मानवता सेवा की गतिविधियाँ

श्रेणी: आलेख (page 7 of 31)

सर्वोत्तम वरदान

अनमोल वचन :-# अच्छा स्वास्थ्य एवंम अच्छी समझ जीवन में दो सर्वोत्तम वरदान है l *
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आचरण शुद्धता

अनमोल वचन :-# आचरण की शुद्धता ही व्यक्ति को प्रखर बनाती है l*
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अनीति मार्ग

अनमोल वचन :-# अनीति के रास्ते पर चलने वाले का बीच राह में ही पतन हो जाता है l*
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व्यक्ति परिचय

अनमोल वचन :-# दो चीजें आपका परिचय कराती हैं : आपका धैर्य, जब आपके पास कुछ भी न हो और...
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प्रभु की समीपता

अनमोल वचन :-# धर्यता और विनम्रता नामक दो गुणों से व्यक्ति की ईश्वर से समीपता बनी रहती है l*
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उच्च विचार

अनमोल वचन :-# दिनरात अपने मस्तिष्क को उच्चकोटि के विचारों से भरो जो फल प्राप्त होगा वह निश्चित ही अनोखा...
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मुस्कराना

अनमोल वचन :-# मुस्कराना, संतुष्टता की निशानी है इसलिए सदा मुस्कराते रहो l*
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प्रभु कृपा

अनमोल वचन :-# सच्चाई, सात्विकता और सरलता के बिना भगवान् की कृपा कदापि प्राप्त नहीं की जा सकती l*
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जीवन महत्व

अनमोल वचन :-# आप अपने जीवन का महत्व समझकर चलो तो दूसरे भी महत्व देंगे l*
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जीवन महत्व

अनमोल वचन :-# आप अपने जीवन का महत्व समझकर चलो तो दूसरे भी महत्व देंगे l*
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जल संकट और उसका समाधान

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आलेख – हमारा पर्यावरण मातृवन्दना आगस्त 2019 
भारत पाक विभाजन के पश्चात् बंगलादेशी और रोहिंग्या शरणार्थी मुसलमानों का भारत में तेजी के साथ आगमन हुआ है l मुसलमानों में बहु विवाह करने, अनेकों पत्नियाँ रखने और हर पत्नी से दर्जनों बच्चे पैदा करने की परंपरा, का आज भी प्रचलन जारी है l इस कारण छह-सात दशकों से देश के राज्यों में उनकी जनसंख्या टिड्डी दल की भांति बड़ी तीव्र गति से बढ़ी है, जब कि हिन्दुओं की जनसंख्या में निरंतर कमी आई है l इस तरह देश के कई राज्य जिनमें कभी हिन्दू बहु-संख्यक थे, अब अल्प संख्यक हो गये हैं l

निरंतर जन संख्या के बढ़ने, उचित मात्रा में इमारती और फलदार पोध-रोपण न हो पाने, लोगों को रहने के लिए स्थान कम पड़ने के कारण सबके लिए मकान तथा सड़क निर्माण हेतु बार-बार अनगिनत पेड़ों के कटने से जंगलों का वृत्त सिमटता जा रहा है l बहुत से जंगली जीव लुप्तप्राय हो गये हैं अथवा लुप्त होने के कगार पर पहुँच गए हैं l इससे पर्यावरण में असंतुलन पनपा है l वन्य जीव-जन्तु व वन्य संपदा निरंतर अभाव की ओर अग्रसर है l


देशभर में तेजी से शहरीकरण और सडकों का निर्माण होने के कारण धरती की सतह सीमेंट व तारकोल से ढकती जा रही है जिससे वर्षा जल का बहुत सा भाग किसी नाली, नाला, या नदी में बेकार बह जाने से भूमि में प्रवेश नहीं हो पाता है l हाँ असंख्य नलकूपों से पानी अवश्य निकाला जाता है, पर कहीं कृत्रिम भू-जल पुनर्भरण नाम मात्र ही होता है l निर्माण कार्य हेतु खनिजों की आपूर्ति के लिए नदी, नालों से खनिजों का दिन-रात भारी मात्रा में खनन जारी है जिससे उनमें निरंतर गहराई बढ़ रही है l बदले भु-जल स्रोत प्रभावित हो रहे हैं और क्षेत्रीय भू-जल संकट बढ़ रहा है l


धरती के तापमान में निरंतर वृद्धि होने से वर्षभर जल आपूर्ति करने वाले ग्लेशियर, हिमनद, दिनों दिन पिघल ही नहीं रहे हैं, सिकुड़ भी रहे हैं l बारहमासी बहने वाली परंपरागत झीलें, झरने, नदियां और नहरें जो देश के लिए जल की आपूर्ति किया करती थीं, के जलस्तर में भारी कमी आई है l हर वर्ष गर्मी बढ़ने से प्राकृतिक जल स्रोत सूखते एवं सिकुड़ते जा रहे हैं l


ग्लेशियर, हिमनद, नदियाँ और नहरें जैसे सतही जल स्रोत जो वर्षभर निरंतर प्रवाहित होते थे, उनसे तालाब, कूप, डैम और नहरों का जल-स्तर पर्याप्त मात्रा में भरा रहता था l मानव के द्वारा आधुनिकता की अंधी दौड़ में पर्यावरण के साथ अनुचित छेड़-छाड़ करने से उसका सौन्दर्य बिगड़ा है l आवश्यकता है प्राकृतिक जल स्रोतों का अस्तित्व बचाने की, उन्हें निरंतर सक्रिय बनाये रखने की l आज इनके अस्तित्व पर संकट के बादल छाने के पीछे मानव की महत्वाकांक्षा और पर्यावरण के प्रति उसकी उपेक्षा का हाथ स्पष्ट रूप से दिखाई दे रहा है l मनुष्य तीव्र गर्मी से राहत पाने के लिए जब-जब पहाड़ी क्षेत्रों की शीतल हरी-भरी बादियों, उनके रमणीय स्थलों की ओर भ्रमण करने निकलता है तो वह वापसी के दौरान वहां ढेरों गंदगी – पालीथीन लिफ़ाफ़े, प्लास्टिक बोतले और उनसे संबंधित अन्य कचरा भी छोड़ आता है जो पर्यावरण के लिए बड़ा घातक सिद्ध होता है l निर्माण कार्य करने, जीव जंतुओं को पीने के लिए, साफ-सफाई रखने और खेत, पेड़-पौधों की सिंचाई करने के लिए शुद्ध सतही जल ही काम आता है l मनुष्य को प्राकृतिक जल स्रोतों के किनारों पर साफ-सफाई का ध्यान रखना, फलदार और इमारती लकड़ी की पौध लगाना और उसके प्रति स्वयं जागरूक रहना अति आवश्यक है l


बंगलादेशी और रोहिंग्या शरणार्थी मुसलमानों की जन संख्या बढ़ने से भू-जल की मांग बढ़ी है l उससे अंधाधुध भू-जल दोहन होने लगा है l प्रदुषण फैल रहा है l निरंतर खनन होने व वन्य संपदा में कमी आने से जंगलों का वृत्त सिकुड़ रहा है l संतुलित वर्षा न हो पाने के कारण भी शुद्ध भू जल स्तर में कमी आ रही है l ऐसे में - कूप, नल कूप, नल, हस्त चालित नल, और बावड़ियाँ अपना-अपना अस्तित्व खो रहे हैं l सृष्टि में स्वच्छ जल की निरंतर हो रही कमी के कारण प्राणियों का जीवन संकट ग्रस्त है l


हमें जल उपयोग करने के लिए कठोर नियमों का पालन करना आवश्यक हो गया है l इसलिए नल या भू-जल का उपयोग समय पर और परिवार की आवश्यकता अनुसार ही करें l घर या सार्वजनिक नल अथवा भू-जल पाइप कभी लीक न होने दें l परिवार के सदस्य घर अथवा सार्वजनिक स्थलों पर सदैव बाल्टी और माघ से ही स्नान करें l जूठे वर्तनों और घर की साफ-सफाई तथा कपड़ों की धुलाई सदैव संग्रहित जल से ही करें l निर्माण कार्य हमेशा सतही जल- किसी झील, झरना, जलाशय, तालाब कूप, नदी या नहर से ही करें l ऐसा करने से हमें भूजल बचाने में कुछ लम्बे और अधिक समय तक सहायता अवश्य मिल सकती है l
हमारा भारत मुख्यतः छः ऋतुओं का देश है l उनमें वर्षा ऋतु का अपना ही महत्व है l आज देश भर में स्थिति ऐसी हो गई है कि कहीं वर्षा होती है तो कहीं होती ही नहीं है l जहाँ वर्षा होती है, वहां इतनी ज्यादा और भयानक होती है कि बाढ़ आ जाती है और वह अपने साथ जन, धन, सब कुछ बहाकर ले जाती है l यह सब अचानक इतनी जल्दी होता है कि किसी को अपनी स्थिति संभालने का समय भी नहीं मिलता है l जलधारा सायं-सायं करती हुई नाली, नाला, नदी का रूप धारण कर पहाड़ से जंगल और मैदान की ओर बढ़ जाती है l वह पहाड़ से निकलकर जलाशय की ओर बहती है और फिर सागर से मिलकर एकाकार हो जाती है l उसे तो बस बहना है l वर्षा जल आंधी बनकर आता है और तुफान् बनकर आगे बढ़ जाता है l इस तरह वह तीव्रगामी जलधारा धरती को विनाश के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं देती है l उससे कहीं भी भू-जल पुनर्भरण नहीं होता है l


भूजल बैक निरंतर खाली होता जा रहा है l इसका मुख्य कारण यह है कि हम भूजल बैंक से निरंतर अंधाधुंध जल दोहन किये जा रहे हैं पर उसमें कभी क़िस्त नहीं डालते हैं, कभी भी जल संग्रहण करने का प्रयास नहीं करते हैं l हमें जलस्तर में वृद्धि करनी होगी l जल संचयन करने हेतु परंपरागत बावड़ी, कूप, तालाब, जलाशयों का संरक्षण एवं उनका नव निर्माण करना होगा l खेत का पानी खेत में रहे, उसे वहीं रोककर, नदियों को स्वच्छ बनाकर, पर्यावरण का प्रदूषण भी हटाना होगा और सदाबहार नदी या नालों के जल को डैम या चैकडैम में बाँधकर तथा हर घर की छत के वर्षाजल का पाइप द्वारा भूमि में कृत्रिम भूजल पुनर्भरण करना होगा l भारत में मुस्लिम समुदाय की टिड्डी दल की भांति बढ़ रही जन संख्या पर नियंत्रण रखना होगा l इसके साथ ही साथ हमें हर वर्षा काल में अपने खेतों की मेड़ों पर तथा खाली पड़ी सरकारी और गैर सरकारी भूमि पर इमारती एवं फलदार पौध लगानी होगी l वर्षभर उनका पोषण करना होगा ताकि भावी पीढ़ियों के लिए प्राकृतिक जंगल और वन्य संपदा को लम्बे समय तक बचाया जा सके l
मनवा प्यासी धरती करे पुकार, सुरक्षित भूजल भंडार सबका करे उद्दार l

चेतन कौशल “नूरपुरी”

जागेगा स्वाभिमान जमाना देखेगा

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आलेख – राष्ट्रीय भावना मातृवंदना जनवरी 2018 
प्राचीन काल से ही हमारा देश एक अध्यात्म प्रिय देश रहा है भारत के ऋषि-मुनियों का संपूर्ण जीवन ज्ञान-विज्ञान अनुसन्धान एवंम शिक्षण-प्रशिक्षण कार्य में व्यतीत हुआ है उन्होंने सनातन संस्कृति में मानव जीवन को ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और सन्यास जीवन चार श्रेणियों में विभक्त किया था l वे संपूर्ण मानव जाति के कल्याणार्थ व्यक्तिगत ध्यानस्थ होकर ईश्वर से प्रार्थना करते हैं – “हे प्रभु ! तू मुझे असत्य से सत्य की ओर ले चल l अँधेरे से उजाले की ओर ले चल l मृत्यु से अमरता की ओर ले चल l” उनका मानना है कि “आत्म सुधार करने से मानव जाति का सुधार होता है l” जीवन सब जीते हैं  पर जीवन जीना इतना सरल नहीं, जितना कि कहना l वह हर पल कष्ट, दुःख, कठिनाइयों और चुनौतियों से घिरा रहता है l   
मात्र विवेकशील मनुष्य समय और परिस्थिति अनुसार बुद्धि से निर्णय लेते हैं l वे भली प्रकार जानते हैं की संसार में जीवन नश्वर है l सुख-दुःख बादल समान हैं, वे आते हैं तो चले भी जाते हैं l वह जीवन में जनहित, समाजहित और राष्ट्रहित में कुछ नया करना चाहते हैं, जबकि अन्य मार्ग में आने वाली कठिनाइयों से बचने के लिए सरल एवंम लघु मार्ग ढूंढ़ते हैं l इस प्रकार दोनों की सोच दूसरे के विपरीत हो जाती है l मानव जीवन में फुलों भरा सरल एवंम लघु मार्ग ढूँढने वाले लोग मात्र मन की बात मानते हैं l वे उसी पर चलते हैं l वे नैतिकता और मानवता की तनिक भी प्रवाह नहीं करते हैं l
ऐसे लोगों के द्वारा स्थापित शिक्षा केन्द्रों के पाठ्यक्रमों में देश का इतिहास, वास्तविक इतिहास नहीं होता है l उसमें सच्ची घटनाओं का सदैव अभाव रहता है l समाज परंपरागत सभ्यता एवंम संस्कृति से कटता जाता है और वह धीरे-धीरे उसे भूल भी जाता है l वे सत्ता पाने के लिए नैतिकता के साथ-साथ मानवता को भी ताक पर रख देते हैं, वे व्यक्ति विशेष, परिवार-वंश की महिमा मंडित करते कभी थकते नहीं हैं l वे क्षेत्रवाद, जातिवाद, धर्म-संप्रदाय वाद को बढ़ावा देते हैं l इससे देश की एकता एवंम अखंडता कमजोर होती है l अपने हित के लिए दंगे करवाए जाते हैं l विवेकशील मनुष्य नैतिकता, मानवता और मान-मर्यादाओं को पसंद करते हैं l स्मरण रहे ! कि ऐसे ही लोगों के प्रयासों से हमारा भारत अखंड भारत “सोने की चिड़िया” बना था l वे निजी जीवन में जनहित, समाजहित और राष्ट्रहित में कष्ट, दुःख, कठिनाइयों और चुनौतियों से सीधा सामना करने की विभिन्न प्रतिज्ञाएँ करते हैं, वह विपरीत परिस्थितयों से लोहा लेने के लिए हर समय तैयार रहते हैं l उनके लिए सबका हित सर्वोपरी होता है l
उनके द्वारा संचालित विद्या केन्द्रों से बच्चों को अच्छी, संस्कारित, गुणात्मक एवंम उच्चस्तरीय शिक्षा मिलती है l उससे उनका चहुंमुखी विकास होता है l उनके प्रशासन की नीतियां सर्व कल्याणकारी होती हैं l उपरोक्त बातों से स्पष्ट हो जाता है कि समस्त मानव जाति के पास जीवन यापन करने के सरल या कठिन मात्र दो ही मार्ग होते हैं l एक मार्ग उसे पतन – असत्य, अन्धकार और दुःख-मृत्यु की ओर ले जाता है तो दूसरा उत्थान – सत्य, प्रकाश और सुख-अमरता की ओर l हमें किस मार्ग का अनुसरण करना चाहिए ? उसे हमारे लिए जानना और समझना अति आवश्यक है l


चेतन कौशल "नूरपुरी"


सद्गुण संस्कार और हमारा दायित्व

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आलेख - मानव जीवन दर्शन कश्मीर टाइम्स 5 मई 1996 
ईश्वर द्वारा रचित प्रकृति में पृथ्वी और उसके चारों ओर ब्रह्मांड बड़ा विचित्र है l सूर्य में ताप, चन्द्रमा में चांदनी, वायु में सरसराहट और नदियों में कल-कल के मधुर संगीत का मिश्रण इस बात का का द्योतक है कि समस्त ब्रह्मांड में जो भी अमुक वस्तु विद्यमान है, वह अपने किसी न किसी गुण विशेष के लिए अपना महत्व अवश्य रखती है l 
बादलों की गड़गड़ाहट सुनकर मयूर का मस्त होकर नाचना और भोर के समय पक्षियों का चहचहाना किसी शुभ समाचार की ओर इंगित करता है l अगर ऐसा है तो प्राणियों में सर्व श्रेष्ठ, विवेकशील मनुष्य का जीवन नीरस और अंधकारमय कदाचित हो नहीं सकता l जब उसका जन्म होता है जो उसके जीवन का कोई न कोई विशेष उद्देश्य भी होता है l बिना उद्देश्य के उसे जन्म नहीं मिल सकता है l यह प्रकृति का नियम है l गुण और संस्कारों का जीवन के साथ जन्म-जन्मों का संबंध रहता है l जीवन उद्देश का उसने अपने इसी जीवन में पूरा अवश्य करना है जिसके लिए वह संघर्षरत है l ध्यान और सूक्षम दृष्टि से उसका अध्ययन करने की आवश्यकता रहती है l उसके भीतर लावा समान दबा और छुपा हुआ भंडार दिव्य गुण और संस्कारों के रूप में उसके जीवन का उद्देश्य पूरा करने में पर्याप्त होते हैं l वह समय पर बड़े और कठिन से कठिन भी कार्य कर सकने की अद्भुत सामर्थ्य रखते हैं l आवश्यकता मात्र है तो नवयुवाओं को गुण और संस्कारों के आधार पर सुसंगठित करने की l उन्हें उचित दिशा निर्देशन की, सहयोग की और उनका उत्साह वर्धन करने की l
युवा बहन-भाइयों को उनके जीवन के महान उद्देश्य तभी प्राप्त होते हैं जब उनके गुण – संस्कार जीवन उद्देश्यों के अनुकूल होते हैं l प्रतिकूल गुणों से किसी भी महान जीवन उद्देश्य की प्राप्ति नहीं होती है l बबुल का पेड़ कभी आम का फल नहीं देता है l जैसे किसी मीठे आम का एक बार रसास्वादन कर लेने के पश्चात् उससे संबंधित पेड़ देखने और वैसे ही मीठे आम दुबारा पाने की मन में बार-बार इच्छा उत्पन्न होती है, उसी प्रकार अच्छे या बुरे गुण–संस्कार युक्त बहन-भाइयों के कर्मों की छाप भी संपूर्ण जनमानस पटल पर अवश्य अंकित होती है जो युग-युगान्तरों तक उसके द्वारा भुलाये नहीं भुलाई जाती है l अच्छे या बुरे कर्मों के कारण ही संसार उन्हें याद करता है l यह बात उन पर निर्भर करती है कि वह किस प्रकृति से संबंधित है l
बुरा बनने से कहीं अच्छा है कि भला ही कार्य करके अच्छा बना जाए l उसके लिए आवश्यक है कोई एक निपुण शिल्पकार होना l जिस प्रकार एक शिल्पी बड़ी लग्न, कड़ी मेहनत और समर्पित भाव से दिन-रात एक करके किसी एक बड़ी चट्टान को काट-छांट और तराशकर उसे मनचाही एक सुंदर आकृति और आकर्षक मूर्ति का स्वरूप प्रदान कर देता है, ठीक इसी प्रकार किसी भी प्रयत्नशील बहन-भाई को स्वयं में छुपी हुई किसी प्रभावी विद्या, कला तथा दैवी गुणों को भी जागृत और उन्हें प्रकट करने के कार्य में आज से ही जुट जाना चाहिए जिनमें उनकी अपनी अभिरुचि हो l उन्हें सफलता अवश्य मिलेगी l देखने में आया है कि जैसा पात्र होता है उसकी अपनी प्रकृति के अनुकूल देश - कार्य क्षेत्र, काल - समय, परिस्थिति तथा पात्र – सहयोगी और मार्ग दर्शक अवश्य मिल जाते हैं l उनसे उनका काम सहज होना निश्चित हो जाता है और वह वही बन जाता है जो वह अपने जीवन में बनना चाहता है l
प्रयत्नशील को अपने जीवन में महान उद्देश्य की प्राप्ति के लिए उसके अनुकूल गुणों का अपने जीवन में चरित्रार्थ करना उतना ही आवश्यक है जितना फूलों में सुगंध होना l फूलों में सुगंध से मुग्ध होकर फूलों पर असंख्य भंवर मंडराते हैं तो जन साधारण लोग गुणवानों के आचरण का अनुसरण करने के लिए उनके अनुयायी ही बनते हैं l उनके साथ रहकर अच्छा बनने के लिए वह अच्छे गुणों का अपने जीवन में प्रतिपादन करते हैं l
उच्च गुण सम्पन्न व्यक्ति का जीवन प्रभावशाली जीवन होता है l वह स्वयं जैसा होता है, दूसरों को भी अपने जैसा देखना चाहता है, बनाना चाहता है l एक सदाचारी सदैव सदाचार की बात करता है, भलाई के कार्य करता है जबकि दुराचारी, दुराचार की बात करना अपनी शान समझता है, दुराचार के कार्य करता है l इसलिए दोनों की प्रकृतियाँ आपस में कभी एक समान हो नहीं सकती l वह एक दिशा सूचक यंत्र की तरह सदैव विपरीत दिशा में रहती हैं l उन दोनों में द्वंद्व भी होते हैं l कभी सदाचार, दुराचार का दमन करता है तो कभी दुराचार, सदाचार को असहनीय कष्ट और पीड़ा ही पहुंचाता है l जब यह दोनों प्रकृतियाँ सुसंगठित होकर किन्हीं बड़े-बड़े संगठनों का रूप धारण कर लेती हैं तब उनमें द्वंद्व न रहकर युद्ध ही होते हैं जिनमें उन दोनों पक्षों को महाभारत युद्ध की तरह अपने प्रिय बंधुओं और अपार धन-सम्पदा से भी विमुख होना पड़ता है l
समर्थ तरुणाई वह है जो अपने जीवन में कुछ कर सकने की सामर्थ्या, शक्ति रखती है l तरुण के लिए उसकी मानवीय शक्तियों का उजागर होना अति आवश्यक है l वह शक्तियां उसके द्वारा उच्च गुण-संस्कारों का अपने जीवन में आचरण करते हुए स्वयं प्रकट होती हैं l इसलिए तरुण–शक्ति जन शक्ति के रूप में लोक शक्ति बन जाती है l अतः कहा जा सकता है कि
लोक शक्ति का मूल आधार,
जन-जन के उच्च गुण संस्कार l
जिस प्रकार किसी एक बड़ी नदी के तीव्र बहाव को रोककर बांध बना लिया जाता है, युवाओं में कुछ कर सकने की जो तीव्र इच्छा-शक्ति होती है, उसे अवरुद्ध करना अति आवश्यक है l आवश्यकता पड़ने पर जलाशय के जल को कम या अधिक मात्र में नहरों के माध्यम द्वारा दूर खेत, खालिहान, गाँव-शहर तक पहुंचाया जाता है, उनसे खेती-बागवानी, साग-सब्जी की फसल में पानी लगाया जाता है और उससे अन्य आवश्यकताएं भी पूरी की जाती हैं - ठीक उसी प्रकार युवाओं की अद्भुत कार्य क्षमता को उनकी अभिरुचि अनुसार छोटी-बड़ी टोलियों में सुसंगठित करके उनसे लोक विकास संबंधी कार्य करवाए जा सकते हैं l युवा बहन–भाइयों की तरुण शक्ति को नई दिशा मिल सकती है l उससे गुणात्मक और रचनात्मक कार्य लिए जा सकते हैं l किसी परिवार, गाँव, तहसील, जिला, और राज्य से लेकर राष्ट्र तक का भी विकास किया जा सकता है l तरुण–शक्ति का मार्गदर्शन अवश्य किया जाना चाहिए l क्या हम ऐसा कर रहे हैं ? यह हमारा दायित्व नहीं है क्या ?


चेतन कौशल “नूरपुरी”

पाश्चात्य शिक्षा से हमें क्या मिला ?

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आलेख शिक्षा दर्पण - असहाय समाज वर्ग 1995 अक्तूबर-दिसम्बर 
भारत पराधीन हो गया l कारण था – उस समय के महत्वाकांक्षी, अहंकारी राजनीतिज्ञों का अपने गर्व में चूर रहकर छोटी-छोटी बातों के लिए मात्र अपने हित में बदले की भावना से एक दूसरे को नीचा दिखाने हेतु आपस में लड़ते रहना l स्थान-स्थान पर आचार्यों तथा विद्वानों का अपमान करना l यहाँ-तहां उनकी विद्वता का उपहास उड़ाया जाना l ज्ञान-विद्या की निरंतर उपेक्षा करने से राजनीतिज्ञों को सही समय पर उचित मार्गदर्शन न मिलना l परिणाम स्वरूप भारत की आंतरिक कमजोरी देख अन्य राष्ट्र छल –फरेव वाली कूटनीति की चालों द्वारा आतंकित करने लगे व उसे दोनों हाथों से दिन-रत लूटने लगे और वह लंबे समय तक निरंतर लुटता रहा l  
एक बार फिर लोगों में जाग्रति आई और उनके द्वारा त्याग ओंर लाखों बलिदान देने के पश्चात् 15 अगस्त 1947 के दिन भारत की पुनः उसकी अमूल्य राजनैतिक स्वतंत्रता मिल गई l स्वाधीन देश का फिर से विकास होने लगा l गुरुकुल भाषा संस्कृत के स्थान पर अंग्रेजी ज्ञान-प्रचार होने लगा l अंग्रेजी शिक्षा जन-जन तक पहुंची l अंग्रेजी ज्ञान बढ़ा फिर भी वह सब पर्याप्त नहीं हो पाया जो कि होना चाहिए था l वास्तविक शिक्षा भारतीय जन मानस की मूल आवश्यकता है l उसे मात्र उसके अनुरूप तथा देश, काल और पात्र के अनुकूल अवश्य होना चाहिए l
भारत एक कृषि प्रधान देश है l लोग मेहनत –मजदूरी करना सर्वश्रेष्ठ समझते है l अपना पेट भरते हैं l बच्चों का पालन-पोषण करते हैं l यही नहीं वे उनके भविष्य का निर्माण करने हेतु वे उन्हें अध्ययन करने के लिए घर से पाठशाला, पाठशाला से विद्यालय, विद्यालय से महाविद्यालय भी भेजते हैं l लेकिन दुर्भाग्य है, स्नातक बनने या विद्या ग्रहण करने के पश्चात् भी वे मात्र बाबु-नौकर ही बन पाते हैं l कुर्सी लेना , आदेश चलाना ही जानते हैं और हाथ से कोई कार्य करने के नाम पर कुछ नहीं सीख पाते हैं l सरकारी नौकरी का आभाव, बेरोजगारी कहलाती है फिर भी गैर सरकारी शिक्षण संस्थाएं एक के पश्चात् एक करके अनेकों निरंतर खुली हैं l उन्हें सरकारी मान्यताये मिली हैं l बेरोजगारी कम होने के स्थान पर बढती जा रही है l
इन शिक्षण संस्थाओं में अध्ययन हेतु प्रवेश-शुल्क की राशि दिन-प्रतिदिन किसी विशाल, भयानक अजगर के समान निःसंकोच अपना मुंह फैलाये जा रही है l अन्य दैनिक उपयोगी वस्तुएं तो महंगी हो रही हैं, शिक्षा भी महंगी हुई है, शिक्षा शुल्क बढ़ रहे हैं l विभिन्न श्रेणियों के परिणाम निकलने के पश्चात् नित नई श्रेणियां विद्यार्थियों के लिए नये महंगे प्रवेश शुल्क का संदेश मिल जाता है l
यह प्राकृतिक देन् है परन्तु आवश्यक नहीं कि प्रत्येक विद्यार्थी अपने हर विषय में मेघावी ही हो l बच्चे को उससे संबंधित कमजोर विषयों की ज्ञानपूर्ति करने के लिए किसी पाठशाला या विद्यालय में में मिलने वाला शिक्षक सहयोग और अध्ययन काल भी पर्याप्त नहीं होता है l

कारणवश ज्ञानपूर्ति करने के लिए उसे किसी अन्य माध्यम का ही सहारा लेना पड़ता है l यदि अभिभावक शिक्षित हों तो उसे घर से बाहर कहीं और जाने की आवश्यकता नहीं होती है l घर पर सहायता न मिलने पर ही उसे बाहर किसी की शरण लेने पड़ती है जो मुंह माँगा शिक्षण-शुल्क भी लेता है l इससे कई बार मेहनत मजदूरी पर आश्रित अभिभावकों की आर्थिक असमर्थता उनके होनहार बच्चों के भविष्य की निराशा भी बन जाती है l महंगी शिक्षा मेहनत मजदूरी के घर में प्रवेश नहीं कर पाती है l बच्चों का बड़ा होकर कुछ बनना, कुछ करके दिखना जो उनका दर्पण तुल्य स्वप्न होता है, टूट कर बिखर जाता है l
समय-समय पर बच्चों को पाठशाला का बढ़िया पहनावा, ढेर सी पुस्तकें, पेंसिलें, रबड़, कापियां, उनके यातायात का खर्च, विद्यालय भवन निर्माण, सफाई और उसके रख – रखाव के लिए भवन अनुदान, खेलों में भाग लेने के लिए खेल अनुदान और परीक्षा में बैठने के लिए परीक्षा शुल्क की विभिन्न देय राशियाँ जो प्रति वर्ष देय की जाती हैं – विद्यार्थियों और उनके सीमित आय वाले अभिभावकों के लिए तब तक चिंता का विषय बनी रहती है, जब तक वह देय नहीं हो जाती हैं l
इस प्रकार हम देख चुके हैं कि विकास के नाम पर भारतीय शिक्षा-क्षेत्र लार्ड मैकाले द्वारा व्यवस्थित शुल्क प्रधान आधुनिक शिक्षा-प्रणाली के कारण आर्थिक शोषण का अखाड़ा और धन सृजन करने का स्रोत मात्र बनकर रह गया है l वर्तमान विद्यालय, मदरसे, मिशनरियों से दिशाहीन शिक्षा प्रोत्साहन दे रही है, पैदा कर रही है – “बेरोजगारी” अर्थात दुःख, चिंता, रोग-शोक, और निराशा l “भ्रष्टाचार” अर्थात धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, नीति, न्याय की अव्यवस्था l “दानवता” अर्थात उग्रवाद, आतंकवाद, अलगाववाद, पत्थरवाज, आगजनी, अपहरण, धर्मांतरण, बलात्कार, हिंसा और देशद्रोह l
क्या यह सब भारत के किसी सम्मानित भद्र माँ-बाप, भाई-बहन, पति-पत्नी, परिवार, गाँव, शहर और उसके समग्र समाज के माथे लगा कलंक नहीं है ? क्या वर्तमान शिक्षा से भारत का उद्दार हो सकता है ? क्या इससे भारत के जन-जन की आवश्यकताएं पूर्ण हो सकती हैं ? क्या इससे रामराज्य का सपना पुनः साकार हो सकता है ? अगर नहीं तो देखो अपने अतीत को l उस समय भारत में कौन सी शिक्षा-प्रणाली प्रचलित थी ? जो वह आज तलक विश्वभर में जन-जन की जुवान पर चर्चा का विषय बनी हुई है और सकल जगत आज भी उसके नाम के आगे नतमस्तक होता है l

चेतन कौशल “नूरपुरी”

भारतीय शिक्षा की महक

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आलेख शिक्षा दर्पण - असहाय समाज वर्ग 1995 अक्तूबर दिसम्बर 
प्राचीन भारतीय निशुल्क शिक्षा-प्रणाली अपने आप में विशाल हृदयी होने के कारण विश्वभर में जानी और पहचानी गई थी l भारत विश्व गुरु कहलाया था l भारतीय शिक्षा गुरुकुल परम्परा पर आधारित थी जिसमें सहयोग, सहभोज, सत्संग, लोक अनुदान की पवित्र भावना सद्विचार,सत्कर्मो से विश्व का कल्याण होता था l गुरुकुल कभी किसी का शोषण नहीं, मात्र पोषण ही करते थे l तभी तो “सारी धरती गोपाल की है l“ भारत मात्र उद्घोष ही नहीं करता है, सारे विश्व को एक परिवार भी मानता है l 
गुरुकुल में राजा, रंक और भिखारी सभी के होनहार बच्चों को अपने जीवन में आगे बढ़ने का एक समान सुअवसर प्राप्त होता था l उनके साथ एक समान व्यवहार होता था l गुरु व आचार्य जन शिष्यों के अँधेरे जीवन में तात्विक विषय ज्ञान-विज्ञान, ध्यान, लग्न, मेहनत, योग्यता, निपुणता, प्रतिभा और शुद्ध आचार-व्यवहार जैसे सद्गुणों का प्रकाश करके उन्हें दीप्तमान करते थे l इससे बच्चों के जीवन की नींव ठोस होती थी l उनके शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा का संतुलित विकास होता था l बच्चे विश्व-बंधु बनते थे जो गुरु व आचार्यों के आशीर्वाद और बच्चों की लग्न तथा मेहनत का ही प्रतिफल होता था l
भारतीय गुरुकुलों में शिक्षण-शुल्क प्रथा का अपना कोई भी महत्व नहीं था l गुरुकुलों में शुल्क रहित शिक्षण-प्रथा से ही गुरु तथा शिष्य का निर्वहन, साधना, समृद्धि और विकास होता था l स्वेच्छा से सामर्थ्यानुसार, बिना किसी भय के ख़ुशी-ख़ुशी से दिया जाने वाला लोक अनुदान बच्चों के जीवन का निर्माण करता था l
कोई भी प्राचीन गुरुकुल एक वह दिव्य कर्मशाला थी जहाँ बच्चों में योग्यता पनपती थी l वहां उन्हें दुःख-सुख का सामना करने का अनोखा साहस मिलता था l जीवन के हर क्षेत्र में आत्म सम्मान के साथ सर उठाकर चलने और समय पड़ने पर शेर की तरह दहाड़ करने के साथ-साथ जीने और मरने की भी एक अनोखी मस्ती प्राप्त होती थी l इन गुणों को प्रदान करता था – आचार्यों, अभिभावकों, राजनीतिज्ञों और प्रशासकों का योगदान l गुरुकुलों की गरिमा अविरल जलधारा समान प्रवाहित होती रहती थी l गुरुकुलों को अनुदान से प्राप्त अन्न, धन, वस्त्र और भूमि आदि पर मात्र गुरुकुल में कार्यरत मान्य आचार्यों का जितना स्वामित्व होता था, अध्ययनरत, अध्ययनकाल तक उस पर शिष्यों का भी उतना ही स्वामित्व रहता था l दोनों में प्रेम, सहयोग, त्याग और बलिदान की पवित्र भावना होती थी l आचार्य शिष्यों के जीवन का निर्माण करते थे , उनका मार्गदर्शन करते थे जबकि शिष्य पूर्ण ज्ञानार्जित करने के पश्चात् मात्र कर्तव्य परायण होकर अपने माता-पिता, गाँव, समाज, शहर, और राष्ट्र ही की सेवा करते थे l
भारतीय शिक्षा–क्षेत्र मात्र निःस्वार्थ सेवा-क्षेत्र रहा है जिसमें निष्कामी आचार्य तथा ज्ञान पिपासु विद्यार्थियों की महती आवश्यकता बनी रहती थी l वह तो सदैव सबके लिए ज्ञान का प्रणेता और मार्ग दर्शक ही था l आचार्य भली प्रकार जानते थे – उन्हें विद्यार्थियों को किस प्रकार का शिक्षण देने के साथ-साथ प्रशिक्षण भी देना है l
वैसे शिक्षण-प्रशिक्षण लेने की कोई आयु नहीं होती है l आवश्यकता है तो मात्र विद्यार्थी के दृढ़ निश्चय की कि वह क्या करना चाहता है, क्या कर रहा है ? वह क्या बनना चाहता है, क्या बन गया है ? वह क्या पाना चाहता है, उसने अभी तक पाया क्या है ? अगर वह अपना उद्देश्य पाने में बार-बार असफल रहा हो, उसके लिए उसे किसी प्रकार की सहायता की आवश्यकता हो, किसी शंका का समाधान ही करवाना चाहता हो तो आ जाये उसका निवारण करवाने को l गुरुकुल के आचार्यों की शरण ले l वहां उसे हर समस्या का समाधान मिलेगा l वह जब भी आये, अपने साथ श्रद्धा, प्रेम, भक्ति और विश्वास अवश्य लाये, भूल नहीं जाना l हमारे आचार्य यही शुल्क लेते हैं l इनके बिना किसी को वहां उनसे कुछ भी नहीं है, मिलने वाला l
आज भारत माता के तन पर लिपटा सुंदर कपड़ा जगह-जगह से कटा हुआ है l भारतीय शिक्षा सदियों से आकंताओं, अत्याचारियों की बर्बरता, क्रूरता का शिकार हुई है l उसकी व्यवस्था अस्त-व्यस्त हो चुकी है l कपड़ा तो ठोस है, घिसा नहीं है, मात्र कटा हुआ है l वह तो अब भी हर मौसम का सामना करने में सक्षम है l भारतीय शिक्षा अव्यवस्थित होते हुए भी किसी अन्य राष्ट्र की शिक्षा-प्रणाली की तुलना में अब भी कम नहीं, श्रेष्ठ ही है l जरुरी है – उस कपड़े की सिलाई करना l उसे पुनः साफ-सुथरा करके फिर से उपयोगी बनाना l गुरुकुल शिक्षा का पुनर्गठन करना उसे उचित नेतृत्व प्रदान करना l
क्या हमें किसी अन्य तन का मात्र सुंदर कपड़ा देख अपने तन का उपयोगी एवं सुखदायी कपड़े का त्याग कर देना चाहिए ? हमें अपनी जीवनोपयोगी भारतीय शिक्षा प्रणाली को भुला देना चाहिए ? उसके स्थान पर किसी अन्य राष्ट्र से उपलब्ध शिक्षा-प्रणाली को स्वीकार कर लेना चाहिए ? नहीं, कभी नहीं l हमें गुरुकुल शिक्षा-प्रणाली को पुनः समझना होगा l उसे आधुनिक नई कसौटी पर परखना होगा l तभी वह एक दिन देश, काल, और पात्र के अनुकूल तथा जन मानस के अनुरूप, उपयोगी सिद्ध होगी l वैसे किसी कमजोर रोगी के तन से लिया हुआ कोई भी कपड़ा एक हृष्ट-पुष्ट निरोगी काया को मात्र रोगों के अतिरिक्त कुछ और दे भी क्या सकता है ? ऐसे कपड़े की तरह ली गई अन्य राष्ट्र की शिक्षा-प्रणाली भारत वर्ष के लिए किसी भयानक संक्रामक रोग से कम नहीं है l इससे उसे दूर रखने में ही हम सबका हित है l
आज हम वर्तमान शिक्षा-प्रणाली को अँधेरे का कारण मान रहे हैं लेकिन अँधेरे को दोष देने से कहीं अच्छा है – कोई एक दीप जला देना l कभी-कभी भारतीयन शिक्षा का मंद गति से प्रवाहित होने वाला मदमाती महक का मधुर झोंका न जाने कहाँ से आकर कोमल मन को स्पर्श कर जाता है ? मन आनंदित हो जाता है l लगता है वह कुछ कह रहा हो -
गुण छुपाये छुप नहीं पाता, गुण का स्वभाव है यही,
फुलवारी अपनी फूलों भरी, सुगंध रोके, रूकती है नहीं l

चेतन कौशल “नूरपुरी”




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