मानों तो मानव जीवन का निर्माण किसी भवन का निर्माण करने से कोई कम नहीं है। भवन का निर्माण कार्य किसी निश्चित अवधि तक तो समाप्त हो जाता है पर जीवन निर्माण का कार्य बिन रोके लम्बे समय तक चलाए रखने की अपेक्षा बनी रहती है। इसका वर्णन किसी सफल साधक की जीवन गाथा से मिल सकता है। विद्यार्थी जीवन का आधार बनाने के लिए सर्व प्रथम आवश्यक है उसके धरातल का निरीक्षण करना। घर में माता-पिता तथा विद्यालय में गुरुजनों के द्वारा उसका जीवन निर्माण करने से पूर्व उसकी नींव तैयार करनी होती है। उन्हें देखना होता है कि वह किस योग्य है? उसमें ऐसे क्या गुण विद्यमान हैं जो उसके लिए अति आवश्यक हैं। उसमें ऐसी क्या विशेषताएँ हैं जो उसके जीवन की नींव को सुदृढ़ कर सकती हैं। माता-पिता अथवा गुरुजनों द्वारा विद्यार्थी में विद्यमान विशेष गुणों के आधार पर उसके लिए कोई उपयुक्त साध्य निर्धारित करना होता है। उसे जीवन में क्या करना है? वह स्वयं में क्या बनने की क्षमता रखता है? उसमें ऐसा कौन सा गुण है जिसे थोड़ा सा सहारा मिलने पर वह प्रगति पथ पर तांगे के घोड़े की भांति सरपट भागने में सक्षम हो सकता है। यह सब माता-पिता तथा गुरुजनों द्वारा जान लेना अनिवार्य है। विद्यार्थी की साध्य क्षमता का अनुमान मात्र अनुमान न बना रहे, इसलिए उसे भली प्रकार से जांच-परख कर ही माता-पिता व गुरुजनों को उसके अनुकूल साधन जुटाने होते हैं ताकि वह उनकी सहायता से अपने जीवन लक्ष्य की प्राप्ति करने का अभियान तेज कर सके। विद्यार्थी के लिए उसकी अपनी योग्यता, लक्ष्य प्राप्त करने की क्षमता और उत्तम संसाधनों का मोल और अधिक बढ़ जाता है जब उसे अपने माता-पिता और गुरुजनों के सुस्नेह और सानिध्य में स्वगुण सम्पन्न अभिरुचि के अनुरूप उपयुक्त शिक्षण-प्रशिक्षण प्राप्त होता है। उसे लाख बाधाएं होने पर भी लक्ष्य की प्राप्ति करना अनिवार्य है। उससे स्थानीय परिवार तथा सम्पूर्ण समाज को होनहार युवा और गुण सम्पन्न नागरिक मिलते हैं। विद्यार्थी जीवन निर्माण में माता-पिता और गुरुजनों की प्रमुख भूमिका रहती है। क्या वर्तमान में हम माता-पिता और गुरुजन अपने इस दायित्व का भली प्रकार निर्वहन कर रहे हैं?
भारतीय संस्कृति में गुरु का स्थान सर्वोपरि है। घर पर माता-पिता और विद्यालय में गुरु को उच्च स्थान प्राप्त है। शास्त्रों में इन तीनों को गुरु कहा गया है। मातृ देवो भव, पितृ देवो भव, गुरु देवो भव। गुरु माता को सर्व प्रथम स्थान प्राप्त है क्योंकि वह बच्चे को नव मास तक अपनी कोख में रखे उसका पालन-पोषण करती है। जन्म के पश्चात ज्यों-ज्यों शिशु बड़ा होता जाता है त्यों-त्यों वह उसे आहार तथा बात करना सिखाने के साथ-साथ उठने, बैठने और चलने के योग्य बनाती है। गुरु पिता परिवार के पालन-पोषण हेतु घरेलु सुख-सुविधाएं जुटाने का कार्य करता है और परिवार को अच्छे संस्कार देने का भी ध्यान रखता है। विद्यालय में गुरुजन विद्यार्थी में पनप रहे अच्छे संस्कारों की रक्षा करने के साथ-साथ उसे धीरे-धीरे बल भी प्रदान करते हैं ताकि वह भविष्य में आने वाली जीवन की हर चुनौति का डटकर सामना कर सके। गुरु भले ही घर का हो या विद्यालय का, वह राष्ट्र के प्रति समर्पित भाव वाला होता है। उसके द्वारा किए जाने वाले किसी भी कार्य में राष्ट्रीय भावना का दर्शन होता है। जिससे देश-प्रेम छलकता है। गुरु के मन, वचन और कर्म में सदैव निर्भीकता हिलोरे लेती रहती है। वह जनहित में निष्कपट भाव से सोचने, बोलने और कार्य करने वाला होता है। गुरु को अपने विषय का पूर्ण ज्ञान होता है। एक तत्व ज्ञानी या गुरु ही किसी विद्यार्थी को उसकी आवश्यकता अनुसार उचित शिक्षण-प्रशिक्षण देकर उसे सफल स्नातक और अच्छा नागरिक बनाता है। गुरुर्बह्मा गुरुर्विष्णु गुरुर्देवो महेष्वरः गुरु साक्षात परमब्रह्म तस्मै श्री गुरुवैे नमः। शास्त्रों में गुरु को ब्रह्मा, विष्णु और महेश देवों के तुल्य माना गया है जिनमें सामाजिक संरचना, पालना और बुराइयों का नाश करने की अपार क्षमता होती है। गुरु आत्मोत्थान करता हुआ अपने विभिन्न अनुभवों के आधार पर विद्यार्थी को उच्च शिक्षण-प्रशिक्षण देकर समर्थ बनाता है। क्या हम घर पर गुरु माता-पिता और विद्यालय में गुरुजन अपने इन दायित्वों का भली प्रकार निर्वहन करते हैं?
जिस प्रकार मकान बनाने के लिए किसी निर्माता विशेषज्ञ के द्वारा मकान की नींव का निर्माण करने से पूर्व उसकी निर्माण- स्थली का सूक्षमता से निरीक्षण करना अनिवार्य होता है ठीक उसी प्रकार गुरुजनों द्वारा किसी विद्यार्थी जीवन को मूर्ति रूप देने से पूर्व विद्यार्थी जीवन का भी भली प्रकार जांच-परख करना होता है। उसकी नींव में प्रयुक्त होने वाली सामग्री जितनी बढ़िया होती है निर्माणाधीन विद्यार्थी जीवन रूपी भवन स्वयं में उतना ही सुरक्षित एवं संकट से मुक्त होता है। गुरुजन विद्यार्थी की बौद्धिक क्षमता अथवा योग्यता के आधार पर उसकी कार्य क्षमता का अनुमान लगाते हैं। वे उस पर कार्यभार का दबाव नहीं बल्कि उसके कार्य में सहयोग देते हैं। इससे उसमें विद्यमान प्रतिभा उजागर होती है और उसका प्रगति मार्ग सुगम होता है। गुरुजन विद्यार्थी में विद्यमान इच्छा शक्ति या उसकी लग्न का विशेष ध्यान रखते हैं। वह उसकी इच्छा शक्ति को ओर अधिक तीव्र करने में योगदान करते हैं तथा उसके मार्ग में आने वाली विभिन्न बाधाओं से समय-समय पर सावधान करके उसे आत्मरक्षा के उपायों द्वारा अवगत करवाते रहते हैं। विद्यार्थी की श्रमशीलता और लग्नशीलता उसकी कार्यक्षमता दर्शाती है। गुरुजनों की दृष्टि सदैव उसके कार्य में आने वाली विसंगतियों पर स्थिर रहती है जो आवश्यकता पड़ने पर उन्हें दूर करने में उसकी सहायता करती है। विद्यार्थी की सफलता गुरुजनों की कृपादृष्टि पर निर्भर करती है। विद्यार्थी की बौद्धिक क्षमता, इच्छाशक्ति, श्रमशीलता के साथ-साथ उसकी कार्यक्षमता भी उसके अदम्य साहस के आगे नतमस्तक होती है। लग्नशील विद्यार्थी ही साहसी और निर्भीक होकर जनहित कार्य करता है। इससे गुरुजनों की मेहनत सफल होती है। क्या वर्तमान विद्यार्थी बौद्विक क्षमता, इच्छाशक्ति, श्रमशीलता और साहस से परिवार एवं समाज के प्रति अपने दायित्वों का पूर्ण रूप से निर्वहन करता है?
खरबूजा खरबूजे को देख कर अपना रंग बदलता है – कहावत विश्व विख्यात है। परिवार में बच्चे और विद्यालय में विद्यार्थी आस-पड़ोस में जैसा देखते व सुनते हैं, वे स्वयं वैसा करने का प्रयत्न भी करते हैं। उन्हें वहां उत्तम संस्कार मिलें इसलिए माता-पिता और गुरु जन घर अथवा विद्यालय का वातावरण कभी दूषित नहीं होने देते हैं क्योंकि वे भली प्रकार जानते हैं कि अच्छे वातावरण में ही सुसंगत का उद्गम होता है जिससे सद्भावना, सद्विचार, सद्कर्मों का शुभारम्भ होता है जो किसी घर, परिवार और समाज के लिए अति आवश्यक है। उस घर, विद्यालय और समाज में किसी नर-नारी के साथ अन्याय, अनाचार,शोषण अथवा अत्याचार हो ही नहीं सकता जहां जागृत माता-पिता तथा गुरु जन समय-समय पर उपरोक्त बुराइयों के विरुद्ध किसी संयुक्त मंच से श्रोताओं के समक्ष निर्भीकता से क्रांतिकारी स्वर उठाते रहते हैं। इससे बच्चों और विद्यार्थियों में नव चेतना जागृत होती है। उनमें बल, बुद्धि, विद्या और सद्गुणों का सृजन होता है। उन्हें इस कार्य को करने के लिए उनका सहयोग मिलता है। बच्चों और विद्यार्थियों का सदाचारी जीवन कैसा होता है? जीवन की अपनी मर्यादाएं क्या होती हैं? उसकी रक्षा कैसे होती है? उससे क्या लाभ होते हैं? माता-पिता और गुरुजन समय-समय पर उन्हें इसका ज्ञान करवाते रहते हैं। सामाजिक मान मर्यादा की पालना कब, कहां, किससे और कैसे हो? माता-पिता और गुरुजन इसका हर समय ध्यान रखते हैं और बच्चों तथा विद्यार्थियों के लिए आदर्श बन कर दिखाते हैं ताकि वे भावी सभ्य समाज के नव निर्माण मे महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकें। क्या हम इस ओर अग्रसर है? नहीं तो हमें भविष्य संवारने के लिए ऐसा कुछ करना चाहिए क्या?
यह सत्य है कि हमारे देश के लोग, उनका रहन-सहन, खान-पान, आचार-व्यवहार, राष्ट्रीय भौगोलिक स्थिति, जलवायु और उत्पादन से देश की सभ्यता और संस्कृति को बल मिलता है। उससे भारत की पहचान होती है। अगर कभी इसमें विद्यमान गुण व दोशों को समाज के सम्मुख अलिखित रूप में व्यक्त करना पड़े तो हम उस माध्यम को भाषा का नाम दे सकते हैं । सर्वसुलभ भाषा का यथार्थ ज्ञान हमारी राष्ट्रीयता की अभिव्यक्ति का संसाधन हो सकता है, चाहे वह हिन्दी ही क्यों न हो? उसका देश के प्रत्येक बच्चे से लेकर अभिभावक, गुरु, प्रशासक और राजनेता तक को भली प्रकार ज्ञान होना अति आवश्यक हैं। समय की मांग के अनुसार भारत के विभिन्न सरकारी व गैर सरकारी क्षेत्रों में हिन्दी भाषा-ज्ञान का प्रचार-प्रसार करने के लिए सरकारी या स्वयं सेवी संगठनों द्वारा जो प्रयास हो रहे हैं उनमें हिन्दी सप्ताह या हिन्दी पखवाड़ा सर्वोपरि रहा है। इससे लोगों में हिन्दी के प्रति नव चेतना जागृत हुई है। निरन्तर प्रयास जारी रखने की महती आवश्यकता है। हिन्दी भाषा, अन्तराष्ट्रीय भाषा में परिणत हो कर अंग्रेजी भाषा के कद तुल्य बने, इसमें भूतपूर्व प्रधानमन्त्री श्री अटलबिहारी वाजपयी का योगदान सराहनीय रहा है। उन्होंने संयुक्त राष्ट्र संघ के सभा मंच पर हिन्दी में भाषण देकर विश्व में हिन्दी का मान बढ़ाया है। इसे और प्रभावी बनाने के लिए अनिवार्य है कि देश के सरकारी व गैर सरकारी क्षेत्रों में हिन्दी भाषा-ज्ञान का समुचित विकास हो। लोगों में शुध्द हिन्दी लेखन-अभ्यास रुके बिना जारी रहे। लोग आपस में प्रिय हिन्दी भाषी संबोधनों का निःसंकोच प्रयोग करें और वे जब भी आपस में वार्तालाप करें, शुध्द हिन्दी भाषा का उच्चारण करें। हिन्दी भाषा को राजभाषा का ससम्मान स्थान दिलाने की कल्पना वर्षों पूर्व हमारे राष्ट्रीय नेताओं ने की थी। उनका सपना तभी साकार हो सकता है जब हम अपने बच्चों को अंग्रेजी के साथ-साथ हिन्दी माध्यम की पाठशालाओं में भी प्रविष्ठ करेंगे। वहां से उन्हें हिन्दी का ज्ञान दिलाएंगे। वे शुध्द हिन्दी लिखना, पढ़ना और उच्चारण करना सीखेंगे। वे पारिवारिक रिस्तों में मिठास घोलने वाले प्रिय हिन्दी भाषी संबोधनों से जैसे माता-पिता, दादी-दादा, भाई-बहन, भाभी-भाई, बहन-जीजा, चाची-चाचा, तायी-ताया, मामी-मामा, मौसी-मौसा कह कर पुकार सकेंगे और समाज में उनसे मिलने-जुलने वाले प्रिय बन्धुओं से भी उन्हीं जैसा व्यवहार करेंगे। क्या हम प्राचीनकाल की भांति आज भी समर्थ हैं? इस ओर हम क्या प्रयास कर रहे हैं? भारत की प्राचीन सभ्यता एवं संस्कृति से प्रेरित होकर आज का कोई भी नौजवान सहर्ष कह सकता है कि हम हिन्दी भाषी लोग विभिन्न भाषी क्षेत्रों के लोगों का इसलिए सम्मान करते हैं कि हम उन्हें अधिक से अधिक जान-पहचान सकें और हमारी राष्ट्रीय एकता एवं अखण्डता पहले से कई गुणा अधिक सुदृढ़ बन सके।