अनमोल वचन :-# अच्छा स्वास्थ्य एवंम अच्छी समझ जीवन में दो सर्वोत्तम वरदान है l *
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आलेख - शिक्षा दर्पण दैनिक कश्मीर टाइम्स 9.8.1996
जिस प्रकार निवार से किसी लकड़ी की चारपाई को कलात्मक ढंग से बुनकर तैयार किया जाता है ठीक उसी प्रकार किसी देश का मानचित्र उसके अनुकूल उपयोगी शिक्षा पर निर्भर करता है l इस काम में अभिभावक, शिक्षक, राजनीतिज्ञ और प्रशासकों के आपसी प्रेम, सहयोग त्याग और बलिदान की भूमिका प्रमुख रहती है l इससे भाषा, विद्या-कला, सभ्यता, संस्कृति और साहित्य का विकास होता है तथा उनकी सदियों-सदियों तक पहचान भी बनी रहती है l
पुराने समय से ही भारतवर्ष गुरुकुलों का स्वामी रहा है, वह जगत कहलाया है l गुरुकुलों में गुरुजन शिष्यों को शिक्षा देने से पूर्व स्वयं आचरण करके जीवन चरित्रार्थ करते थे l वे विद्यार्थी को आत्मज्ञान देने के साथ-साथ उसे कार्य एवं व्यवहार करने हेतु रचनात्मक तथा सकारात्मक शिक्षण भी देते थे l वह लोक भ्रमण व अनुसन्धान करके दिव्य अनुभव प्राप्त करते थे l वह गुरुकुलों में समय-समय पर कला- प्रतियोगिताओं का आयोजन करते थे जिनसे विद्यार्थियों की कला-निपुणता का पता चलता था l
महऋषि व्यास जी द्वारा रचित महाभारत के अनुसार – एक बार गुरु द्रोणाचार्य जी ने अपने शिष्यों की धनुर्विद्या की परीक्षा लेनी थी l उन्होंने काष्ठ की एक चिड़िया पेड़ पर रखवा दी थी l सभी शिष्यों को बारी-बारी से चिड़िया की आँख में निशाना लगा कर अपनी-अपनी धनुर्विद्या का परिचय देना था l इस प्रतियोगिता में वीर अर्जुन को छोड़ कोई भी शिष्य सफल नहीं हो पाया था l इस कारण वे सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर कहलाये थे l
शिक्षा पूरी होने पर गुरु-इच्छा अनुसार हर विद्यार्थी के द्वारा गुरु जी को गुरु दक्षिणा देना अति आवश्यक होता था l जंगल में भ्रमण करते हुए गुरु द्रोणाचार्य जी ने एक कुत्ते का मुंह घाव रहित तीरों से भरा हुआ देखा l वे सब उस कुत्ते का साथ, उस एकांत स्थान पर जा पहुंचे जहाँ द्रोणमूर्ति के आगे एकलव्य एकाग्रचित होकर अपनी धनुर्विद्या का अभ्यास कर रहा था l उसी ने विद्या अभ्यास में विघ्न डाल रहे (भौकते हुए) कुत्ते के मुंह में एक साथ अनेकों तीर भर दिए थे l
अचानक अपने समक्ष साक्षात् गुरूजी को देख एकलव्य ने उनके आगे ससम्मान अपना सर झुका दिया l गुरूजी के पूछने पर उसने अपना परिचय दिया और बताया कि वे स्वयं द्रोण ही उसके गुरु हैं l गुरु दक्षिणा के रूप में गुरूजी ने एकलव्य से उसका दायें हाथ का अंगूठा माँगा जिसे उसने सहर्ष काटकर उन्हें भेंट कर दिया l
शिक्षा पूरी हो जाने के पश्चात विद्यार्थी गुरु-इच्छा अनुसार मन, कर्म, वचन का जीवन पर्यंत पालन करते थे l
इस काम में उनके अभिभावकों का भी पूर्ण योगदान रहता था l गुरुकुलों से विद्यार्थियों का प्रस्थान इस बात की पहचान करवाता था कि वह अपने जीवन, परिवार, सार्वजनिक जीवन की हर कठिनाई का सामना और समस्याओं का समाधान करने में पूर्ण समर्थ हैं और सक्षम भी l वह शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक एवंम आत्मिक रूप से बलशाली, प्रेमी-भक्त, बुद्धिमान और आत्मीयता के धनी हो गये हैं l
जब कोई विद्यार्थी अपने जीवन की कठिनाइयों और समस्याओं के भय से भयभीत अथवा हताश भी हो जाता तो उसके लिए उसे गुरु आश्रम के कपाट सदा खुले ही मिलते थे l वह गुरूजी से विचार-विमर्श करने और मार्गदर्शन पाने के लिए वहां किसी भी समय आ-जा सकता था l
गुरुकुल में हर विद्यार्थी के हृदय और मस्तिष्क एक विशेष ज्ञानामृत भर दिया जाता था l “हे प्रभु ! मुझे असत्य से सत्य की ओर ले जा l अँधेरे से उजाले की ओर ले जा l मृत्यु से अमरता की ओर ले जा l” परिणाम स्वरूप धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष प्राप्त करना उसके जीवन का मुख्य उद्देश्य होता था l
भारतीय समाज में आदरणीय माता-पिता व गुरुजी का देव तुल्य पूजनीय स्थान है l उनकी सेवा ईश्वर की पूजा समझी जाती है l माँ-बाप अच्छी सुसंस्कृत सन्तान के जनक हैं तो गुरुजन अच्छे राजनेता प्रशासक और सेवकों के निर्माता, प्रणेता और पोषक भी हैं l
स्वयं सीखना और योग्य बनना तथा दूसरों को सिखाना और उन्हें योग्य बनाना भारतीय शिक्षा की परंपरा रही है l उस समय देशभर में अभिभावक, गुरु, राजनेता, प्रशासकों के आपसी ताने-बाने में कमी आ गई थी l महामना आचार्य चाणक्य जी ने पुरानी चारपाई समान चरमराता हुआ राष्ट्र स्वरूप देखा l उन्होंने नन्हें परन्तु योग्य शिष्य चन्द्रगुप्त को शिक्षित करके न्यायप्रिय, दूरदर्शी, कुशल राजनीतिज्ञ बनाया और उसके मन में राष्ट्रीय एकता, अखंडता, देशप्रेम, त्याग और बलिदान की पवित्र भावना का बीज रोपित किया l उन्होंने साम, दाम, दंड और भेद पर आधारित राजनीति की भारत में लोकतान्त्रिक नींव रख दी जिस पर चन्द्रगुप्त ने विशाल भवन निर्माण करके उसे उच्च शिखर तक पहुँचाने में अथक प्रयास किये ताकि अखंड भारत का सपना साकार हो सके l काश मार्गदर्शन करने हेतु आज हमारे बीच में कोई आचार्य चाणक्य जैसा किसी माँ का लाल और शिष्यों का गुरु होता ! सावधान ! स्थान-स्थान पर पैदा हो रहे हैं – लार्ड मैकाले l उस जैसा सोचने वाले, देखने वाले, बोलने वाले और सुनने वाले l वही लूट रहे हैं अपने ही राष्ट्र को, समाज को और गांवों को l दे रहे हैं धोखा भी अपने ही आपको दिन-रात एक करके l वर्तमान शिक्षा-प्रणाली की अव्यवस्था आज किसी राष्ट्रभक्त को दिखाई नहीं दे रही है क्या ?
ज्ञान-विज्ञान, धन संपदा, सुख-समृद्धि और शांति का सृजन, पोषण, रक्षा और विकास करने के लिए आज देश भक्तों से राष्ट्र को चाहिए – प्रेम, सहयोग, त्याग, और बलिदान l ये कार्य मात्र देशभक्त अभिभावक, गुरु, राजनीतिज्ञ और प्रशासक ही कर सकते हैं l जो सोये हुए हैं, उन्हें जगाना होगा और जो जागे हुए हैं, उनको अपने जीवन में उच्च आदर्श अपनाकर स्वयं बनने का प्रयास करना चाहिए l पति श्री राम – चिंतन करे जो मात्र अपनी पत्नी का l पत्नी सीता – दिन-रात मग्न रहे पति-प्रेम में l पुत्र श्रवण कुमार – नित सेवा करे माता-पिता की l सेवक हनुमान - व्यस्त रहे सेवा में, स्वामी की l भक्त प्रहलाद – भक्ति ही शक्ति माने l शिष्य एकलव्य – गुरु में अटूट श्रद्धा रखे l भ्राता लक्ष्मण – भाई संग बराबर दुःख-सुख बाँट सके l त्यागी भरत – राजपाट रज सम समझे l गुरु चाणक्य – सबको सही राह दिखा सके l विदेही जनक – मोह देह का छोड़ सके l लोक नायक सुभाष, भगत, शेखर - देश हित अपना सर्वस्व बलिदान कर सके l दूर नहीं हैं सब, अब भी तुमसे, हैं बीच में वे छुपे हुए l प्रयत्न करो तुम सब मिलकर, बेड़ा पार हो जाये भारत का l
मत भूलो ! भारतीय शिक्षा सर्व गुण संपन्न, सर्व शक्तिमान, सर्व सुख दायक है l उसकी दृष्टि में विश्व का गूढ़ से गूढ़ रहस्य मात्र रहस्य बनकर न तो कभी रहा है और न रह ही सकता है l आओ ! हम सब मिलकर प्रभु से प्रार्थना करें कि इस लोक कल्याणकारी संकल्प को साकार करने हेतु वो हमें दृढ़ता, साहस, निर्भयता और शक्ति दें और हमें सफल भी बनाएं l चैन की बंशी बजेगी, जब भ्रष्टाचार का दूर होगा अँधेरा, सदाचार का पालन करेगा बच्चा बच्चा, तब होगा फिर नया सवेरा l शिक्षा ही एक ऐसा दिव्य अस्त्र-शस्त्र है जिससे अशिक्षा, अज्ञानता, और विश्व की किसी भी बुराई का सहजता से सामना किया जा सकता है l इस कार्य में मात्र भारतीय शिक्षा अपने आप में ग्यानी-विज्ञानी, आचार्यों के कुशल नेतृत्व में पूरी सक्षम और समर्थ है l
चेतन कौशल "नूरपुरी"