमारा आत्म सुधार हो सकता है ? क्या समाज में होने वाले अपराधों को रोका जा सकता है ? हमारा समाज तब तक उन्नति नहीं कर सकता जब तक हमारी शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक तथा आत्मिक उन्नति नहीं होती है l हमें अपने समाज का विकास करना है तो पहले स्वयं का विकास करना होगा l स्वयं की उन्नति तब होगी जब हमारा मन, आचरण, आहार और व्यवहार भी शुद्ध होगा l इनसे हमारे जीवन की गाथा बनती है l हमारी जीवन गाथा दूसरों के लिए प्रेरक तभी बन सकती है, जब हमारे जीवन की नींव-उसका आधार सुदृढ़ होगा l ऐसा करने के लिए हमें सर्व प्रथम स्वयं को देखना होगा कि हम क्या कर रहे हैं ? वह ठीक भी है कि नहीं ? आओ ! हम सब इकट्ठे बैठकर विचार करें कि हमारे त्रुटिपूर्ण जीवन का सुधार कैसे हो और हमसे उसे महत्वपूर्ण जीवन किस प्रकार बनाया जा सकता है ? मानव जीवन अपूर्ण है इसलिए अपूर्ण को पूर्ण संग मिलाना ही श्रेयस्कर है l

प्रकाशित 17 नवम्बर 1996 कश्मीर टाइम्स

कला-साधना जीवनोपयोगी है

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मानव जीवन विकास – 3

जीना भी एक कला है l जो व्यक्ति भली प्रकार जीना सीख जाता है, वह मानों उसके लिए सोने पर सुहागा l भली प्रकार जीने के लिए व्यक्ति का किसी न किसी कला के साथ जुड़े रहना अति आवश्यक है भी l मनुष्य को मांस-मदिर और धुम्रपान से सदैव दूर रहना चाहिए l सत्सनातन धर्म इन्हें  सेवन करने की  किसी को आज्ञा नहीं देता है अपितु सावधान करता है l जिन्दगी से कला जोड़ो, नशा नहीं l कला से प्रेम करो, नशे से नहीं l नशे का त्याग करो, जिन्दगी का नहीं l नशे से नाता तोड़ो, जिन्दगी से नहीं l कला प्रेम से जिन्दगी संवरती है, नशे से नहीं l अतः कला-प्रेमी को नशा नहीं करना चाहिए l

मानव शरीर उस मशीन के समान है जिसमें पांच कर्मेन्द्रियाँ, पांच ज्ञानेन्द्रियाँ, मैं का भाव, मन और बुद्धि होती है l मुंह, उपस्थ गुदा, हाथ और पैर उसकी कर्मेन्द्रियाँ कर्म करती हैं जबकि जिह्वा, आँखें, नाक, कान, त्वचा ज्ञानेन्द्रियाँ उसके लिए ज्ञानार्जित करती हैं l यह सब कार्य एक इंटरनैट की तरह मात्र बुद्धि के नियंत्रण में होते हैं l

प्राचीन काल से ही भारत की गुरु-शिष्य परंपरा पर आधारित सर्वश्रेष्ठ विश्वसनीय कला-सृजन करने वाली वैदिक शिक्षा-प्रणाली अंग्रेजी साम्राज्य तक प्रभावी रही थी l इतिहास में श्रीकृष्ण–बलराम जी के गुरु का संदीपनी, श्रीराम-लक्ष्मण के गुरु का विश्वामित्र, लव-कुश के गुरु बाल्मीकि के आश्रम जैसे अनेकों आश्रमों का उल्लेख मिलता है l स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् बोट बैंक और दलगत राजनीति के कारण उसे भारी हानि पहुंची है l गुरुओं में पहला गुरु माता, दूसरा पिता और तीसरा विद्यालय के गुरु एवं अध्यापक माने जाते हैं l जीवन निर्माण में इनकी महान भूमिका रहती है l माँ-बाप तो मात्र बच्चे को जन्म देते हैं जबकि जीवन में उसे गुरु ही योग्य पात्र बनाते हैं l माँ के गर्भ में विकसित हो रहा शिशु जन्म लेने से पूर्व अपने कानों से  दूसरों की बातें श्रवण करना आरम्भ कर देता है l महाभारत के पात्र वीर अभिमन्यु इसका जीता-जागता उदाहरण है l उन्होंने जन्म लेने से पूर्व ही अपने पिता अर्जुन से माता सुभद्रा को सुनाई गई गाथा के माध्यम से चक्रव्यूह बेधने की कला सीख ली थी और उससे महाभारत में द्रोणाचार्य द्वारा रचाया गया चक्रव्यूह भी बेध डाला था l माँ के द्वारा प्रसंग पूरा न सुन पाने के कारण वे चक्रव्यूह बेधना/उससे बाहर निकलना नहीं जान सके थे l उनकी माँ गाथा सुनते-सुनते बीच में सो गई थी l अतः वे वीरगति को प्राप्त हुए थे l इसलिए कहा जाता है कि किसी भी गर्भवति महिला/स्त्री को ज्ञान-रस, वीर-रस की गाथाएँ सुनाने के साथ-साथ उससे धार्मिक और सदाचार ही की बातें करनी चाहियें l उसके शयन-कक्ष में धार्मिक और महान पुरुषों के चित्र लगाने चाहिए l इससे अच्छा और संस्कारवान बच्चा पैदा होता है l

जन्म लेने के पश्चात् बच्चा धीरे-धीरे अपने गुरु माता–पिता से खाना-पीना, बोलना, खड़े होना, चलना, दौड़ना सब कुछ सीख लेता है l ज्यों-ज्यों बच्चा बड़ा होता जाता है, त्यों-त्यों वह बालक या बालिका के रूप में तीन-चार वर्ष की आयु में पाठशाला जाना आरम्भ कर देता है l वहां वह लिखना, पढ़ना, बोलना संवाद करना, नाचना, गाना, अनुशासन व शिष्टाचार इत्यादि अन्य कलाएं भी सीखता है l यही नहीं, परंपरागत गुरुकुलों में तो आत्म-रक्षा हेतु छात्र-छात्राओं को युद्ध कला भी सिखाई जाती थी l कोई भी कला साधना आत्म साक्षात्कार करने का संसाधन है, साध्य नहीं l वही कला तब तक जीवित रहती है, जब तक उसका किसी के द्वारा एकलव्य की भांति सृजन, पोषण, और वर्धन हेतु अभ्यास किया जाता है l वही व्यक्ति कला का सफलता पूर्वक सृजन, पोषण और वर्धन हेतु अभ्यास कर सकता है जिसके पास कला के प्रति आत्म समर्पण की भावना, धैर्य, एकाग्रता और आत्म विश्वास होता है l जीवन में सफलता की ऊँचाइयाँ छूने और कला में प्रवीणता पाने के लिए दृढ़ इच्छा शक्ति का होना अति आवश्यक है l कलात्मक शिक्षण-प्रशिक्षण लेने से योग्यता में निखार आता है l कलात्मक अभिनय करने से दूसरों को ज्ञान मिलता है l

कलात्मक प्रतियोगिताओं में भाग लेने से व्यक्ति का आत्मविश्वास बढ़ता है l लोकहित में कलात्मक व्यवसायिक परिवेश बनाने से भोग, सुख और यश प्राप्त होता है l कला संस्कृति से ही किसी व्यक्ति, परिवार, समाज, क्षेत्र, प्रान्त और देश की पहचान होती है l कला संस्कृति को जीवित रखने का एक मात्र सरल उपाय यह है कि गुरु की उपस्थिति में प्रशिक्षित प्रशिक्षु के द्वारा नये प्रशिक्षु को शिक्षण-प्रशिक्षण दिया जाये l उनके द्वारा समय-समय पर कला अभ्यास हो और निश्चित स्थान पर उनकी कला-प्रदर्शन का आयोजन भी किया जाये l किसी कला का सम्मान कलाप्रेमी ही करते हैं, कोई बाजार नहीं l कला का सम्मान करने से ही किसी कलाकार का वास्तविक सम्मान होता है l जिस स्थान पर कला का सम्मान न हो, वहां आयोजक को भूलकर भी किसी कलाकार से उसकी कला का प्रदर्शन नहीं करवाना चाहिए और न ही किसी कलाकार को उसमें भाग लेना चाहिए l कला प्रेमियों के हृदय में कहीं न कहीं कला के प्रति सम्मान अवश्य होता है जिस कारण वे उससे संबंधित कलामंच की ओर आकर्षित होते हैं l किसी भी कला को जिवंत बनाये रखने के लिए दर्शकों, कला प्रेमियों को उस कला का सम्मान अवश्य करना चाहिए l

समय-समय पर नालंदा, तक्षशिला, विश्वविद्यालयों और उनकी शाखाओं, उप-शाखाओं की तरह वर्तमान सरकारी अथवा गैर सरकारी शिक्षण-संस्थाओं द्वारा अपने विभिन्न कलाकार छात्र-छात्राओं का उत्साह बढ़ाने के लिए उससे संबंधित मंचों का आयोजन करवाकर उन्हें सम्मानित भी करना चाहिए l जो युवाजन अपने जीवन में शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक तथा आत्मिक शक्तियों का विकास करना चाहते हैं, उन्हें स्वयं में छिपी हुई किसी न किसी कला (वादक-यंत्र वादन, नृत्य, संगीत, अभिनय, भाषण, साहित्य लेखन, जैसी अन्य कला) से प्रेम अवश्य करना चाहिये l जीवन निर्वहन करने के साथ-साथ उनके पास अपना मानव जीवन संवारने के लिए इससे बढ़िया अन्य और संसाधन क्या हो सकता है !

प्रकाशित जुलाई अगस्त 2020 मातृवंदना

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